जब प्रसन्नता को गिरवी रखकर कमाई होती है: आचार्य रत्नसुंदरसुरि के वचन

गुड मॉर्निंग एक्सक्लुसिव – सौरभ शाह

(मंगलवार – ९ अक्टूबर २०१८)

(इस लेखमाला की पिछली किस्त पढने के लिए क्लिक कीजिए: यहां )

आज के समय में सबसे बुरे शब्द कौन से हैं? `किसी भी कीमत पर’. ये शब्द जब भी मन में घर कर जाते हैं तब जल्द या देर से विनाश हुए बिना नहीं रहता. `किसी भी कीमत पर’ का अर्थ ये है कि हमें कुदरत द्वारा अपने लिए तय किया गया परिणाम मान्य नहीं है. हम प्राकृतिक या सहज बनने के बजाय जब अपनी जिद पर अड जाते हैं तब भगवान को लगता है कि चलो, इस आदमी को पर्चा दिखा ही देना चाहिए. `किसी भी कीमत पर’वाली मानसिकता जिसमें घर कर जाती है उसकी अकड तोडने के लिए, उसके अहम को चूर करने के लिए भगवान के पास कई सारे रास्ते हैं. इनमें से वह किसी एक मार्ग से हमारी जिद छुडवाता है, हमें अपनी शरण में ले ही आता.

`किसी भी कीमत पर’ धनवान बनने के सपने देखनेवालों को लालबत्ती दिखानेवाला ये प्रश्न है: `प्रसन्नता के बलिदान पर अमीर नहीं बनना चाहिए?’ आचार्य विजय रत्नसुंदरसुरि महाराज साहब ने `वन मिनट प्लीज’ पुस्तक में इन प्रश्नोंका एक वाक्य में सटीक उत्तर दिया है: `क्या आंख की कीमत पर चश्मे का सौदा किया जा सकता है?’

पैसा कमाने का उद्देश्य खुशी से जीवन निर्वाह करना है. आपके पास खूब धन हो, और उसमें धीरे धीरे बढोतरी भी हो रही है, आप जो चाहें वह खरीद सकते हैं, जहां चाहें वहां जा सकते हैं, किसी की भी मदद कर सकते हैं, भारी मात्रा में धर्म दान भी कर सकते हैं, अच्छी से अच्छी जीवनशैली अपना सकते हैं, अति सुंदर स्त्री से विवाह कर सकते हैं, सबसे महंगी गाडी खरीद कर शहर के अच्छे इलाके में भव्य भवन के मालिक बन सकते हैं, इतने सक्षम हो लेकिन यदि आप प्रसन्न नहीं हैं तो वह धन किस काम का? यदि आपका स्वभाव चिडचिडा हो गया है, आप निरंतर असंतोष से पीडित रहते हैं तो यह अमीरी किस काम की. अगर धन कमाने के चक्कर में क्लेश, द्वेष और दुख बढ जाए और नैसर्गिक प्रसन्नता का हनन हो जाए, और वंह धन घर में या बैंक में पडा हो तो आपको वह बोझ ही लगेगा.

महंगी से महंगी फ्रेम और अच्छे से अच्छे कांच का चश्मा पहनने का शौक हो और उस शौक को आप पूरा भी कर सकते हैं तो उसके प्राथमिक जरूरत क्या है? आपकी आंखें. अगर कोई कहता है कि उन्हें दान कर दीजिए या फोड दीजिए तो चाहे कितनी भी महंगी कार्टियर की फ्रेम हो या प्राडा के सनग्लासेस हों, वे भला किस काम के? आंख रही तो ये सब काम के हैं. महाराज साहब ने एक सादा उदाहरण देकर बहुत बडी बात समझा दी है. क्या हम समझेंगे उसे?

अपने छोटे छोटे स्वार्थ को लेकर हम कर्स बार ऐसे लोगों की प्रशंसा करते हैं जिनमें कोई सत्व नहीं होता. हम इस बात को जानते हैं फिर भी उनसे काम निकालने के लिए उनकी गुडबुक्स में बने रहने के लिए ऐसी हरकत कर बैठते हैं. ऐसा करते समय हम योग्य व्यक्ति की कद्र करना चूक जाते हैं, उसकी उपेक्षा करते हैं, उसके सामने हीनता का व्यवहार करते हैं, उनका अवमूल्यन कर बैठते हैं. `कलयुग में ध्यान रखने जैसी वस्तु कौन सी?’ ऐसे प्रश्न के जवाब में गुरूदेव आदेश देते हैं:`झूठे की पूजा न हो, सच्चे को परेशानी न हो, उसका ध्यान रखना चाहिए.’

कई बातें ऐसी होती हैं जो विचार के रूप में होती हैं, कॉन्सेप्ट के स्वरूप में होती है. उनका कोई स्थूल स्वरूप नहीं होता जिसे हम छू सकें या देख सकें, सुन सकें. जीवन और प्रेम ऐसी ही संकल्पना है. `जीवन से प्रेम है इसका विश्वास?’ इस सवाल के जवाब में कोई चाहे तो ऐसी ऐसी हवाई बातें कर सकता है कि जिसे सुनकर लोग प्रभावित हो जाएं पर उससे वे बोध नहीं लेंगे. गुरुदेव प्रैक्टिकल है. वे आपको उलझाना नहीं चाहते. समझ में न आ सकनेवाली अगडम बगडम बातें करके अपनी विद्वत्ता की छाप छोडने वालों में वे नहीं हैं. वे खुद सरल हैं इसीलिए उनकी प्रचंड प्रज्ञा भी उतनी ही सहजता से प्रकट होती है. उत्तर देते हुए वे कहते हैं: `जो प्रेम समय पर हो वह.’

