राम जन्मभूमि के बारे में मुस्लिम पुरातत्वविद् क्या कहते हैं

गुड मॉर्निंग – सौरभ शाह

(मुंबई समाचार, मंगलवार- 12 मार्च 2019)

उनका नाम है के.के. मुहम्मद. भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के रीजनल सुपरिंटेंडेंट (नॉर्थ) के पद से सेवा निवृत्त हो चुके हैं. तीन अंतर्राष्ट्रीय और छह राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित हैं. उन्होंने अपनी एक आत्मकथा जैसी छोटी सी पुस्तक लिखी है: ‘मैं हूँ भारतीय.’ 166 पृष्ठ की इस हार्ड बाउंड पुस्तक की कीमत (रू.400) महंगी लगती है लेकिन उसका मूल्य काफी बडा है. पुस्तक में ‘अयोध्या: कुछ ऐतिहासिक तथ्य’ नामक प्रकरण में आगे की जानकारी दी गई है.

इस प्रकरण के आरंभ में के.के. मुहम्मद लिखते हैं: ‘यह प्रकरण लिखे बिना मेरी जीवनरेखा का कथन पूरा नहीं होगा. यह लेखन किसी की भावना को ठेस पहुंचाने के लिए या किसी की भावना को प्रोस्साहन देने के लिए नहीं किया गया है. मेरा निवेदन है कि कोई भी व्यक्ति इसका उपयोग उस तरह से न करे.’

अयोध्या की राम जन्मभूमि के स्वामित्व के मामले में 1990 में राष्ट्रीय स्तर पर काफी बडी चर्चाएँ होने लगीं. इससे पहले, 1976-77 के दौरान पुरातत्व का अध्ययन करते समय के.के. मुहम्मद एक विद्यार्थी के नाते अयोध्या की राम जन्मभूमि के उत्खनन कार्य में शामिल हुए थे. प्रो. बी.बी. लाल के नेतृत्व में ‘दिल्ली स्कूल ऑफ आर्कियोलॉजी’ की ओर से जो उत्खनन टीम बनी उसके एक सदस्य के.के. मुहम्मद थे. उत्खनन के लिए यह टीम जब अयोध्या पहुंची तब बाबरी मस्जिद की दीवारों में मंदिर के स्तंभ थे ऐसा के.के. मुहम्मद लिखते हैं और आगे कहते हैं कि उन स्तंभों का निर्माण ब्लैक बेसाल्ट नामक प्रसिद्ध पत्थरों से हुआ था. स्तंभ के नीचे के हिस्से में 11 वीं या 12 वीं शताब्दि के मंदिरों में दिखाई देनेवाले पूर्ण कलश नजर आ रहे थे, मंदिर की स्थापत्य कला में जो 8 ऐश्वर्य के प्रतीक चिन्ह होत हैं उनमें से एक चिन्ह है पूर्ण कलश. ‘1992 में बाबरी मस्जिद को तोडकर गिराने से पहले हमने (के.के. मुहम्मद और उनकी टीम ने) ऐसे ‘एक- दो नहीं 14 स्तंभ देखे हैं’ ये उल्लेख करते हुए वे बताते हैं कि मस्जिद को पुलिस सुरक्षा मिली थी इसीलिए उसमें प्रवेश नहीं मिलता था लेकिन हम लोग उत्खनन और संशोधन कार्य से जुडे ते इसीलिए हम पर कोई प्रतिबंध नहीं था.के.के. मुहम्मद फिर एक बार जोर देकर लिखते हैं: ‘उन स्तंभों को मैने नजदीक से देखा है.’

प्रो. बी.बी. लाल के नेतृत्व वाली टीम में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अधिकारियों के अलावा के.के. मुहम्मद सहित ‘दिल्ली स्कूल ऑफ आर्कियोलॉजिकल’ के 12 विद्यार्थी भी शामिल थे. उत्खनन के लिए करीब दो महीने तक वे अयोध्या में रहे. मुहम्मद लिखते हैं: ‘बाबर के सेनानायक मीर बाकी द्वारा तोडे गए या पहले से तोडे गए मंदिरों के अंशों का उपयोग करके मस्जिद का निर्माण किया गया है.’

पहले जो कसौटी के पत्थरों (ब्लैक बेसाल्ट) से निर्मित स्तंभ के बारे में बताया गया था, उसी तरह के स्तंभ और उसके नीचे के भाग में ईंट का चबूतरा मस्जिद की बगल में और पीछे के भाग में उत्खनन करने से प्राप्त हुआ. इन सुबूतों के आधार पर मैने कहा कि बाबरी मस्जिद के नीचे मंदिर रहा था, मेरा यह बयान 15 दिसंबर 1990 को आया था. उस समय माहौल गरम था.

