(newspremi dot com, सोमवार, २५ जनवरी २०२१)
सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु के पीछे घिरा जाल जवाहरलाल नेहरू ने और उनके अनुगामी प्रधान मंत्रियों ने दूर नहीं किया. यह काम नरेंद्र मोदी ने प्रधान मंत्री बनने के बाद किया. पांच साल पहले की नेताजी की जयंती (२३-१-२०१६) से उन्होंने कांग्रेस सरकार द्वारा दबाकर रखे गए दस्तावेजों को जनता के सामने प्रस्तुत करना शुरू किया. ये तमाम दस्तावेज राष्ट्रीय अभिलेखागार (नेशनल आर्काइव्स ऑफ इंडिया) की वेबसाइट नेताजी पेपर्स डॉट गव डॉट इन पर उपलब्ध है. १८ अगस्त १९४५ को उस समय जापान अधिकृत ताइवान में ४८ वर्ष की उम्र में विमान हादसे में गुजर चुके सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु की सच्चाई को नेहरू की सरकार ने वर्षों तक रहस्य की परतों में दबा कर रखा. इसका एक कारण था. सुभाषबाबू की अकाल मृत्यु को स्वीकारने के लिए कई लोग तैयार नहीं थे. सुभाषबाबू अभी जीवित हैं और वे अपने परिवारजनों तथा निकट के सहयोगियों से संपर्क में हैं, ऐसी चर्चाएं चल रही थीं. ऐसी अफवाहों में यदि कुछ तथ्य हो तो नेहरू के लिए, उनकी सरकार के लिए जोखिम खडा हो जाता, ऐसा वह समय था. अपना आसन न हिले, इसके लिए सतर्कता बरतते हुए नेहरू ने सुभाषबाबू के परिवारजनों तथा निकट के साथियों पर नजर रखने निश्चय किया था. नेहरू सरकार द्वारा ऐसा दुष्कृत्य होने के आधिकारिक दस्तावेज उपलब्ध हैं.
किसी जमाने में मित्र रह चुके नेहरू-सुभाष के रास्ते समय के साथ बदल गए थे. इसका मुख्य कारण गांधी-सुभाष के बीच सैद्धांतिक मतभेद थे. १९३८ और १९३९ में कांग्रेस प्रमुख के रूप में चुने गए सुभाषबाबू को १९३९ के मध्य में कांग्रेस के नेतापद से हटाने की मांग हुई. १९४० में ब्रिटिश सरकार ने उन्हें नजरबंद किया जहां से वे भाग निकले और १९४१ का अप्रैल माह में उन्होंने जर्मनी में दस्तक दी. छह महीने में ही उन्होंने जर्मन सरकार के खर्च पर बर्लिन में इंडिया सेंटर की स्थापना कर फ्री इंडिया रेडियो के नाम से रात्रि प्रसारण शुरू किया. फरवरी १९४३ में जर्मन सबमरीन में यात्रा करके वे मैडागास्कर आए और वहां से जापानी सबमरीन में बैठकर १९४३ के मई मास में सुमात्रा आ गए. उस समय सुमात्रा जापान के कब्जे में था.
जापान के सहयोग से सुभाषबाबू ने इंडियन नेशनल आर्मी को पुनर्जीवित किया. ब्रिटिश राज की प्रचंड शक्ति के सामने सुभाषबाबू की सेना का बल नगण्य था. उस समय रूस ब्रिटेन के खिलाफ जा रहा था. इसीलिए सुभाष ने जापान से रूस जाने का प्लान बनाया. १८ अगस्त १९४५ को दोपहर ढाई बजे कई अन्य यात्रियों के साथ सुभाषबाबू ताइवान के ताईहोकू सैन्य हवाई अड्डे पर से एक बॉम्बर विमान में बैठे. मंचूरिया में सोवियत सेना के साथ हो चुके जापान के समझौते के अनुसार इस विमान में सुभाषबाबू को वहां पहुंचना था.
दो व्यक्ति विमान के अगले दरवाजे से बाहर निकल रहे थे जिसमें से एक व्यक्ति धधक कर जल रहा था. सुभाषबाबू के पेट्रोल से भीगे कपडे का यह जानलेवा परिणाम था.
प्लेन टेक ऑफ होने के कुछ ही समय में अंदर बैठे यात्रियों ने इंजिन के बैकफायर होने जैसा जोरदार धमाका सुना. नीचे हवाई पट्टी पर खडे कई मेकैनिकों ने विमान से कुछ नीचे गिरता हुआ देखा. विमान की बाईं ओर इंजिन और प्रोपेलर अलग होकर जमीन पर जा गिरा और तुरंत विमान बाईं तरफ घूम कर चक्कर खा गया और जमीन पर आ गिरा. दो टुकडे हो गए. धमाका हुआ. आग की ज्वालाओं में घिर गया. अंदर चीफ पायलट, को पायलट और लेफ्टिनेंट जनरल त्सुनासाला शिडेल थे. शिडेल जापानी क्वांतुंग आर्मी के वाइस चीफ ऑफ स्टाफ थे. उन्होंने ही रूसी सेना के साथ सुभाषबाबू की ओर से चर्चा चलाई थी. उनकी तत्काल मृत्यु हो गई.
