तेल से मालिश करना, रोज सुबह शाम चलने जाना और दीर्घायु होना – हरिद्वार के योगग्राम में २४ वॉं दिन : सौरभ शाह

(गुड मॉर्निंग: चैत्र शुक्ल नवमी, विक्रम संवत २०७९, रविवार, २४ अप्रैल २०२२)

आज पूरे दिन भर जब जब समय मिला तब फुल साइज़ की नोटबुक में एक सूची बनाई. घर लौटकर सुबह-शाम के नाश्ते में और दोपहर-रात के भोजन में कौन कौन से व्यंजन बनाएंगे जो पौष्टिक हों, सात्त्विक हों और जिसमें पहले की तरह नमक-शक्कर-तेल का उपयोग नहीं होता हो. इसके साथ ही दूसरी सूची भी बनाई है कि बाहर से घर में क्या क्या खाना आएगा. पहले की तुलना में यह खाने की मात्रा बिलकुल कम और पिछले महीनों मे जितनी बार मंागया करते थे उतनी बार नहीं मंगाएंगे, कम बार मंगाएंगे, लेकिन पहले महीने में बाहर से आने वाले खाने पर रोक लगा देना है.

पहले महीने में बाहर खाने नहीं जाना है. घर में ही सब बनाकर खाना है. फिर जैसे जैसे योग-प्राणायाम की मात्रा, उसकी तीव्रता बढ़ती जाएगी और चलना-साइक्लिंग का रुटीन सेट होता जाएगा, वैसे वैसे उस ब्रेक से पैर उठाना है और इस तरफ व्यायाम का एक्सिलरेटर अधिक से अधिक दबाते जाना है.

महीने भर बाद, तीन महीने या छह महीने बाद पता चल जाएगा कि ऐसा करने से शुगर, ब्लड प्रेशर जो यहां नॉर्मल हो चुका है, यह मुंबई में भी नॉर्मल रहता है या नहीं. यदि उसमें बढ़ोतरी होती है तो महीने भर में ही सचेत हो जाना होगा और आहार में अधिक सख्त नियमों का पालन करना होगा. अन्यथा यहां के ५० दिन की योग साधना पर पानी फिर जाएगा और लंबी अवधि में फिर जहां थे वहीं के वहीं आ जाऊंगा.

अभी मुझे शारीरिक और मानसिक रूप से जो महसूस हो रहा है, उसके वर्णन करने के लिए सचमुच मेरे पास कोई शब्द नहीं हैं कि वर्णन करके आपको समझा सकूं. १९९० में मैं सूरत में चारेक वर्ष बिताकर हमेशा के लिए मुंबई लौट आया. उन चार वर्षों के दौरान बीच में कांतिभाई-शीलाबेन भट्ट के `अभियान’ साप्ताहिक के लिए काम करने के लिए मुंबई जाकर पप्पा-मम्मी के साथ रहता लेकिन १९९० में फाइनली सूरत छोड दिया. उस समय मेरी उम्र ३० वर्ष थी. मुंबई आकर मैने अपने कार्यकाल की नई पारी आरंभ की.

अभी यहां मेरे कमरे के ड्रेसिंग टेबल के आदमकद आईने में अपना प्रतिबिंब देखता हूं तो मेरा वजन और मेरा शरीर उस समय जैसा दिख रहा है. बाल में आई सफेदी को छोड़ दें तो मेरा रूप १९९० के सौरभ शाह जैसा लगता है. पिछले तीस वर्षों में बीच में तो मेरा वजन ९३ किलो तक पहुंच गया था. २००४ में शुरू किए ईटीवी के `संवाद’ कार्यक्रम में आपको जो मनुष्ट दिखता है वह अभी की तुलना में डेढ़ गुना वजनदार था!

जीवन में जो ज्ञान तथा ज्ञान के साथ ही और भी बहुत कुछ प्राप्त किया है, वह व्यर्थ न हो जाय, इसके लिए लंबा जीना ज़रूरी है और लंबा जीने के लिए स्वस्थ शरीर अनिवार्य है.