आप अपना समय किस तरह से उपयोग में लाते हैं उससे तय होगा कि आपको अपने जीवन से कितना प्रेम है. अपने समय का आप क्या करते हैं, उससे यह तय होगा कि आप जीवन को कितना महत्व देते हैं.

आप गप्पे लगाने में समय बिताते हैं, भटकने में समय व्यतीत करते हैं या फिर मिले हुए हर एक क्षण को कंजूस के धन की तरह सावधानी से उपयोग में लाते हैं? भगवान ने हमें जो भी काम हमें सौंपा है, उस काम के अलावा अन्य बातों में समय बिताना यानी भगवान का कहा न मानना, उनके खिलाफ हो जाना. ऊपरवाले ने आपको इस धरती पर खेती करने भेजा, रिक्शा चलाने भेजा, मकान बनाने भेजा, लोगों की समस्याएं सुलझाने के लिए भेजा है या फिर संगीत का सृजन करने के लिए भेजा है. एक सेकंड भी बिगाडे बिना आपको अपने क्षेत्र का काम करने में समय खर्च करना चाहिए. साथ ही अपने संतोष के लिए, परिवार-मित्रों के संतोष के लिए जो भी थोडा बहुत समय देना पडे वह भी देना चाहिए. लेकिन कभी विचारों में खोकर, दिन में निद्रिस्त होकर, पडे रहकर, हवाई किले बनाकर या सैर सपाटा करते हुए व्यसनाधीन रहकर समय बर्बाद नहीं करना चाहिए. अगर हमें जीवन से प्रेम है तो हमें प्रतिदिन मिलने वाले चौबीस घंटों के हर पल से प्रेम करना चाहिए, उसका अनादर नहीं करना चाहिए.

हम सभी में वैसे तो चतुराई का भंडार है. जिसे तिसे उसका लाभ देने के लोभ का संवरण हम नहीं कर सकते. इतनी समझदारी होने के बावजूद हम सुखी क्यों नहीं हैं. संतुष्ट और प्रसन्न क्यों नहीं हैं? प्रश्न है:`जीवन की सबसे बडी करूणता क्या है?’ उत्तर: `सत्य समझ में आता है, लेकिन वक्त पर समझ में नहीं आता है.’ हममें जो समझदारी आती है वह उचित समय में आ जाती तो अभी जो कठिन स्थिति पैदा हुई है उससे मुक्ति मिल जाती. साधू संतों को समय पर सत्य समझ में आ जाता है. हम सत्य को समझने में तथा सत्य की समझ को स्वीकारने में देर करते हैं, यही हमारी सबसे बडी तकलीफ है. और ये रहेगी. क्योंकि यदि समय पर सत्य समझ में आ जाता तो हम भी अभी संत बन चुके होते!

हमारा मनोबल कैसे निर्मित होता है? कौन सी समझ हमारी मानसिक शक्ति को बढाता है? प्रश्न ऐसा है:`हमारी सबसे बडी शक्ति कौन सी है?’ इसके जवाब में गुरुदेव कहते हैं:`अंत:करण से प्रामाणिक रहना.’ इन तीन शब्दों का अर्थ क्या है? मन जिस काम के लिए मना करता है उस काम को नहीं करना चाहिए. अंदर से चुभन होती हो तो ठहर जाना चाहिए. खुद से छल नहीं करना चाहिए. दिल की बात सुननी चाहिए. विवेक का अनुसरण करना चाहिए. बाहर की परिस्थिति की मांग चाहे जैसी हो, अंत:करण की प्रामाणिकता को अखंड रखना चाहिए.

प्रश्नष चिंता और चिंतन के बीच क्या अंतर है?

उत्तर: `क्या होगा?’ यह चिंता है और `क्या किया जा सकता है?’ यह चिंतन है.

हम सभी चिंता करनेवाले हैं और चिंता का हल खोजनेवाले चिंतक हैं.

अब के प्रश्न में एक बारीक बात आती है. विपुलता को हम सफलता मान लेते हैं. जहां बहुत कुछ होता है वहां सफलता होगी ही ऐसा हमने मान लिया है- देश के लिए, समाज के लिए, परिवार के लिए, अपने खुद के लिए.

लेकिन कहीं हमसे भूल हो रही है ऐसा लगता है. एक बारीक बात नहीं समझी है. गुरूदेव इस प्रश्न के उत्तर में हमें समझाते हैं:

प्र: क्या वृद्धि और विकास के बीच कोई अंतर है?

उ: घास बडी होती है उसे वृद्धि और बगीचे का सृजन होता है वह विकास कहलाता है.

ऐसी अनेक सीखें आचार्य विजय रत्नसुंदरसुरि महाराज साहब ने `वन मिनट, प्लीज’ पुस्तक में दी हैं. कल जारी.

आज का विचार

प्र: जीवन में सौ प्रतिशत विफल कौन है?

उ: किसी का सुने और सभी की सुने वह.

– आचार्य विजय रत्नसुंदरसूरि

(`वन मिनिट, प्लीज’ में)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here