इस सोची समझी और गहरी साजिश का परिणाम सामने आ गया

गुड मॉर्निंगसौरभ शाह

लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ होने चाहिए, ऐसी मांग आज की जा रही है तो विपक्षियों, खासकर कांग्रेस के पेट में दर्द हो रहा है. लेकिन नेहरू के जमाने में दोनों चुनाव एक साथ हुआ करते थे, यह सच्चाई या तो उन्हें पता नहीं है या फिर वे जानकर भी अनजान बन रहे हैं.

अटल बिहारी वाजपेयी १९५५ में लखनऊ में आयोजित लोकसभा उपचुनाव में खडे थे. लोकसभा का चुनाव लडने का यह उनका पहला अनुभव था. १९४७ में आजादी मिलने के बाद और १९५० में देश गणतंत्र बना उसके बाद १९५२ में पहली बार देश में लोकसभा के चुनाव जब हुए तब जनसंघ को कुल ३ सीटें मिली थीं. वाजपेयी स्कूल में थे तभी से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड गए थे और १९४७ से पहले उन्होंने संघ के तीन वर्ष की शिक्षा प्राप्त कर ली थी. जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामप्रसाद मुखर्जी के वे जूनियर थे.

१९५७ में वाजपेयी ने बलरामपुर संसंदीय क्षेत्र से लोकसभा में चुकर आए. १९५७ से १९६२ के दौरान उनका पहला संसदीय कार्यकाल अत्यंत उज्ज्वल रहा. अगस्त १९५७ में उस समय के लोकसभा अध्यक्ष अनंत शयनम अय्यंगार से जब दिल्ली युनिवर्सिटी के समारोह में पूछा गया कि भारत की संसद में श्रेष्ठ वक्ता कौन है तब उन्होंने हिंदी में अटल बिहारी वाजपेयी और अंग्रेजी में एक बंगाली सांसद का नाम लिया था. राजनेता के रूप में अपने जीवन कार्य की शुरूआत से ही वाजपेयी एक कुशल वक्ता के रूप में विख्यात हो चुके थे.

पंडित नेहरू को यह अच्छा नहीं लगता था कि संसद में उनके अलावा कोई दूसरा अच्छा वक्ता हो. १९६२ में बलरामपुर निर्वाचन क्षेत्र से वाजपेयी फिर से खडे हुए तब कांग्रेस ने उन्हें हराने के लिए तमाम दांव पेंच खेले. युवा वाजपेयी मतदाताओं को आकर्षित करते थे इसीलिए हरियाणा से सभद्रा जोशी नामक सुंदर महिला को कांग्रेस की ओर से उम्मीदवारी दी गई. इसके अलावा प्रचार के लिए हिंदी फिल्मों के हीरो बलराज साहनी को कांग्रेस ने बलरामपुर भेजा. इतना ही नहीं, वाजपेयी के खुद के लिखे अनुसार पंडित नेहरू भी बलरामपुर में एक सार्वजनिक सभा करके गए थे. (यद्यपि, कई जानकार लोग इसे वाजपेयी का स्मृति दोष बताते हैं. नेहरू ने बलराज साहनी को भेजा था लेकिन खुद प्रचार के लिए बलरामपुर नहीं गए थे. खैर जो भी हो). यह तो हम जानते हैं कि चुनाव लडने की सामान्य व्यूह रचनाएं हैं. लेकिन कांग्रेस ने एक बडी बदमाशी की थी जिसके कारण वाजपेयी चुनाव हार गए. क्या किया कांग्रेस ने?

वाजपेयी ने १९५७ से १९६२ के पांच वर्षों के दौरान अपने निर्वाचन क्षेत्र बलरामपुर में काफी अच्छा काम किया था और संसद में भी बलरामपुर का प्रतिनिधित्व जोरशोर से किया था. बलरामपुर के मतदाता वाजपेयी से संतुष्ट से और कोई भी इस बात को नहीं मानता था कि वे १९६२ का वह चुनाव हार जाएंगे. बलरामपुर ही नहीं बल्कि पूरे जनसंघ का प्रतिनिधित्व वाजपेयी ने अत्यंत कुशलता से किया. जनसंघ के वे प्रवक्ता थे. जनसंघ का प्रभाव इस दौरान बढ रहा है ऐसा देश में हर किसी को लगता था. (जो कि सही धारणा थी, १९५७ में चारों तरफ से जीता जनसंघ १९६२ में लोकसभा की १४ सीटें जीता).

वाजपेयी का विरोधियों की आंखों में किरकिरी के समान चुभना स्वाभाविक ही था. मतदान के दिन छूरेबाजी की घटना के अलावा कांग्रेस ने जो षड्यंत्र किया उसका विवरण जानने योग्य है.

जैसा कि आज हो रहा है उसी प्रकार से आज से ५०-६० साल पहले भी कांग्रेस आरएसएस के नाम से मतदाताओं को भडकाने का काम करती थी. कांग्रेस की युवा और सुंदर उम्मीदवार सुभद्रा जोशी भी जनसंघ के अलावा आरएसएस पर निशाना लगाकर अपनी चुनावी सभाओं में गर्जना कर रही थी, लेकिन इसका असर मतदाताओं पर नहीं पडा.