वैसे, मुझे कोई सत्तर किलो का नहीं रहना है. यहां जब आया तक इससे करीब आठ किलो अधिक था. वहां के डॉक्टरों का कहना है कि यह जो वजन घटा है, वह शरीर से खराबियों और बेकार फैट दूर होने से घटा है. पचास दिन की योग साधना के बाद आहार की अच्छी आदतें जारी रहेंगी, पुराने आहार में जरूरी बदलाव होंगे और साथ ही योग-प्राणायाम का प्रभाव शामिल होगा तथा आहार में अन्य कई पौष्टिक पदार्थ शामिल होंगे तो नए सिरे से वजन बढ़ेगा, मांसपेशियां मज़बूत होंगी, शरीर के अंदर के अवयव अधिक क्षमता से कार्य करने लगेंगे तो उसका खूब लाभ होगा. अभी तक अपौष्टिक आहार के कारण जो वजन बढा करता था, वह घटने के बाद पौष्टिक आहार द्वार पुराना वजन (यानी कि ८० के आसपास वाला-९३ वाला नहीं) फिर आ जाएगा.

योगग्राम की लेखमाला के पहले ही लेख से काफी कमेंट्स आ रहे हैं. आप लोग खूब प्रेम बरसा रहे हैं. मैं शायद ही किसी को जवाब दे पा रहा हूँ. इनफैक्ट, इस लेखमाला के लेख लिखने के लिए बड़ी मुश्किल से समय मिल पाता है. कभी सुबह के ढाई घंटे के योगसत्र में से एक घंटा कम करके या फिर दोपहर-शाम की थेरेपियों में से एकाध को छोड़कर या फिर शाम के डेढ़ घंटे की योग क्लास से आधा घंटा निकालकर लेखन पूरा करना पड़ता है. लेकिन जब आपके कमेंट्स मिलते हैं तब बहुत अच्छा लगता है. मैं यहां अकेला नहीं हूं लेकिन ऐसा लग रहा है कि हम सभी स्वामी रामदेव के सान्निध्य में पचास दिनों के लिए आरोग्य साधना कर रहे हैं.

दिन के दौरान क्या क्या खाया पिया और कौन कौन सी थेरेपीज़-ट्रीटमेंट्स ली हैं, उसमें यदि कोई खास नहीं बात न हो तो वही एक की एक बाद मैं अपने लेखों में नहीं दोहराता. वैसे भी मुझे ओवरऑल हेल्थ के संबंध में, दवाओं-मेडिकल क्षेत्र के संबंध में, आयुर्वेद और अपनी भारतीय चिकित्सा पद्धति के बारे में इतना कुछ आपके साथ साझा करना है कि पचास दिन की यह डायरी पूर्ण होने के बाद पुस्तक के रूप में प्रकाशित करते समय उसमें परिशिष्ट के रूप में कई नए लेखों को जोड़ना पड़ेगा. इस प्रकार का सघन कार्य मैं मुंबई में बैठ कर न कर सका होता. अपने स्वयं के स्वास्थ्य के लिए तथा अपनी आरोग्य विषयक समझ को विस्तारित करके उस समझ को आप तक पहुंचाने के लिए मुझे मुंबई छोड़कर पचास दिन के लिए हरिद्वार के योगग्राम में ही अपना `घर’ बना लेना ज़रूरी था. मुझे तो इन सभी का जबरदस्त फायदा हो ही रहा है, आशा है कि यह पढ़नेवाला हर कोई इसमें से अपनी अपनी ज़रूरत और क्षमता के अनुसार लाभ ले रहा होगा.

