अयोध्या में पूज्य मोरारीबापू की `मानस:गणिका’ रामकथा का विराम दिन

गुड मॉर्निंग- सौरभ शाह

(मुंबई समाचार, सोमवार – ३१ दिसंबर २०१८)

हनुमान चालीसा तो हर भारतीय को याद होगा ही. पूज्य मोरारीबापू की कथा के प्रत्येक दिन का आरंभ शंखनाद के बाद हनुमान चालीसा के गान से होता है. पंडित जसराज के गाए हनुमान चालीसा का वर्जन हमारा फेवरिट है और पंडितजी का गाया मधुराष्टकम भी.

हनुमान चालीसा के बाद कथा में वेद के मंत्रोच्चार द्वारा वातावरण बनता है. आ नो भद्रा: कृतवो यंतु विश्वत: (शुभ विचार दुनिया भर से हम तक पहुंचें) से शुरू होकर पूर्णमद: पूर्णमिदम पूर्णात्‌ पूर्णमुदच्यते तक के वेद-उपनिषदों के मंत्रों को एक सूत्र में पिरोकर उनकी एक मेडली तैयार की गई है जिसे सुनकर आप हजारों वर्ष पहले के तपोवन में पहुंच जाते हैं.

कल हमारे निवास पर कोई पूछ रहा था कि कपडे धोने के लिए देने हैं तो यहां धोबी है? हमने कहा: `ये अयोध्या है. धोबी तो होगा हीं न.’ फिर कहा:`ये न्यूज चैनल वाले बाइट्स लेने के लिए धोबियों के पास तो जाते ही हैं.’

`मानस: गणिका’ का आज विराम दिन है. मुझे १९८३ में मुंबई में हुई बापू की रामकथा याद आ रही है. गिरगांव चौपाटी पर तकरीबन लाख लोगों की भीड थी. प्रति दिन की रामकथा लिखने का मेरा पहला अनुभव था. बाईस-तेईसी की उम्र रही होगी. बापू स्वयं भी कालेवाले थे और अभी की तुलना में संपूर्ण समूह के साथ आधी उम्र के थे. ३६-३७ वर्ष के विनूभाई मेहता की पहचान का उपयोग करके बापू को संदेश भेजा था और प्रतिदिन की रामकथा लिखने के लिए आशीर्वाद मांगा था.

उस समय बापू हरदिन दो सत्रों में कथा करते थे. सुबह तीन घंटे. फिर भोजन के बाद दो-तीन घंटे का विराम. उसके बाद पुन: शाम को और तीन घंटे. खूब आनंद आता था. राम-भरत की बात को बापू खूब प्रेम से करते. हम दाएँ हाथ से पेन पकड कर लिखते और बाएं हाथ से आंखों से निरंतर बहती अश्रुधारा को पोंछते रहते.

आज की कथा रातोंरात पुस्तिका के रप में छप कर अगले दिन कथा शुरू होने से पहले हमारे स्टॉल पर बिकती, आठ आने की एक प्रति. हाथो हाथ बिक जाती. ध्यान रहे पैंतीस साल पहले का वह जमाना था. प्रिंटिंग के लिए ऑफसेट आ गया था लेकिन हमारा कामकाज अब भी पुरानी पद्धति से ही चलता. हैंड कंपोज होता. लेकिन काम दमदार होता था. जिस चौपाई का उल्लेख करके उसे रामचरित मानस से खोजकर बिना किसी भूल के लिखते थे:`प्रतिदिन की रामकथा’ की मांग इतनी थी कि पांचवें-छठें दिन खरीदने की धमाचौकडी में लोगों की धक्कामुक्की के कारण हमारा स्टॉल टूट गया. ऐसा फिर न हो, इसके लिए हमने एक तुक्का लगाया. स्टॉल से कुछ दूर मंडप के खंभे के पास टेबल सौ प्रतियों की तह और एक पात्र में पचास पैसे के सिक्के, रूपए-दो-पांच रूपए की नोटों के खुल्ले रख दिए. भीड बढते ही उसे तुरंत खोलने की सूचना दी जाती थी कि उस `सेल्फ सर्विस स्टॉल’ से ले लीजिए. ये प्रयोग था. खोट का धंधा था. लेकिन हमारे आनंद और आश्चर्य के बीच दिन पूरा होते ही पाई पाई का हिसाब मिल गया. फिर तो बाकी दिनों में भी सेल लगातार सफलतापूर्वक चलता रहा. मुंबई जैसी नगरी. चौपाटी जैसी जगह. इसके बावजूद न तो किसी ने मुफ्त में पुस्तक ली, न खुले आम दिख रही नकद राशि के साथ छेडछाड की.