मतदान के दिन समाचार आने लगा कि बलरामपुर नगर के अलावा इस निर्वाचन क्षेत्र के शेष इलाकों में जनसंघ के पक्ष में भारी मतदान हो रहा है. वाजपेयी उस दिन को याद करके लिखते हैं:

`किंतु अनेक स्थानों से मिली एक शिकायत से मेरा माथा ठनका था. शिकायत यह थी कि कांग्रेस के समर्थकों ने मतदाताओं में भ्रम पैदा करने के लिए यह प्रचार शुरू कर दिया था कि यदि वे लोकसभा चुनाव में मुझे वोट देना चाहते हैं तो उन्हें गुलाबी मतपत्र पर दीपक पर मुहर लगानी चाहिए. उन दिनों लोकसभा और विधान सभा के चुनाव एक साथ होते थे. हर मतदाता को दो पत्र दिए जाते थे. दोनों के रंग अलग अलग होते थे. मेरी लोकप्रियता देखकर कांग्रेसजनों ने मतदाताओं को गलत रंग के मतपत्र पर मुझे वोट देने के लिए कहा. मतदान केंद्रों पर तैनात कुछ अधिकारी भी इसी भ्रम को बढाने में सहायक हुए. जब वोटों की गिनती हुई तो इस सोची समझी और गहरी साजिश का परिणाम सामने आ गया. मैं दो हजार वोटों से चुनाव हार गया. मुझे १,००,२०८ वोट मिले. जबकि कांग्रेस उम्मीदवार को १,०२,२५० वोट प्राप्त हुए. आश्चर्य की बात यह थी कि मेरे नीचे उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिए चुनाव लड रहे भारतीय जनसंघ के पांच उम्मीदवारों में से चार उम्मीदवार अच्छे मतों से विजयी हुए. जनसंघ ने विधान सभा की केवल एक सीट हारी, किंतु वह हार भी केवल पचपन (५५) वोटों से हुई- शायद ही किसी चुनाव क्षेत्र में ऐसा हुआ हो कि कोई पार्टी पांच विधान सभा की सीटों में चार सीटें अच्छे वोटों से जीत जाए किंतु सका लोकसभा का प्रत्याशी चुनाव हार जाए. ऐसा दो ही स्थितियों में हो सकता है. एक, विधानसभा के उम्मीदवार ने केवल अपने लिए वोट मांगे हों और लोकसभा उम्मीदवार की उपेक्षा कर दी हो. दूसरी, मतदाता मतपत्र के रंग के बारे में भ्रमित कर दिए गए हों और समझते हुए कि लोकसभा के उम्मीदवार को वोट दे रहे हैं- उनका वोट विधानसभा के उम्मीदवार को मिल गया हो.’

वाजपेयी समझाते हैं कि : `इस बात की तो बिलकुल संभावना नहीं थी कि विधानसभा के उम्मीदवार केवल अपने वोट मांगते. सच्चाई यह है कि वे मेरे भरोसे चुनाव की नदी पार करना चाहते थे लेकिन हुआ यह कि वे तो पार हो गए और मैं मंझधार में डूब गया.’

चुनाव परिणाम आने के बाद कई मतदाताओं ने वाजपेयी से कहा कि हमने आपको वोट दिए थे, तो आप हार कैसे गए? कांग्रेस मतदाताओं को भ्रमित करने में सफल हुई थी. मैने तय किया कि पांच वर्ष बाद मैं फिर से बलरामपुर से ही चुनाव लडूंगा और जीतूंगा.

१९६२ में लोकसभा चुनाव वाजपेयी हार गए लेकिन जनसंघ के अध्यक्ष दीनदयाल उपाध्याय चाहते थे कि वाजपेयी की संसद में उपस्थिति होनी चाहिए. वाजपेयी को ३ अप्रैल १९६२ को उत्तरप्रदेश से राज्यसभा में भेजा गया. १९६७ में वाजपेयी फिर से बलरामपुर से लोकसभा का चुनाव लडे और करीब ३५,००० वोटों से जीते. १९५८ में दीनदयाल उपाध्याय की संदिग्ध परिस्थितियों में मृत्यु हो गई. वाजपेयी जनसंघ के अध्यक्ष बनाए गए. जनसंघ के दोनों संस्थापकों डॉ. श्यामप्रसाद मुखर्जी और दीनदयाल उपाध्याय- की संदिग्ध परिस्थितियों में मृत्यु हुई थी. हिंदू राजनीतिक संगठन कांग्रेस के शासन में विकसित न हो सकें इसके लिए कौन सी शक्तियां काम कर रही थीं यह कल्पना और शोध का विषय है.

खैर, वाजपेयी १९५७ से लेकर २००४ के दौरान कुल दस बार लोकसभा चुनाव जीते. १९६२ के बाद वे १९८४ में भी लोकसभा चुनाव हार गए थे. १९८४ में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद भारत भर में जो सहानुभूति की लहर चली उसका कांग्रेस को भारी फायदा मिला और वाजपेयी जैसे दिग्गज नेता भी हार गए. दस बार लोकसभा सदस्य बनने के अलावा वाजपेयी दो बार राज्यसभा के सदस्य भी बने. एक बार १९६२ में और दूसरी बार १९८४ में ग्वालियर सीट से हारने के कुछ साल बाद उन्हें राज्यसभा में चुना गया था. मजे की बात ये है कि १९५५ में अपने कार्यकाल के दौरान जिस लखनऊ में वे अपना पहला चुनाव हार गए थे उसी लखनऊ से वे पांच पांच चुनाव लगातार जीते थे.

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पावों के नीचे अंगारे
सिर पर बरसें यदि ज्वालाएं
निज हाथों में हंसते हंसे
आग लगाकर जलना होगा
कदम मिलाकर चलना होगा

अटल बिहारी वाजपेयी

(मुंबई समाचार, सोमवार – २० अगस्त २०१८)

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