किसी को माफ करने में कर्म का सिद्धांत नहीं देखना चाहिए

गुड मॉर्निंग- सौरभ शाह

(मुंबई समाचार, रविवार – ३० दिसंबर २०१८)

कथा का आज आठवां दिन है. मन थोडा उदास है. कल कथा का अंतिम दिन होगा. ‍पिछले कुछ दिनों के दौरान एक अलग ही रुटीन सेट हो गया है. सबेरे उठकर नहाकर तैयार होकर आठ बजे निकल जाना. नाश्ता करके कथा के स्थल पर पहुंच जाना. अयोध्या की गलियां संकरी हैं. कथा के निमित्त से वाहनों की संख्या बढ गई है. यहां पर इतनी बात अच्छी है कि आधी रिक्शाएं बैटरी ऑपरेटेड हैं. दिखने में नाजुक लगती हैं. फिर भी चार लोग आराम से बैठ सकते हैं. एक बार १३ यात्री देखे थे. नौ बजे कथामंडप में पहुंच कर स्थान ले लिया गया. ठीक दस बजे बापू का आगमन हुआ. नॉन स्टॉप डेढ – पौने दो घंटे तक कथा चलती है. जाते समय फिर से भीड. बेहतर है कि पंद्रह मिनट अपनी जगह पर ही बैठे रहें. बाहर निकलकर गन्ने का ताजा रस पीने के बाद भोजन. आज पहली बार कथा के आयोजकों की ओर से की गई व्यवस्था का लाभ लिया. बापू कई बार कथा में मजाक करते हुए `आज का मेनू’ पढते हैं. आज `आलू धमाका’ की सब्जी के अलावा अन्य नए व्यंजन थे. अन्य कहीं जाने के बजाय `मानस सदन’ में रखी गई भोजन व्यवस्था में शामिल हो गए. रोज हजारों श्रोताओं प्रसाद ग्रहण करते हैं. भीड को काबू में रखने के लिए दो-चार अलग अलग जगहों पर भोजन का प्रबंध रहता है लेकिन सारी रसोई बनती एक ही जगह पर है, एक जैसे व्यंजन, एक जैसी क्वालिटी, एक जैसा स्वाद. पूज्य मोरारीबापू के आयोजन की यह खासियत होती है. भोजन में कोई खास अंतर नहीं होता, सब समान होता है. मैं इस बात का साक्षी हूं इसीलिए विश्वास के साथ कह सकता हूं.

भोजन के बाद मानो एक दिन पूरा हो जाने का एहसास होता है. निवास पर आकर विश्राम करना पडता है. शाम चार बजते ही शाम ढलने लगती है. पांच बजे तो अंधेरा छा जाता है. छह बजे रात हो जाती है. कथा के बारे में लिखने का काम रात साढे नौ-दस बजे तक लगातार चलता है. `गुड मॉर्निंग’ का नॉर्मल पीस लिखने की तुलना में करीब तीन से चार गुना अधिक समय लगता है. बापू का एक भी शब्द मिस-कोट न हो जाए, इस बात का टेंशन रहता है. बापू की किसी बात का अर्थ लगाते समय उन्हे अभिप्रेत न हो ऐसे अर्थ निकालने की चालाकी न कर बैठें, इसकी सतर्कता रखनी होती है. तलवार की धार पर चलते चलते कभी रक्त की बूंदें फूट निकलती हैं तो नीचे से चाय मंगाकर ताजा होते हैं और दस मिनट के अल्पविराम के बाद लेख की श्रृंखला को आगे बढाते हैं.

इस नए रुटीन में ऐसे सेट हो गए हैं कि कल फिर से पुराना रुटीन शुरू हो जाएगा, यह सोचकर मन कुछ भारी हो जाता है. बापू की कथा से छूटना आसान नहीं है. अयोध्या के साथ ऐसा लगाव हो गया है कि राम-लक्ष्मण-जानकी १४ वर्ष का वनवास पूरा करके पुष्पक में आएं, इस इंतजार में यहीं पडे रहें ऐसा लगता है. मुंबई का काम मुंबई जाने. हमारे बिना मुंबई शहर का कौन सा काम अटकनेवाला है.