मैं इसे बापू की कथा का प्रभाव मानता हूँ. आज नहीं, उस जमाने में इन नौ पुस्तिकाओं को एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित करते समय लिखी गई प्रस्तावना में मैने इस किस्से का वर्णन करके उसका श्रेय बापू की कथा के प्रभाव को दिया था.

आज कथा के आरंभ में बापू ने कई संस्थाओं की ओर से आए पत्रों-संदेशों का उल्लेख करके घोषणा करते हुए कहा कि ये संस्थाएँ गणिकाओं की उत्तरावस्था में देखभाल करना चाहती हैं, उन्हें मेडिकल सहायता देना चाहती हैं, उन्हें रोजगार देने के लिए, उनकी संतानों के लिए शिक्षा की व्यवस्था करने के लिए आगे आई हैं. बापू ने कहा कि जो साढे छह करोड रूपए जितनी राशि जुटी है उसकी पाई पाई इन लोगों के कल्याणार्थ उपयोग में लाई जाएगी, ऐसी व्यवस्था की जाएगी और क्या व्यवस्था हुई है इसकी घोषणा प्रयागराज (इलाहाबाद) के कुंभ मेले के दौरान होने जा रही कथा के समापन से पहले यानी आगामी ३० दिनों के अंदर हो जाएगी. यह काम समय पर हो, इसकी जिम्मेदारी मैं लेता हूं, बापू कहते हैं.

बापू की रामकथा के नौ दिन के दौरान व्यक्ति को, समाज को और सारे विश्व को हमेशा के लिए उपयोगी हो, ऐसा कुछ न कुछ मिलता ही रहता है. पाने का शौक होना चाहिए, पात्रता होनी चाहिए और मिलेगा ही ऐसी श्रद्धा होनी चाहिए.

विराम के दिन की कथा के आरंभ में बापू ने अयोध्या की राम जन्मभूमि पर भगवान राम का विश्वमंदिर बनेगा ही ऐसा विश्वास व्यक्त किया और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम लेकर सभी से अपील की कि `स्वीकार’ और `संवाद’ की दो ईंटें जिसकी नींव में हों, ऐसा भव्य राममंदिर बनाने के लिए सभी को जुटना होगा. बापू ने बार-बार `स्वीकार’ और `संवाद’ की दो ईंटों को नींव में रखने की बात कही. उन्होंने उसके अर्थ का विस्तार नहीं किया. ऐसा उन्होंने हेतुपूर्वक किया है, हम समझते हैं. बापू क्या कहना चाहते हैं, ये हम समझने का प्रयास करें. बात सर है. तुरंत स्वीकारी जा सकनेवाली बात है. सभी के गले उतरने जैसी बात है.

बापू `मानस: गणिका’ द्वारा हुए कार्य से संतोष का अनुभव कर रहे हैं लेकिन कहतेहं कि:ऐसी कोई भावना मुझमें नहीं है कि मैने कोई बहुत बडा काम कर दिया है. लेकिन शुरुआत हुई है, इसका आनंद है.

सातवें दिन के अंत में कथा का ट्रैक नहीं रख सके एक मित्र ने मुझसे पूछा: कथा कहां तक पहुंची? मैने कहा: देखिए ना, पांचवें-छठें दिन दो पार्ट में रामजन्म मना और फिर चारों भाइयों की नामकरण विधि हुई.

बापू जानते हैं और कथा के दौरान कहते भी हैं कि रामायण की कथा तो आप सभी जानते ही हैं.

बापू को अब पहले की तरह मानस के हर प्रसंग को हर कथा में गाने की जरूरत नहीं है. बापू अपने श्रोताओं को एक जमाने में बाल मंदिर में रामायण पढाते थे. यही श्रोता बापू के पास पढकर प्राथमिक विद्यालय में मानस की कथा का अध्ययन करने लगे. क्रमश: बापू ने उन्हें माध्यमिक, उच्च माध्यमिक तथा ग्रेजुएट लेवल का अध्ययन करने लायक बना दिया है. अब बापू पोस्ट ग्रेजुएट लेवल को भी पार करके पी.एच.डी. की पदवी के लिए अपने श्रोताओं का तैयार कर रहे हैं. इस स्तर पर एक-दो-तीन की तरह `क’ कमल का `क’, `ख’ खडाऊं का `ख’ और `ग’ गणेश का `ग’ नहीं पढाया जाता.