जीवन में जो ज्ञान तथा ज्ञान के साथ ही और भी बहुत कुछ प्राप्त किया है, वह व्यर्थ न हो जाय, इसके लिए लंबा जीना ज़रूरी है और लंबा जीने के लिए स्वस्थ शरीर अनिवार्य है. बापालाल वैद्य `दिनचर्या’ में कहते हैं कि महर्षि चरक ने लिखा है कि भारद्वाज मुनि आयुर्वेद पढ़कर आए था इसीलिए उन्हें दीर्घायु प्राप्त हुई थी. ज्ञान के साथ सुख और दीर्घ जीवन की प्राप्ति न हुई होती तो उनका प्रयोजन ही व्यर्थ हो जाता.

सुबह ब्रश करके अधिक मात्रा में तेल मुंह में रखकर गंडूष करने से जबड़े सशक्त बनते हैं, स्वर का बल बढ़ता है, मुंह भरावदार बनता है, अन्न पर परम रुचि पैदा होती है.

बापालालभाई कहते हैं कि आयुर्वेद जीवनशास्त्र है; आयुर्वेद (केवल) औषधियों का शास्त्र नहीं है. जब कि हाल का मेडिकल साइंस और दवा व रोगों का शास्त्र कहता है, जीवन का शास्त्र नहीं है.

बापाजी ने `दिनचर्या’ में उल्लेख किया है कि आरोग्य दो प्रकार हैं:१. कृत्रिम और २. स्वाभाविक. आज के विज्ञान ने कृत्रिम आरोग्य प्रदान किया है. अनेक संक्रामक रोगों के प्रति लोगों को सुरक्षा दी है. यह एक उम्दा वैज्ञानिक देन है. किंतु रोगों का अभाव ही आरोग्य नहीं है. हमें प्राकृतिक आरोग्य चाहिए जो संक्रामक रोगों से बचाव करने की शक्ति दे और वही शरीर का ह्यास करनेवाली व्याधियों-डीजनरेटिव डिसीज़ से शरीर को बचाकर रखे. मनुष्य को उठते-बैठते हुए शरीर का या अपने स्वास्थ्य का तनिक भी विचार न करना पड़, इस प्रकार से उसके शरीर की गढ़न होनी चाहिए. चाहे कितने ही कष्ट, चुनौतियों, ऋतु परिवर्तनों, तकलीफ, सुख-दु:ख के द्वंद्वों को सह सके, ऐसा शरीर होना चाहिए. आज ये वास्तविक आरोग्य है ही नहीं, कृत्रिम आरोग्य में सब जी रहे हैं.

योगग्राम में आकर रोज सुबह त्रिफला जल से आंखें धोने की आदत पड़ गई. इसका लाभ लंबी अवधि में होगा. जलनेति के कारण सुबह उठते ही नाक में से काफी सारा कचरा बाहर फेंक दिया जाता है. जलनेति तथा चक्षुप्रक्षालन की विधि पहले किसी एक लेख में विस्तार से बताई है.

महर्षि चरक ने `गंडूष’ (गरारा करने) के लाभ बताए हैं. यहां से एक बार डॉ. प्रकाश कोठारी से फोन पर बात हुई तब उन्होंने भी मुझे प्रतिदिन तिल के तेल से गरारा करने को कहा था. (आयुर्वेद में जहां कहीं भी तेल का उल्लेख होता है वहां पर तिल का तेल ही है, ऐसा मानना चाहिए).