फिर विचार आता है कि बापू ऐसे भावनात्मक ज्वार-भाटे को कैसे अपने भीतर समा लेते हैं. सौराष्ट्र के सुप्रसिद्ध महुवा शहर के छोटे और अब विश्व प्रसिद्ध हो चुके तलगाजरडा गांव में जन्मे, बडे हो गए और आज की तारीख में भी वहीं पर स्थायी निवास है. वर्ष में तकरीबन पंद्रह नौ दिवसीय कथाओं के लिए सारे गुजरात में, भारत में और विश्व में भ्रमण करके वापस तलगाजरडा लौट जाना. कथा के दिनों में तो उस शहर में खूब कार्यक्रम होते ही हैं. कथा नहीं होती है तब भी विभिन्न कार्यक्रमों में उपस्थिति देने के लिए तलगाजरडा से लंबी यात्राएँ करते रहते हैं. हम पांव मोडकर आराम से बैठते हैं तो बैठे ही रहते हैं. बापू के जीवन का केंद्रा तलगाजरडा है और उनके परिवृत्त की परिधि समस्त विश्व में है. कहां से आती होगी इतनी ऊर्जा. आधी सदी से भी अधिक समय से बापू रामकथा करते हैं. ७२ पूर्ण करके ७३ के हो गए. बापू ने परसों कहा था:`एक साधु ने मुझसे पूछा कि आपने जवानी में किन किन का त्याग किया? तब मैने जवाब दिया था: अभी मुझे जवान तो होने दीजिए, ये तो मेरी बाल्यावस्था है-कुमारावस्था है.’

`मानस-गणिका’ के आठवें दिन की कथा के आरंभ में बापू ने आज सुबह ही ये मनोरथ व्यक्त किया. भविष्य में अयोध्या में चरैवेति कथा करनी है. चलती फिरती कथा करनी है. आज यहां तो कल वहां. पिछले साल बापू ने इसी तरह से `मानस:व्रजचौरासी’ की थी. वृंदावन में एक स्थल से दूसरे स्थल पर जाते जाते बापू ने पानीपुरी के खोमचेवाले को देखकर फोन करके कहा:`पानी पुरी देखता हूं तो आप याद आते हैं!’

गुजराती के प्रसिद्ध कवि हरींद्र दवे को हरा पान देखकर कोई याद आता है तो बापू को पानीपुरी देखकर हम याद आते हैं! भाग्यशाली हैं. अति भाग्यशाली हैं.

`मानस: अयोध्याकांड’ का मनोरथ ऐसा है कि अयोध्या से मंगलाचरण करना. अगले दिन भी अयोध्या में ही रहना. तीसरे दिन तमसा के तट पर. चौथे दिन श्रृंगवेरपुर, पांचवें दिन प्रयाग, छठें दिन वाल्मीकि आश्रम, सातवें दिन चित्रकूट, आठवें दिन पुन: अयोध्या और नवें दिन नंदीग्राम में पूर्णाहूति.

बापू कहते हैं: ऐसा मनोरथ है. दो-तीन साल तक तो समय ही नहीं है लेकिन विचार तो है. हो जाय तो हरिकृपा और न हो तो हरि इच्छा. हमारे लिए तो कथा बांसुरी है. जब तक बजे तब तक बजाते जाना है….

बापू की इस फिलॉसफी के कारण ही वे इतने बडे चिंतक होने के बावजूद अपने चिंतन के बोझतले दब जाने के बजाय हल्के फुल्के रह सकते हैं. आग्रह नहीं रखना चाहिए, जिद तो बिलकुल नहीं. फिर भी अपना जो काम है वह करते रहना है. सपने संजोने चाहिए. मनोरथ भी करना चाहिए. वे पूरे हों न हों इसकी चिंता नहीं करनी चाहिए. सच्चा चिंतक वही कहलाता है जो चिंतन करता है, चिंता नहीं. (देखा, हम भी बापू की स्टाइल का अनुकरण करने लगे!)

वाल्मीकि रामायण में समुद्र मंथन की कथा भी आती है, बापू कहते हैं. सबसे पहले विष निकलता है. उसके बाद वाल्मीकि कहते हैं कि समुद्रमंथन से विष निकलने के बाद वैद्यों के वैद्य धन्वंतरी प्रकट होते हैं, एक के बाद एक सभी निकल रहे हैं- समुद्रमंथन से. उसके बाद अप्सराएं निकलीं- अप्सरा नहीं, अप्सराएं. अप्सराएं प्रकट हुईं. अप यानी जल. जल और रस से जो प्रकट होती है वह अप्सरा है.