रामचरित मानस के सातों सोपानों की कथा को बापू आज नवें दिन खूब रुचि लेकर, अपनी अनूठी चुंबकीय शैली में, चौपाई-दोहों का गायन से नक्काशी काम करके फास्ट फॉरवर्ड में पूरा करते हैं. बालकांड, अयोध्याकांड, अरण्यकांड, किष्किंधाकांड, सुंदरकांड, लंकाकांड और उत्तरकांड के सात सोपानों में बंटे रामचरित मानस का अरण्यकांड सबसे बडा है, सुंदरकांड सबसे छोटा है. इस कथा के निमित्त से बापू जीवन को स्पर्श करते हुए एक के बाद हर विषय को समाविष्ट करते हैं. श्रोताओं को बालमंदिर से उठाकर डॉक्टरेट की डिग्री दिलाने तक बापू का तप उनकी इस विशिष्ट और अननुकरणीय (इनइमिटेबल, जिसे इमिटेट नहीं किया जा सकता, जिसका अनुकरण या नकल नहीं की जा सकती) शैली के कारण चिरस्मरणीय रहेगा. बापू की मौलिकता, उनके अनूठे विचारों की प्रतिध्वनि आज मंच पर विशाल आसन पर विराजमान रामजन्मभूमि शिलान्यास ट्रस्ट के प्रमुख महंतश्री ने भी की. वयोवृद्ध महंतश्री ने नौ दिन की कथा पूरे ध्यान से सुनी है इसका प्रमाण तब मिला जब बापू ने कहा: राम को शील रूप बलधामा कहा है. शील से राम ने अयोध्या को रूप से जनकपुरी को और बल से लंका को वश में किया. बापू के इस इंटरप्रिटेशन को सुनकर तुरंत ही महंतश्री ने प्रशंसा में हाथ उठाकर मानो कहा हो `वाह, क्या बात है’. ज्ञानवृद्ध और अनुभववृद्ध संत भी बापू की वाणी को एक्नॉलेज करते हैं.

एक अलग संदर्भ में बापू ने आज कहा: भय या प्रलोभन के वशीभूत होकर यदि ये तीन लोग अपना कर्तव्य भूल जाएं तो काफी बडा अहित हो सकता है. सचिव राजा को गलत सलाह दे, वैद्य मरीज को गलत मार्ग पर ले जाए और गुरु शिष्य की खुशामद करे- भय और/या प्रलोभन से प्रेरित होकर तो खूब अनर्थ हो सकता है.

राम का राज्याभिषेक हो रहा है. मंगल चौपाइयां गाकर कथा मंडप में उत्सव का वातावरण बन रहा है. बापू रॉक कॉन्सर्ट को फीका कर दें ऐसी युक्ति आजमाने के लिए श्रोताओं से कहते हैं: सभी अपने अपने मोबाइल जेब से निकालो. साधु महाराज आप भी यदि कमंडल या झोले में मोबाइल लेकर आए हों तो बाहर निकालिए. अब उसकी बैटरी ऑन कीजिए और हाथ में आरती की थाली हो ऐसा मानकर मोबाइल घुमाइए और राम के राज्याभिषेक में जुड जाइए.

क्या गजब का दृश्य था यह. अवर्णनीय, शब्दों में इसे व्यक्त करें तो फीका लगेगा. खुद ही यूट्यूब पर देख लीजिएगा.

अयोध्या में आयोजित `मानस: गणिका’ का नौ दिवसीय आयोजन संपन्न होने जा रहा है. कोई विघ्न नहीं आया. एक क्रांतिकारी घटना का सभी साक्षी बने हैं जिसके केंद्र में बापू हैं, रामचरित मानस है, समाज का एक ऐसा हिस्सा है जो अभी तक लोगों द्वारा उपेक्षित है.

बापू कहते हैं: कुछ कहना बाकी नहीं रह गया है ऐसा लगता है. लंबी खामोशी के बाद आगे कहते हैं: कथा के आयोजन में कथाकार द्वारा, यजमान द्वारा, श्रोताओं द्वारा, किसी के भी द्वारा कोई त्रुटि रह गई हो तो उसकी पूर्ति के लिए ऋषियों की सनातन परंपरा में जो एक मंत्र है उसका उच्चारण करना चाहिए: हरये नम:, हरये नम:, हरये नम:

पहले दिन जिन दो चौपाइयों द्वारा कथा का केंद्रीय विचार व्यक्त किया गया था और जिनके शब्द सभी को कंठस्थ हैं उन चौपाइयों का सामूहिक गान बापू करवाते हैं. आप भी गाइए:

अपतु अजामिल गजु गणिकाऊ

भए मुकुत हरि नाम प्रभाऊ

पाई न केहि पतित पावन,

राम भजि सुनु सठ मना.

