हम सभी को अमीर क्यों बनना जरूरी है

गुड मॉर्निंग- सौरभ शाह

(मुंबई समाचार, शुक्रवार – २१ दिसंबर २०१८)

`दिल ढूंढता है फिर वही फुर्सत के रात दिन’, गीत के बारे में नुक्ताचीनी करते हुए गुलजार ने कहा है कि: `मिसरा गालिब का है, कैफियत हरेक की अपनी अपनी…’ गालिब की गजल के एक मिसरे के आधार पर गुलजार ने एक पूरा मौलिक गीत ही लिखा है जो मदनमोहन द्वारा संगीतबद्ध किया गया है, फिल्म `मौसम’ में इसका उपयोग हुआ है. कुछ ऐसी ही बात अभी हो रही है: मिसरा रजनीश का है, कैफियत हरेक की अपनी अपनी….

ओशो रजनीश ने कहा है:“मैं चाहता हूं कि आप सभी हर तरह से धनवान बनें- भौतिक अर्थ से, मानसिक रूप से, आध्यात्मिक रूप से. इस पृथ्वी पर अभूतपूर्व रूप से संपन्न से संपन्न व्यक्ति जैसी वैभवशाली जिंदगी आपकी हो.”

हम सभी जानते हैं कि रजनीशजी का जीवन कितना वैभवशाली था. ८५ रोल्स रॉयस गाडियां और १०० रोलेक्स की घडियां इत्यादि. कइयों ने बिना समझे ही इस बात की आलोचना भी की थी. रजनीशजी के पास गाडियां और घडियां अति धनवान लोगों से भी काफी ज्यादा थीं जिसकी चर्चा हमने की है. लेकिन क्या किसी ने रजनीशजी के पास रही किताबों की संख्या के बारे में बात की है? उनके पास ९०,००० से अधिक पुस्तकें थीं. उन पुस्तकों के अंतिम पृष्ठ पर उनका हस्ताक्षर होता था. हर पुस्तक में कहीं ऑर्डरलाइन तो कहीं नोट्स तो कहीं हाइलाइट की गई बातें होती थीं. अधिकतर किताबें वेल थम्ब्ड थीं. नब्बे हजार किताबें और किताबो को पढने में लगे औसत समय का गुणा करके ध्यान में आता है कि रजनीशजी को गलत रंगनेवाले निश्चित ही मूर्ख होंगे. हर किताब पढने के लिए नहीं होती, इसकी जानकारी पुस्तकें खरीदकर संग्रह करने की आदत रखने वालों को होती है. कुछ किताबो को पांच मिनट में सूंघ कर आधा रख देना होता है. किसी में आधा घंटा पेज उलट कर जो पाना होता है वह पा लेना होता है. उसके बाद जैसे क्रीम बिस्किट में से क्रीम चाटने के बाद बच्चा जिस प्रकार बिस्किट को दूर रख देता है, उस तरह से पुस्तक रख देनी होती है. किसी किताब से एक – दो घंटा सत्संग करके जान लिया जाता है कि इसमें से हमारे लिए क्या काम का है, क्या नहीं. किसी किताब के आगे की सामग्री तथा पहले इंडेक्स के पृष्ठों से जो रेफर करना होता है उसे रेफर कर लिया जाता है. कभी किताब के प्रत्येक पृष्ठ पर तेजी से नजर घूम जाती है तो कभी पुस्तक का एक एक शब्द ध्यान से पढा जाता है. कभी कभी एक ही किताब को दो बार पढने पर मजबूर हो जाते हैं तो किसी किताब को हर साल बार बार पढने में आनंद आता है.

रजनीशजी के पास ९०,००० (नब्बे हजार) किताबें थीं. उन्होंने यह बात खुद कही है. उनकी मनपसंद पुस्तकों के बारे में एक व्याख्यान की श्रृंखला भी लिखी है. मैं इस बारे में पहले भी इस कॉलम में विस्तार से लिख चुका हूं.