वाल्मीकि कहते हैं कि ६० करोड अप्सराएं प्रकट हुईं. षष्टि कोट्यो और इन ६० करोड अप्सराओं की परिचारिकाएं तो अगणित हैं. हमारे दिमाग में न बैठ सकनेवाली ये बातें हैं. वाल्मीकि पर संतों-मनीषियों ने काफी भाष्य किए हैं. एक समाधान व्यासपीठ को यह मिलता है कि ६० करोड भी हो सकता है, वाल्मीकि जो कहते हैं उसका सीधा अर्थ लगाने में हमें क्या आपत्ति हो सकती है? स्वीकार लेते हैं. लेकिन इंसान का दिमाग है: ६० करोड किस तरह हो सकता है? तो ऐसे समझें कि `कोटि’ का एक अर्थ होता है `प्रकार’. ६० प्रकार की अप्सराएं प्रकट हुई होंगी जिसमें से कोई ये है, तो कोई ये होगी. और इन ६० प्रकार की अप्सराओं की परिचारिकाएं उनकी वृत्तियां हैं. हमारी वृत्तियां अगणित हैं. बल्कि, हमारी जो पांच ज्ञानेंद्रियां हैं वे यदि अपना धर्म न निभाएं और विपरीत धर्म में यात्रा करें तो उन पांचों ज्ञानेंद्रियों को गणिका कहा गया है. जीभ का धर्म स्वाद परखने का है, बेस्वाद को नकारने का है. जीव्हा से वाणी प्रकट होती है, वह वाणी यदि अपने स्वधर्म का संरक्षण नहीं करती है तो वह वाणी गणिका है.

बापू कहते हैं कि युवाओं से एक ही बात कहनी है कि भारतीय संस्कृति को कलंकित करनेवाली हर बात से दूर रहिए. आज कल जो पार्टियां होती हैं. पढे लिखे संपन्न लोगों के लिए, उसमें उनकी बहन बेटियों का जो कृत्य होता है. केवल उसे लेबल नहीं लगा. क्या फर्क है इन दोनों में- आपने साहस तो किया मैदान में आकर (बापू दाईं ओर बैठी बहन बेटियों की ओर इशारा करते हैं). श्रोता बापू की इस सटीक कमेंट को स्वीकार लेते हैं और इतना ही नहीं तालियों से उसे सराहते भी हैं.

बापू गौतम ऋषि और ऋषि पत्नी अहिल्या की बात बताते हैं. इंद्र भगवान गौतम ऋषि की अनुपस्थिति में गौतम ऋषि का वेश धारण करके आते हैं और अहिल्या भ्रमित हो जाती हैं. गौतम ऋषि को यह पता चलता है तो पत्नी को शाप दे देते हैं. अहिल्या पत्थर बनकर गुमनामी के अंधकार में खो जाती हैं. भगवान राम आकर उसका उद्धार करते हैं. राम के चरण रज से अहिल्या का उद्धार होता है. बापू कहते हैं कि अहिल्या की तरह ही इन लोगों को (दाईं तरफ हाथ करके) समाज ने देखा ही नहीं, अंधकार में रखा. उनके कर्मों का हिसाब किताब करनेवाले हम कौन होते हैं? अहिल्या के कर्मों का हिसाब किताब किए बिना भगवान ने उसे सीधे तार दिया. कर्म का सिद्धांत अपनी जगह पर ठीक है लेकिन यहां तो उससे भी ऊपर उठने की बात है. तुलसी ने राघव के हाथों अहिल्या का उद्धार करवा कर अपने शील का प्रमाण दिया है. श्रावण वद सप्तमी तुलसी का जन्मदिन है. तुलसी जयंती के इस दिन निर्णयसागर पंचाग `शील सप्तमी’ के रूप में संबोधित करता है.

साधु के शील के बारे में प्रस्तावना से लेकर साधु के १६ शील के बारे में बात करते हुए पहले बापू कर्म के सिद्धांत की भगवान द्वारा अवगणना होने की बात को वाजिब ठहराते हुए आज के संदर्भ में एक जबरदस्त उदाहरण देते हैं. सुप्रीम कोर्ट ने भी जिसे मृत्यु दंड दिया हो ऐसा अपराधी जब राष्ट्रपति के समझ दया की अर्जी करता है तब उसका अपराध साबित हो जाने के बावजूद राष्ट्रपति चाहें तो उसे मृत्यु दंड से मुक्ति दिला सकते हैं.

अक्सर तराजू लेकर लोगों के व्यवहार-विचारों को तौलने वाले हम जैसे जजमेंटल लोगों को बापू जबरदस्त चपत लगाते हैं. अहिल्या के किए कर्म का बदला उसे मिलना चाहिए ऐसा यदि श्रीराम ने माना होता तो उन्होंने अहिल्या का उद्धार न किया होता. समझनेवालों के लिए इतना इशारा काफी है. बापू जो बात कहते हैं उसके निहितार्थों को समझ कर जो लोग कथा श्रवण करते हैं उन सभी को जिंदगी भर के लिए कभी न खत्म होनेवाले रत्नों का भंडार मिलता रहता है.

बापू कहते हैं: अहिल्या का उद्धार करने के लिए अयोध्यावाला आने ही वाला है. और आप (दाईं तरफ हाथ) स्वयं अयोध्या आ गए हैं.