गनिका अजामिल ब्याध, गीध

गजादि खल तारे घना

दोनों का अर्थ कथा के छठें दिन के लिए लेख में दिए गए हैं.

हनुमानजी को आमंत्रण देकर कथा का आरंभ हुआ था. अब उन्हें विदा करने का समय आ गया है. लेकिन उससे पहले:

अच्युतम केशवम्‌ श्री राम नारायणम्‌

कृष्ण दामोदरम्‌ वासुदेवम्‌ हरि

और अब:

कथा विसर्जन होत है

सुनहु वीर हनुमान

राम लछमन जानकी

सदा करो कल्याण

सियावर रामचंद्र प्रिय हो

राधावर कृष्णचंद्र प्रिय हो

उमापति महादेव प्रिय हो

पवनसुत हनुमान प्रिय हो

बोलो भाई, सब संतन प्रिय हो

हरि ओम….

रामकथा हो या भागवत कथा- हर कथा में कथाकार अपनी जो कथा पोथी व्यासपीठ पर रखता है उसके अनोखा महत्व है. कथा के मंगलाचरण के दिन पोथी यात्रा निकाली जाती है. यजमान की बहू/बेटी अपने माथे पर रखकर पोथी को कथामंडप में लाती हैं और कथाकार का सौंपती हैं. कथा जिस दिन विराम लेती है उस दिन यानी बिलकुल अंत में, पोथी की आरती होने के बाद उसी यजमान की बहू/बेटी फिर से उस पोथी को माथे पर रखकर कथा मंडप से विदाई लेती हैं.

बापू ने यह लाभ जिनके लिए कथा का आयोजन हुआ उन बहन बेटियों को दिया. प्रत्येक ने मंच पर आकर पोथी अपने अपने माथे पर रखकर अंत में यजमान की बहु/ बेटी के माथे पर पोथी रखी गई. ऐसा भावपूर्ण दृश्य कभी किसी ने देखा नहीं होगा. हर आंख सजल बनकर बापू की इस निष्ठा की साक्षी बनी. ऐसा दुर्लभ दृश्य कथा मंडप में प्रत्यक्ष देखने का मौका मिलना हमारी अयोध्या आने की सबसे बडी उपलब्धि है.

निजी तौर पर एक अन्य उपलब्धि ये है कि `मानस: गणिका’ का श्रवण करने के पश्चात मुझमें एक नैतिक साहस का सिंचन हुआ है जिसका पहले मुझमें अभाव था और जिसें मैने इस लेखमाला में एक मौके पर स्वीकार भी किया है. लेकिन अब मनोबल बढा है. बापू ने जिस विषय पर नौ दिन की कथा कही उस विषय को आगे ले जाने के लिए, और इस संबंध में मेरे जो विचार हैं उन्हें व्यक्त करते हुए एक लंबी लेख माला या एक स्वतंत्र पुस्तक लिखूंगा. (मनोरथ है. सफल हो तो हरिकृपा, नहीं तो हरि इच्छा. बापू से धीरे धीरे बहुत कुछ सीखना है).

बापू ने कल जिस `मोबाइल कथा’ के मनोरथ का उल्लेख किया था उसका रूट कल श्रोताओं को याद कराया. गली मोहल्ले के गुंडा मव्वालियों के गैरजिम्मेदाराना बयानों को भगौडे मीडियावाले जिस तरह से हेडलाइन बनाते हैं उससे सभी परिचित हैं. किसी स्थानीय चिरकुट ने पांच दिन पहले ऐसा बयान दिया कि इस बार भले ही मोरारीबापू को कथा करने दे रहे हैं लेकिन अब के बाद उनकी कथा अयोध्या में नहीं होने देंगे. क्योंकि गणिकाओं को लाकर बापू ने अयोध्या को अपवित्र कर दिया है.

ऐसे नासमझ लोगों को कौन बुद्धि देगा कि विश्व में जो किसी धर्माचार्य ने नहीं किया ऐसा कार्य बापू ने अयोध्या आकर किया है जिस पर केवल अयोध्या ही नहीं बल्कि भारत के तमाम साधु संतों, समस्त विश्व को गर्व होना चाहिए और गौरव हो भी रहा है.