बापालालभाई समझाते हैं कि संस्कृत में गरारे के लिए दो शब्द हैं: गंडूष और कवल. इसमें से कवल यानी तेल को मुख में हिलाया जा सके, इतना भरना. सामान्य रूप से पानी से गरारे करते समय इतना ही भरा जाता है. गंडूष यानी मुंह में तनिक भी जगह न रहे, इस प्रकार से तेल से बड़ा गरारा करना. कवल संचारि (हिलाया जा सकनेवाला) होता है और गंडूष असंचारि (हिलाया नहीं जा सकनेवाला) होता है. सुबह ब्रश करके अधिक मात्रा में तेल मुंह में रखकर गंडूष करने से जबड़े सशक्त बनते हैं, स्वर का बल बढ़ता है, मुंह भरावदार बनता है, अन्न पर परम रुचि पैदा होती है. पंद्रह बीस मिनट तक गंडूष मुंह में रखकर बैठे रहना या किसी काम में लग जाना चाहिए और फिर तेल थूक कर पानी से कुल्ली कर लेनी चाहिए. ऐसा करने से मनुष्य का कंठ कभी भी सूखता नहीं (खूब प्रवचन करनेवालों या कॉलेज के अध्यापकों या भाषण करनेवाले राजनेताओं तथा कथाकारों इत्यादि को यह प्रयोग नियमित रूप से करना चाहिए). गंडूष के कारण होंठ कभी फटते नहीं हैं, दांत नहीं गिरते, दांत की जड़ें मज़बूत बनती हैं, दांत में झनझनाहट नहीं होती, चाहे कितना भी खट्टा खाया जा सकता है, चाहे कितना भी कठिन आहार खाया जा सकता है.

योगग्राम में आरंभ के दिनों में मुझे शाम को सरसों के तेल से गरारे करने थे. उसके बाद डॉक्टर ने मुझे शाम को नहीं बल्कि सुबह दांत साफ करने के बाद कवल करने को कहा और सरसों के बदले वर्जिन कोकोनट तेल का उपयोग करने को कहा. डॉ. प्रकाशभाई के साथ जब यहां से बात हुई तब उन्होंने कवल के बदले गंडूष में अधिक लाभ होने की बात कहते हुए तिल के तेल का उपयोग करने को कहा. इन सबके अपने अपने लाभ हैं. मुझे तिल के तेल से गंडूष करने से लंबी अवधि में खूब लाभ होगा.

बापालालभाई कहते हैं कि तैलगंडूष सेवन से दांत बहुत ही अच्छे रहते हैं, दांत की जड़ों को स्नेहन मिलता है और मशीन में जैसे तेल डालने से मशीन अच्छी तरह से काम करती है, उसी प्रकार से हम भी यदि दांत को नियमित रूप से तेल देते रहेंगे तो आजकल के अनेक प्रकार के दांत के रोग जो हम देखते हैं, वे अदृश्य हो जाएंगे और मरने तक दांत मज़बूत और स्थिर रह सकते हैं.

इतना कहकर बापाजी कहते हैं कि, लेकिन इस आर्थिक जमाने में कोई प्रश्न करता है कि,`वैद्यराज! हमेशा छटांक भर तेल खर्च करना कैसे पोसाएगा? महीने में दो सेर तेल जाएगा और साल भर में पचीस सेर (बारह किलो) तेल चाहिए.’ मैं तो कहूंगा कि आरोग्य रक्षा के लिए साल भर में तेल पर इतने रुपए खर्च करना क्या अधिक है? दांत के डॉक्टरों के पास दांत दिखाने के लिए कितने रुपए खर्च करने पड़ते हैं? डॉक्टर की विजिट, दॉंत क्लीन करने का चार्ज इत्यादि गिनें और तेल का खर्च और उसके लाभ गिनें तो मैं विश्वास से कह सकता हूं कि तेल जरा भी महंगा नहीं पड़ेगा. सवाल खर्च का नहीं है, बल्कि दॉंतों की सुरक्षा का है. एक वर्ष तक लगातार तेल का गंडूष भरने के बाद मुझे बताइएगा कि उससे क्या क्या लाभ होते हैं.’

बापालाल वैद्य के इस तर्क जैसा ही आर्ग्युमेंट स्वामी रामदेव यज्ञ-हवन के बारे में किया करते हैं. कुछ दिन पहले के लेख में मैने कई लोगों को यहां आना `महंगा’ लगता है, ऐसा बताया था.