के.के. मुहम्मद स्पष्टता से अपनी मनोभावना को व्यक्त करते हैं: ‘खेद के साथ कहना पड रहा है कि उग्रपंथी मुस्लिमों के समूह को मदद करने के लिए कई वामपंथी (लेफ्टिस्ट, साम्यवादी) इतिहासकार आगे आए और उन्होंने मुस्लिमों को बाबरी मस्जिद का कब्जा देने की सलाह दी. असल में, उन्हें (वामपंथी इतिहासकारों को) पता नहीं था कि ऐसी सलाह देकर वे कितना बडा पाप कर रहे हैं. दिल्ली की जवाहरलाल नेहरू युनिवर्सिटी (जे.एन.यू.) के एस. गोपाल, रोमिला थापर, बिपिन चंद्रा इत्यादि जैसे इतिहासकारों ने तो रामायण के ऐतिहासिक तथ्यों पर ही सवाल खडे करना शुरू कर दिया. और कहा कि 19वीं शताब्दि से पहले मंदिर को तोडा गया हो ऐसा कोई प्रमाण नहीं है. इन वामपंथी इतिहासकारों ने अयोध्या को ‘बौद्ध-जैन केंद्र’ बताया. उनकी हां में हां मिलाने के लिए प्रो. इरफान हबीब, प्रो. आर.एस. शर्मा, अनवर अली, डी.एन. झा, सूरजभान इत्यादि लोग आगे आए. ऐसे तो बाबरी समर्थकों को उस समय एक बडे समूह का समर्थन मिल गया. इन सभी में एकमात्र सूरजभान ही पुरातत्वविद् थे. प्रो. आर.एस. शर्मा के साथ कई सारे इतिहासकार बाबरी मस्जिद एक्शन कमिटी की बैठकों को विशेषज्ञ के रूप में भाग लेने लगे थे.’

इस बाबरी मस्जिद एक्शन कमिटी की कई बैठकें भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद (इंडियन काउंसिल ऑफ हिस्टोरिकल रिसर्च- आई.सी.एच.आर. के कार्यालय में होती थीं जो भारत सरकार की मिनिस्ट्री ऑफ ह्यूमन रिसोर्स डेवलपमेंट के अंतर्गत एक स्वायत्त संस्था है. केंद्रीय सरकार की ग्रांट के अलावा इस संस्था को राज्य सरकारों की ओर से तथा निजी तौर पर तथा विदेशी संस्थाओं/ व्यक्तियों की ओर से भी भरपूर धन मिलता है. भारत की ये समृद्ध संस्थाएँ वामपंथियों के अड्डे की तरह काम करके देश के भव्य भूतकाल को खूब तोडती मरोडती हैं.)

के.के. मुहम्मद बताते हैं कि बाबरी मस्जिद एक्शन कमिटी की मीटिंग आई.सी.एच.आर. के कार्यालय में होती थीं. उस समय आई.सी.एचआर. के सदस्य और सचिव के रूप में कार्यरत इतिहासकार प्रो. एम.जी. एस. नारायण ने इसका विरोध किया था, लेकिन प्रो. इरफान हबीब ने इस विरोध को नजरअंदाज किया. भारतीय मीडिया में पांव पसार चुके वामपंथी – साम्यवादी – कम्युनिस्ट इतिहासकारों ने अयोध्या की राम जन्मभूमि की वास्तविकता पर सवालिया निशान लगाने वाले लेखों की बौछार शुरू करके आम जनता को भ्रमित कर दिया, उलझन में डाल दिया. वामपंथी इतिहासकारों ने तथा उनका समर्थन करनेवाले ‘एक अंग्रेजी अखबार’ की नीति के कारण जिन मुसलमानों को ऐसा लगता था कि ये मस्जिद हिंदुओं को दे देनी चाहिए, उनके विचारों में बदलाव आ गया और वे भी कहने लगे कि नहीं, मस्जिद हिंदुओं को नहीं सौंपनी चाहिए. साम्यवादी इतिहासकारों की चालाकी के कारण ये वैचारिक परिवर्तन आया. इस तरह से समाधान का मार्ग हमेशा के लिए बंद हो गया. यदि समाधान हो गया होता तो हिंदू मुस्लिम संबंधों में ऐतिहासिक दृष्टि से एक नया मोड आ गया होता. वर्तमान में देश के सामने जो अनेक सामाजिक समस्याएँ हैं उनका हल निकल चुका होता. इससे एक बात बिलकुल साफ है कि मुस्लिम – हिंदू उग्रपंथी ही नहीं, बल्कि साम्यवादी उग्रपंथी भी राष्ट्र के लिए खतरनाक हैं. इस सारी समस्या को पंथनिरपेक्ष रहकर देखने के बजाय वामपंथियों की आंखों से देखकर अयोध्या विवाद का विश्लेषण करनेवाले उस अंग्रेजी अखबार ने बहुत बडा अपराध किया है जिसकी बहुत बडी कीमत देश को चुकानी पडी है.
ये सारे शब्द के.के. मुहम्मद की पुस्तक ‘मैं हूँ भारतीय’ (प्रकाशक: प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली) में छपे हैं.

शेष कल.

आज का विचार

किसी दोस्त ने क्या खूब कहा है: जिंदा रहे तो हम बार बार मिलते रहेंगे. कभी इस ‘बार’में, कभी उस ‘बार’ में.
– व्हॉट्सएप पर पढा हुआ.

एक मिनट!

बका: पिछली बार मैने कांग्रेस के उम्मीदवार को वोट दिया था.
पका: हां, तो क्या हुआ?
बका: वह भाजपा में चला गया.
पका: अब?
बका: इस बार मैं सीधे भाजपा को ही वोट दूंगा.

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