बापू ने `मानस: अयोध्याकांड’ के लिए मनोरथ किया है उसका रूठ जो तय किया उसकी जानकारी रामायण प्रेमियों को देने की जरूरत नहीं है. लेकिन जो रामकथा में नए नए जुड रहे हैं उन्हें इस दौ दिवसीय चरैवेति कथा के नौ स्थानों का क्या महात्म्य है उसकी जानकारी संक्षिप्त में देकर भविष्य की कथा के लिए मानसिक रूप से तैयार करने की जिम्मेदारी निभा लेते हैं.

पहले दिन अयोध्या में जो राम जन्मभूमि है. दूसरा दिन भी अयोध्या में जहां से राम ने १४ वर्ष के वनवास के लिए प्रयाण किया. कथा का तीसरा दिन तमसा नदी के तट पर. तमसा नदी गंगाजी में जाकर मिली है. १४ वर्ष के वनवास का पहला दिन भगवान राम, लक्ष्मणजी और सीता माता ने तमसा नदी के तट पर बिताया था. सारी अयोध्या नगरी उनके साथ वनवास बिताने के लि आई थी. भगवान ने सभी के साथ एक रात यहीं पर बिताने का अश्वासन दिया और रात होने पर सभी को सोता छोडकर प्रभु अपनी यात्रा पर आगे बढ गए ऐसी कथा है.

कथा का चौथा दिन श्रृंगवेसुर में है. प्रयागराज से ४० किलोमीटर दूर बसे इस पावन स्थल पर भगवान ने गंगा पार की. केवटवाला प्रसंग यहीं हुआ था. राम की चरणरज से शिला अहिल्या बन गई उसी तरह से यदि अपनी नाव भी यदि स्त्री बन गई तो कैसे केवट अपना और अपने परिवार का भरणपोषण करेगा इसीलिए राम को नाव में बिठाने से पहले उनके चरण रज धोने की अनुमति मांगते हैं. भगवान को गंगा पार कराकर राम जब केवट को उतराई के रूप में कुछ देना चाहते हैं तब केवट कहता है कि अपनी जाति के भाई से उतराई कैसे ली जा सकती है?

मैं लोगों को गंगा पार कराता हूं, आप संसार सागर पार कराते हैं, हम दोनों एक ही हैं! इस केवट को याद रखते हुए भगवान जब लंका से पुष्पक द्वारा अयोध्या जा रहे हैं तब उसे अपने साथ अयोध्या लेकर आते हैं, ऐसी कथा है.

पांचवें दिन प्रयागराज में इलाहाबाद का ऑफिशियल नाम अब प्रयागराज है. १५७५ साल तक प्रयागराज के रूप पहचाना जानेवाला यह तीर्थ स्थल बाद में इलाहाबाद बन गया. सनातन परंपरा में अपना अनूठा महत्व रखनेवाला यह पवित्र तीर्थ स्थल वेदों तथा अनेक शास्त्रों में वर्णित है. रामायण में इसका उल्लेख इस तरह से हुआ है कि वनवासी भगवान राम ने चित्रकूट प्रयाण करने से पहले कुछ समय यहां भारद्वाज मुनि के आश्रम में बिताया था.

कथा का छठां दिन वाल्मीकि आश्रम में. यहां वाल्मीकि ने क्रौंच वध से व्यथित होकर रामायण के पहले श्लोक की रचना की.

सातवां दिन चित्रकूट में. यह पवित्र स्थल भरत मिलाप की भूमि है. राम को वापस अयोध्या लाने के लिए निवेदन करने के लिए भरतजी यहीं आए थे. तब राम के समझाने के बाद रामजी की पादुका लेकर अयोध्या लौटे थे. राम यहां से दंडकारण्य चले जाते हैं.

आठवें दिन फिर अयोध्या में जहां राम का राज्याभिषेक होता है, रामराज्य स्थापित होता है.

नवें और विराम के दिन नंदीग्राम में. यह पावन स्थल अयोध्या से वाराणसी जाते समय फैजाबाद के निकट बसा है. राम वनवास जा रहे थे तब भरतजी अयोध्या के राजमहल में नहीं बल्कि मुनि की तरह यहां तपस्या करके अयोध्या जिनकी राजधानी थी उस कोसल राज्य का संचालन कर रहे थे.

रामायण एक अद्भुत विरासत है हमारी संस्कृति की. पूज्य मोरारीबापू रामकथा द्वारा उस विरासत को संजो कर उसे विस्तार दे रहे हैं. बापू को वंदन करके अयोध्या की `मानस: गणिका’ की प्रतिदिन की रामकथा को यहां विश्राम देते हैं. यह लिखते समय कोई भूल-चूक हो गई हो तो क्षमाप्रार्थी हूं. हरये नम: हरये नम: हरये नम: जय सियाराम.

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