हमारी पारंपरिक चिकित्सा पद्धति में अभ्यंग का- मालिश का- काफी महत्व है. योगग्राम में महानारायण तेल से फुल बॉडी मसाज करने के अलावा काफ (पिंडली) मसाज, पोटली मसाज इत्यादि का लाभ मिलता है. आयुर्वेद में पैर के तलवों पर तैलाभ्यंग करने की बात जोर देकर कही गई है, ऐसा बापालाल वैद्य बताते हैं. नाक में तथा कान में तेल की बूंदें डालने से भी कई लाभ मिलते हैं, ऐसा बापालाल वैद्य बताते हैं. सिर में बाल में अचूक तेल डालना चाहिए, ऐसा कहकर वे महर्षि चरक को उद्धृत करते हैं:`जो हमेशा सिर में तेल डालते हैं, उन्हें कभी सिरदर्द नहीं होता, गंजापन नहीं आता, बाल असमय सफेद नहीं होते, बाल गिरते नहीं हैं, सिर की खोपड़ी की हड्डियां बहुत मज़बूत बनती हैं और बाल जड़ों से मज़बूत, लंबे, काले बनते हैं. हर इंद्रिय को शांति मिलती है, नींद अच्छी आती है. (चरक, सू. स्था, अ.प. ७५-७७)

चरक ने कहा है कि तेल से अभ्यंग करने से शरीर भरावदार, बलवान और दृढ़ बनता है, त्वचा भी सुंदर बनती है, वायु के विकार स्पर्श नहीं करते, शरीर कठोर बनता है, चाहे कितनी ही मार पड़े, लेकिन वह आसानी से सहन हो जाती है,, और बुढ़ापा देर से आता है.’

अभ्यंग से रक्त संचार की गति बढ़ती है, मांसपेशियों को व्यायाम मिलता है और शरीर में ताज़गी और स्फूर्ति आती है. थकान दूर हो जाती है. बापाजी अंत में कहते हैं कि भोजन और अभ्यंग दोनों में तिल का तेल अच्छा होता है.

रोजाना मालिश करना ज़रूरी नहीं है. इसके कारण नुकसान भी हो सकता है. सप्ताह में एक बार ही ठीक है. बाकी के दिनों में हल्के हाथ से तेल शरीर पर लगाकर बिना साबुन लगाए नहा लेना अच्छा है.

व्यायाम का महत्व तो सभी लोग जानते हैं. `दिनचर्या’ पुस्तक में बापालाल वैद्य ने व्यायाम से होनेवाले फायदों का वर्णन तो किया ही है बल्कि अतिव्यायाम से होने वाले दुष्परिणामों के बारे में भी बताया है.

स्नान संबंधी प्रकरण में वे आरंभ में कहते हैं:`हम हिंदू हमेशा स्नान करते हैं. स्नान तो हिंदुओं के लिए धर्म का एक अविभाज्य अंग बन चुका है. कोई भी पवित्र कार्य स्नान के बिना किया ही नहीं जा सकता. महर्षिक सुश्रुत कहते हैं:`स्नान निद्रा, दाह और श्रम (थकान) का हरण करनेवाला है, स्वेद, कंडू (खुजली) और तृषा को हरनेवाला है. तंद्रा और पाप का शमन करनेवाला है. तृप्ति और शक्ति प्रदान करनेवाला है. पौरुष को बढ़ानेवाला है. रक्त को साफ करनेवाला है और जठराग्नि प्रदीप्त करनेवाला है.’

नहाने के लिए सूर्योदन से पहले का समय उत्तम है. भोजन करने के बाद तुरंत नहीं नहाना चाहिए (पाचन क्रिया बिगड़ जाती है). रात में नहाना हो तो गर्म पानी से नहाना चाहिए. गर्म पानी सिर पर नहीं डालना चाहिए. ठंडे पानी से नहाने की क्रिया को जल्द पूरा कर लेना चाहिए.