सुभाष चंद्र बोस के साथ उनके साथी हबीबुर रहमान थे. रहमान आघात से सुधबुध खो बैठे. सुभाषबाबू होश में थे, उन्हें लगी चोटें जानलेवा नहीं थीं लेकिन उनका शरीर विमान की गर्मी से झुलस गया था. कुछ सेकंड बाद रहमान होश में आए. दोनों ने विमान के पिछले दरवाजे से बाहर निकलने की खूब कोशिश की लेकिन बीच में पडे सामान के कारण दरवाजे तक पहुंच नहीं सकते थे. अंत में आगे के दरवाजे से बाहर निकलने का जोखिम उठाने का निर्णय किया. जोखिम इसीलिए कि वह दरवाजा आग की लपटों में घिरा था.
इस तरफ हवाई पट्टी पर मौजूद अनेक कर्मचारियों ने देखा कि दो व्यक्ति विमान के अगले दरवाजे से बाहर निकल रहे थे जिसमें से एक व्यक्ति धधक कर जल रहा था. सुभाषबाबू के पेट्रोल से भीगे कपडे का यह जानलेवा परिणाम था. रहमान और अन्य ने सुभाषबाबू के शरीर को घेर कर आग बुझाने का प्रयास किया लेकिन उनका चेहरा तथा उनका माथा आग की लपटों में तकरीबन झुलस चुका था. एक ट्रक आई. उसमें सुभाषबाबू को दक्षिण ताईहोकु के नानमोन मिलिटरी हॉस्पिटल में ले जाया गया. दोपहर तीन बजे हॉस्पिटल इनचार्ज डॉ. तानेयोशी योशिमिन को कर्तव्य पर बुलाया गया. अस्पताल पहुंचने तक सुभाषबाबू होश में थे. उनके शरीर से सारे वस्त्र निकाल दिए गए थे. शरीर पर कंबल लपेटा गया था.
डॉक्टर ने सुभाषबाबू की जॉंच की. शरीर के छाती सहित काफी सारे अंग थर्ड डिग्री तक जल चुके थे. डॉकटर को शंका थी कि यह मरीज नहीं जी सकेगा. सुभाषबाबू के शरीर पर रिवामोल नामक डिसइंफेक्टेंट लगाया गया. फिर सफेद मलहम लगाकर पट्टी बांधी गई. उसके बाद डॉ. याशिमि ने विटा कैंफर के चार इंजेक्शन और डिजिटामाइन के दो इंजेक्शन दिए. ये दोनों प्रकार के इंजेक्शन्स देने के बाद सुभाषबाबू के कमजोर होते हृदय को फिर से पूर्ववत किया जा सकेगा, ऐसी डॉक्टर को आशा थी. ये इंजेक्शन्स तीस तीस मिनट के अंतर पर दिए जाते थे. जलने के कारण शरीर से द्रव तेजी से कम हो रहा था, इसीलिए नस द्वारा बॉटल से द्रव चढाना शुरू किया गया. इसके अलावा रक्त भी चढ़ाया गया. इतनी चोटों के बाद तथा इलाज के दौरान भी सुभाषबाबू होश में थे. डॉक्टरों को उनकी जिजीविषा और आत्मबल पर गर्व तथा आश्चर्य हो रहा था.
कुछ घंटे बाद, रात ९ से १० के बीच सुभाषबाबू ने अंतिम सांस ली. उनका अंतिम संस्कार दो दिन बाद २० अगस्त को ताईहोकू के स्मशान में किया गया. ७ सितंबर को लेफ्टिनेंट तात्सुओ हायाशिदा नामक जापानी सैनिक अधिकारी ने सुभाषबाबू की अस्थियां टोकियो पहुंचाई और उसके बाद के दिनों में टोकियो के इंडियन इंडिपेंडेंस लीग के प्रमुख राममूर्ति को अस्थियां सौंप दी गईं. १४ सितंबर को टोकियो में सुभाषबाबू की आत्मा की सद्गति के लिए प्रार्थना की गई और उसके कुछ दिन बाद टोकियो के रेंकोजी बौद्ध मंदिर के पुजारी को अस्थि सौंप दी गई. अभी भी वहीं है.
गांधीजी के साथ मतभेदों के चलते नेहरू सहित गांधीवादियों के मन में सुभाषचंद्र बोस के प्रति तीव्र ईर्ष्या भर चुकी थी. यहां भारत के इस वीर सपूत की आकस्मिक मौत के आसपास जाल बुन कर सुभाषबाबू के उस समय के साथियों ने इस महापुरुष के नाम को भुनाकर खाने का प्रयास किया. इन प्रशंसकों और उन गांधीवादी दुश्मनों के बीच असली सुभाषबाबू खो गए.
भारत का दुर्भाग्य है कि नेताजी सुभाषचंद्र बोस सहित अन्य कई स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदानों को आजादी के बाद के सात-सात दशकों तक भुलाकर केवल गांधीजी ने ही आजादी के लिए लडाई लडी, ऐसा साबित करने के प्रयास स्वरूप उनकी फोटोवाली नोटें छपती रहीं. डिमोनेटाइजेशन के समय परिस्थिति का लाभ लेकर सुभाषबाबू, सरदार वल्लभभाई पटेल और आंबेडकर की फोटोवाली करेंसी नोटें चलन में लाई जानी चाहिए थीं!
सुभाष गाथा यहां समाप्त होती है.
आज का विचार
जिंदगी में असली आनंद ऐसा काम करने में आता है, जो काम आप कभी नहीं कर सकते, ऐसा दूसरे हमेशा कहते रहते हैं.
– जे.एफ. केनेडी