क्या खाएं, देखें, सुनें, पढें

गुड मॉर्निंग

सौरभ शाह

हम खाते समय ध्यान रखते हैं. शरीर को पोषण मिले ऐसा आहार, पौष्टिक आहार लेते हैं. हम कभी शरीर में नुकसानदायक पदार्थ पहुंचाते हैं तो तब तुरंत उसके बुरे प्रभावों को सहन करना पडता है और दोबारा ऐसा न हो इसका ध्यान रखते हैं.

जितना ध्यान हम खाने में रखते हैं क्या उतना ही ध्यान हम देखने, पढने और सुनने में रखते हैं? मीडिया, सोशल मीडिया और आसपास के लोग- इन तीन प्रमुख स्रोतों से हमारे अंदर कचरा डाला जाता है. टीवी के मनोरंजन चैनल और न्यूज चैनल डे इन डे आउट गार्बेज उंडेलते रहते हैं, जिनमें विज्ञापनों का भी समावेश होता है. इनमें से शायद ही कुछ हमारे काम का होता है, फिर भी आदतन हम टीवी के सामने बैठे रहते हैं, सर्फिंग करते रहते हैं. इवन डिस्कवरी या नेशनल ज्योग्राफिक जैसे चैनल्स पर बाघ को हिरण के पीछे दौडते हुए न देखें या इटली के किसी शहर के रेस्टोरेंट में बन रहे एक्जॉटिक व्यंजन के बारे में नहीं जाना तो हमारे जीवन में क्या कुछ कम हो जाएगा? टीवी के मनोरंजन चैनल्स पर क्राइम, फैमिली ड्रामा या कॉमेडी सीरियल्स देखकर हमें क्या मिलता है? मनोरंजन? क्या हम इस स्तर का मनोरंजन पाने के लायक है? और न्यूज चैनलों पर मचे हाहाकार को कानों में भरकर कब तक डिस्टर्ब होते रहेंगे? जिन मामलों को समझने में अदालतों को बरसों लग जाते हैं उन मामलों के बारे में टीवी के मछली मार्केट में चीखते हुए लोग रातोंरात फैसले घोषित कर देते हैं और हाल ही में ऐसा किसी फिल्म में सुना था. क्या हम ऐसे लोगों की चर्चा के आधार पर अपना मत बनाएंगे. प्रिंट मीडिया भी मोर ऑर लेस इलेक्ट्रॉनिक मीडिया जैसा ही हो गया है. इंटरनेट पर नए नए न्यूज चैनल वेबसाइट्स इस प्रदूषण में इजाफा ही कर रहे हैं. इन सब के बीच सोशल मीडिया एक नया दूषण है. व्हॉट्सएप पर मिलने वाले ९९ प्रतिशत संदेश तो नजर डालने लायक भी नहीं होते. फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम पर टाइमपास करनेवालों के पास जीवन में कुछ ठोस करने का समय या शक्ति नहीं बचती.

देखने, सुनने और पढने की दृष्टि से हमारा वातावरण अधिक बिगाडते हैं हमारे आसपास के लोग. वे लोग ही आपको फॉरवर्ड वाले बासी संदेश भेजते रहते हैं. रिस्पॉन्स नहीं दो तो रुठ जाते हैं और बदले में आप भी कुछ भेज देते है तो खुश हो जाते हैं.

अपच, कब्ज या लूज मोशन सिर्फ गलत खाने से होता है ऐसा मान लिया गया है. गलत पढने से, गलत सुनने से भी ऐसे ही रोग होते हैं जिसकी अनुभूति आपको तत्काल नहीं होती. बरसों बीत जाते हैं तब ध्यान में आता है कि आपका व्यक्तित्व खोखला है और इसका कारण ये सारी आदते हैं, उसी में रचेबसे रहे इसीलिए अच्छा संगीत सुनने का मौका ही कहां मिलता है, ऐसा आप कहने लगते हैं. वॉट्सएप में मग्न रहते हैं तो पुस्तकें पढने का समय ही कहां है ऐसा बहाने बनाने लगते हैं. टीवी के सामने चिपके रहे इसीलिए कभी कभार आनेवाली दो अच्छी फिल्में नहीं देखने के लिए समय नही निकाल सके. किसी के साथ फोन पर गपशप करते रहे इसीलिए मिलने योग्य और आनंद लेने योग्य लोगों से आप दूर होते गए.

पेट के रोगों का इलाज करने के लिए डॉक्टर बहुत सारे मिल जाएंगे. लेकिन ऐसे रोग न हों इसकी सलाह देनेवाले न्यूट्रीशनिस्ट और डायटीशियन्स भी मिल जाएंगे. लेकिन भुक्खडों की तरह देखने वाले, पढनेवाले और सुनने वालों को ठीक करने के लिए न तो कोई डॉक्टर है, न कोई वैद्य. हमें अपना प्रिस्क्रिप्शन खुद ही लिखना पडेगा.

आज का विचार

सभी का हो सकता है, पर सत्य का विकल्प नहीं;
बात ग्रहों की नहीं, सूर्य का विकल्प नहीं.
न कटे न जले, न भीगे न पुराना हो
कवि का शब्द है, उस शब्द का कोई विकल्प नहीं.

– मनोज खंडेरिया

संडे ह्यूमर

अच्छे कर्म करने के बाद बका स्वर्ग पहुंचा.

चित्रगुप्त: स्वर्ग में तुम्हारा स्वागत है वत्स. बोलो, तुम पहले किससे मिलना चाहते हो?

बका: हमारे यहां नीचे ऐसा कहा जाता है कि मैरेजेस आर मेड इन हैवन तो यह कौन तय करता है? मुझे उस भाई साहब से मिलना है.

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