सुश्रुत संहिता को उद्धृत करते हुए (चि.२८-७९,८०) बापालाल वैद्य कहते हैं कि प्रति दिन चार-पांच मील (छह से आठ किलोमीटर) चलने से वर्ण, कफ, स्थूलता, अत्यधिक नाज़ुकता इत्यादि का नाश होता है. (लेकिन) इससे अधिक चलने से बुढ़ापा आता है और बल घट जाता है.’

बापालाल वैद्य `घूमने जाना (चंक्रमण)’ वाले प्रकरण में बिलकुल पैशनेट बनकर कहते हैं: `यदि मेरी कलम में हेनरी थॉरो जैसी शक्ति होती तो मैं गुजराती जनता को खुशहाल बना देता. जो भाई-बहन अंग्रेजी जानते हैं उनसे मैं थॉरो के निबंध पढ़ने का निवेदन करता हूँ. थॉरो ने `वॉकिंग’ (घूमने जाना) और (अ विंटर वॉक) (शिशिर ऋतु में चंक्रमण) नामक दो सुंदर निबंध लिखे हैं. थॉरो के उन लेखों को पढ़ने के बाद उदासीन से उदासीन व्यक्ति भी प्रकृति का भक्त बन जाएगा; घर आंगन छोड़कर प्रकृति के सौंदर्य को निहारने लगेगा. सारा दिन गलियों या बाजारों में घूमते रहनेवाले मनुष्यों को शाम के दो घंटे घूमने का मन नहीं होना रोगग्रस्त मनोवृत्ति का सूचक है….शाम को घूमने जाने का समय सुरक्षित रखना चाहिए. कोई भी काम हो उसे छोड़कर घंटा दो घंटा बाहर की स्वच्छ हवा में घूम आना चाहिए. इससे मन प्रफुल्लित होता है, रक्त संचार तीव्र हो जाता है, शुद्ध प्राणवायु फेफड़े में जाने से फेफड़े मज़बूत होते हैं, रक्त साफ होता है और आसपास के वातावरण की पवित्रता की छाप हमारे मन पर पड़ती है…सबेरे टहलने जाना भी अच्छा है. शाम की तुलना में सुबह का वातावरण अधिक ताज़गी भरा होता है…और कभी कभार रात में `वॉक’ को भी न चूकें, शरद ऋतु की चांदनी से रिसने वाले अमृत का आनंद लेना हो तो कभी कभी रात में घूमने निकल जाना.’

`दिनचर्या’ के दो प्रकरणों के बारे में कुछ बातें करके आज के लेख का समापन करते हैं और बापालाल भाई वैद्य की वाणी को भी विराम देते हैं. `तीन एषणा’ शीर्षक के अंतर्गत लिखे प्रकरण २८ में बापाजी कहते हैं कि एषणा (इच्छा) तीन प्रकार की होती है-१. प्राणैषणा, २. धनैषणा और ३. परलोकैषणा. इन तीनों एषणाओं से रहित मनुष्य खोजने पर भी नहीं मिलेगा. हर व्यक्ति को सावधान रहकर इन तीनों एषणाओं को प्राप्त करना चाहिए.

प्राणैषणा के लिए दिनचर्या का नियम से पालन, योग इत्यादि साधन हैं. प्राण की रक्षा के लिए सदा जागृत रहना चाहिए. प्राणरक्षा के लिए, दीर्घायु के लिए प्रत्येक व्यक्ति को प्रयास करना चाहिए.

दूसरी है धनैषणा. महर्षि चरक कहते हैं कि,`बिलकुल साधनहीन मनुष्य के अधिक वर्षों तक जीने जैसा पाप-दु:ख और कुछ नहीं है. इसीलिए प्रत्येक व्यक्ति को साधनसंपन्न होने का प्रयास करना चाहिए. साधन रहित, धनहीन जीवन जीने के बजाय तो मृत्यु बेहतर है. जिएं तो मस्ती से जिएं, पामरता से नहीं.