साधु के १६ शील गिनाने से पहले बापू कहते हैं कि साधु यानी कोई खास वेशभूषा जिसने धारण किया हो वह नहीं. जिसकी प्रवृत्ति साधु की है, वह व्यक्ति. बापू की इस बात को मैने जितना समझा है उसके अनुसार ये १६ शील कमोबेश मात्रा में धारण करनेवाला या अपने भीतर ऐसी प्रवृत्तियां फलती रहें उस तरह से जीने वाला कोई भी व्यक्ति साधु है- संसार में आकंठ डूबे रहने के बाद भी.

साधु का पहला शील. वह मननशील होता है. सदैव, निरंतर मनन करता रहता है. जिसके लिए उसे मौनशील बनना पडता है. अधिक बोलता नहीं है. मौन रहता है. वह बोले तो दिशाएं फट जाएं और मौन रहे तो सारा आकाश नि:शब्द हो जाता है.

साधु वचनशील होता है. उसके वचन से शील टपकता है. उसकी वाणी से शील प्रकट होता है.

साधु विनयशील होता है. दूसरों के अपराध भी अपने माथे लेकर उन्हें राहत देता है. साधु कृपाशील होता है. साधु बलशील होता है. उसमें आत्मबल खूब होता है. वह कायर नहीं होता- बलवान होता है. वह मरणशील होता है. मृत्यु का चिंतन उसका स्वभाव होता है. ओशो ने द्वारिका के शिबिर में प्रवचन में कहा था: मैं मृत्यु सिखाता हूं. साधु अध्ययनशील होता है- पुस्तकें ही नहीं, जमाने के मस्तक का भी अध्ययन करता है. साध कर्मशील होता है. आज कल के तथाकथित एक्टिविस्टों जैसा कर्मशील नहीं बल्कि विनाबा, गांधी, रविशंकर महाराज या ठक्करबापा जैसा कर्मशील.

साधु कर्मशील होता है, साधु नमनशील होता है. सकल लोक मां सहुने वंदे निंदा न करे केनी रे…साधु स्वरशील होता है, उसका जीवन छंदबद्ध होता है, कभी स्व-सुर चूकता नहीं. साधु करुणाशील होता है. साधु वैराग्यशील होता है. वैराग्य त्याग से भी ऊपर की कक्षा है. हाथ से छूटे उसे त्याग और हृद्य से छूटे वह वैराग्य. (बापू की बात सुनकर हमें निष्कुबानंदजी स्वामी याद आते हैं: त्याग नही टिकता वैराग्य के बिना, करें कोटि उपायजी, मन में जो इच्छा रहती है, वह कैसे तजी जाय). साधु ध्यानशील होता है. कभी बेध्यान नहीं होता. साधु रसशील होता है. नीरस नहीं होता. चिडचिडा नहीं होता बहुत सारा तप करके गंभीर नहीं हो जाता. जो तप आपका स्मित छीन ले वह किस काम का? और अंत में: साधु भजनशील होता है. साधु के इन १६ शीलों के बारे में बापू चाहें तो पूरी एक स्वतंत्र कथा कर सकते हैं लेकिन उन्होंने इस सागर को गागर में भर कर दिया है. अयोध्या से जब घर लौटना होगा तब सारा सागर उठाना नहीं है, गागर ही भली.

गणिका कल्याण फंड में कुल साढे छह करोड की राशि जुटी है. आज कवि नितीन वडगामा द्वारा निष्ठापूर्वक संपादित बापू की हर कथा के सार को समाविष्ट करनेवाली दो सचित्र-रंगीन पुस्तिकाओं का लोकार्पण बापू ने किया. एक लखनऊ की `मानस:अरण्यकांड’ है तो दूसरी ठाणे की `मानस: किन्नर’ है. हिंदी और गुजराती में पुस्तिका के रूप में और अंग्रेजी में पीडीएफ वर्जन में प्रकाशित है. इसका नि:शुल्क वितरण होता है. किसी भी व्यक्ति का मिल सकती है. आप अपना नाम, भाषा तथा पता यहां मेल कर दीजिए: ramkathabook@gmail.com या केवल टेक्स्ट मैसेज इस नंबर भेज दीजिए:+९१ ७०४५३४२९६९.

नितीन वडगामा और उनकी टीम खूब मेहनत से और अत्यंत सतर्कता से यह स्थायी स्वरूप का डॉक्युमेंटेशन कर रहे हैं. सभी रामकथा प्रेमियों के अभिनंदन के वे पात्र हैं. मन बहुत भारी है. अधिक क्या लिखूं.

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