रजनीशजी पुस्तकें संजो कर रखने के बारे में भी संपन्न थे- केवल रोल्स रॉयस और रोलेक्स या रॉब्स या कफ लिंक्स के बारे में ही नहीं. रजनीशजी की लिखी पुस्कों की संख्या भी सबसे सबसे प्रोलिफिक लिखनेवाले दुनिया के टॉप हंड्रेड लेखकों की कतार में रखी जा सकने जितनी है. ५०० से भी अधिक. हां, ये किताबें उन्होंने अपने हाथ से नहीं लिखी हैं. उनके प्रवचनों की टेप से ट्रांसक्रिप्ट की गई हैं. तो इसमें क्या हो गया. कई महान लेखक खुद लिखने के बजाय अपने सहायक को डिक्टेशन दिया करते हैं (हम अपनी उंगलियों में पेन पकडकर खुद लिखते हैं. हम महान नहीं हैं). हम ये समझें कि रजनीश ने अपने स्टडी रूम में डिक्टेशन देने के बदले कभी हजारों तो कभी सैकडों श्रोताओं के सामने माइक पर डिक्टेशन दिया है.

रजनीशजी हर तरह से धनवान थे. इसके बावजूद अलिप्त थे. इतनी संपन्नता के बाद भी उनमें न तो क्षुद्रता पनपी, न कोई डर, न अहंकार, न उनकी जिजीविषा में कोई बढोतरी या कमी हुई. इस तमाम संपन्नता के बावजूद शायद इसी कारण से वे साधु थे, त्यागी थे, संत थे. किसी को अपनी अमीरी गरीबी के कारण इस बात से सहमत न होना हो तो छूट है. इससे रजनीशजी की संपन्नता घटती नहीं है. रजनीशजी भोगी थे, उच्च कक्षा के भोगी थे. जिसने सारा कुछ उच्चतम स्तर का उपभोग किया. स्वामी रामदेव ने रजनीश के संदर्भ में तो नहीं लेकिन इन जनरल कहा है जो यहां पर लागू होता है: `भोगी बनने के लिए योगी बनना पडता है.’

अच्छी से अच्छी तरह भोग भोगने हो तो अच्छे से अच्छा योगी बनना होगा. कमजोर हो चुकी कृशकाया लेकर माया में लिप्त पुरुष मेनका को कहां से भोग सकेगा? दुनिया की महंगी से महंगी सुरा का जायका कहां से ले सकेगा?

संपन्न बनने के बाद आपमें लालच नहीं रहती. एक रसगुल्ला खाने के बाद, दूसरा और दूसरा खाने के बाद तीसरा खाने की लालच होती है. लेकिन छट्ठा, नवां या बारहवां खाने के बाद! लालच मिट जाती है. और जब आपको विश्वास हो जाता है कि आपके पास जब जितना चाहिए उतना रसगुल्ला खाने की सुविधा, उतना धन, वैसी तबीयत रखते हैं तो रसगुल्ले के लिए आपकी लालच पूरी तरह से खत्म हो जाती है. आपको पता है कि बाय रसगुल्ला व्हॉट डू आय मीन!

हर तरह से संपन्नता प्राप्त करने का लक्ष्य रखने के पीछे की मूलभूत संकल्पना ये है कि यह संपन्नता हासिल करने के लिए जो कुछ भी करना पडता है वह करने में हम अपने भीतर निहित क्षमता की आखिरी से आखिरी बूंद निचोड कर जीते हैं, प्रकृति द्वारा हमें प्रदान की गई शक्तियों का पूरा उपयोग करें. उसे यूं ही रखकर उसका उपयोग किए बिना उसे बर्बाद नहीं करना चाहिए.

आज का विचार

मुख्तसर सा गुरूर भी जरूरी है

जीने के लिए

ज्यादा झुक के मिलो

तो दुनिया पीठ को

पायदान बना लेती है

– वॉट्सएप पर पढा हुआ

एक मिनट!

बका का बोधिज्ञान: छोटे छोटे बच्चे सांताक्लोज में विश्वास करते हैं ऐसा सोचकर हंसना नहीं चाहिए. परिपक्व उम्र के कई लोग आज भी राहुल गांधी में विश्वास रखते हैं.

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