महाभारत के उद्योगपर्व में विदुला अपने पुत्र से कहती है:`धनहीन रहना एक बड़ा दूषण है. दरिद्रता मरण का पर्याय है. उद्योगपर्व में ही युधिष्ठिर कहते हैं:`धन ही परमधर्म है. दन से ही सभी प्रतिष्ठित हैं. धनवान ही अच्छी तरह से जिया करते हैं. गरीब मरे हुओं के समान हैं.’

इतनी बात कहकर बापाजी लालबत्ती दिखाते हैं:`धन गृहस्थाश्रम की शोभा है, आत्मा को आनंद दे सकता है किंतु अधर्म से प्राप्त किया गया धन मनुष्य को सुख से सोने भी नहीं देता…लोभ से प्रज्ञा का खत्म हो जाती है…जिस मार्ग से धन कमा कर मन को आघात लगता है, मानसिक शांति में बाधा उत्पन्न होती है उस मार्ग को त्याग देना चाहिए.’

परलोकैषणा के बारे में बापाजी का कहना है:`परलोक का डर यहां गलत कर्मों से मनुष्य को बचा लेता है. झूठ बोलने से बचाता है. चोरी-चुगली इत्यादि से बचाता है. इस तरह से आरोग्य को लाभ होता है.

`संप्रयोग’ शीर्षक से लिखे लेख में बापालाल वैद्य ने सेक्स के बारे में काफी बातें की हैं. वैसे तो इस विषय पर उन्होंने पूरी एक पुस्तक लिखी है (`अभिनव कामशास्त्र’) जो अभी तक मेरे देखने में नहीं आई है. भावमिश्र का उल्लेख करते हुए बापाजी कहते हैं:`प्राणीमात्र को हमेशा मैथुन की इच्छा होती है. इस इच्छा की जब स्वाभाविक तृप्ति नहीं होती है तो उससे प्रमेह, मेदवृद्धि और शरीर में शिथिलता आती है.’

यहां वे कहते हैं:`(लेकिन) हर वस्तु का अतिरेक खराब होता है. जनन अंगों का अति उपयोग हानिकर है.

महर्षि सुश्रुत कहते हैं:`दीर्घायुवाले, जिन्हें वृद्धावस्था बहुत ही धीमे से आती है ऐसे शरीर-वर्ण-बल जिनके पास अच्छा है ऐसे पुरुष स्त्रीसंप्रयोग में काफी संयमित होते हैं; जो मनुष्य अधिक दुर्बल होता है, उसमें रतिलालसा अधिक हुआ करती है. दुर्बलों की रतिलालसा अनियंत्रित होती है.’

सुश्रुत यह भी कहते हैं कि,`अतिसहवास से नाडी तंत्र कमजोर होता है, हृदय कमजोर होता है, जोड़ों में दर्द होता है, मांसपेशियां कोमल हो जाती हैं, ऑंखों का तेज घटता है, खॉंसी-बुखार-दम, कृषता इत्यादि रोग होते हैं.’

अंत में बापालाल वैद्य की यह बात याद कर लें और हमेशा के लिए हृदयस्थ कर लें. वे कहते हैं:`जानना अलग बात है और उस जानकारी का पालन करना, उस जानकारी को आचरण में लाना अलग बात है. महाभारत के वनपर्व में (३१३-३१०) युधिष्ठिर कहते हैं:`पढ़नेवाले, पढ़ानेवाले, शास्त्र का चिंतन करनेवाले, ये सभी व्यवसनी मनुष्यों की तरह ही मूर्ख हैं. जो क्रियावान हैं-जानी गई बात को ठीक से अमल में लाते हैं, वे ही सच्चे पंडित हैं.’

योगग्राम संबंधी इस लेखमाला के लेख पढ़ते पढ़ते हम सभी को यह तय कर लेना चाहिए कि हम व्यसनी हैं या पंडित!

2 COMMENTS

  1. हीन्दी मे एक कहावत हे
    पैर गरम,पेट नरम,सर ढंडा
    वैध आये तो मारे डंडा
    बापालालजी की बाते सोलह आने सच है

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