चिकित्सा पद्धति में श्रद्धा होनी चाहिए: इन्सोम्निया, एनिमा, बस्ति और लाभशंकर ठाकर – हरिद्वार के योगग्राम में २५ वॉं दिन : सौरभ शाह

(गुड मॉर्निंग: चैत्र शुक्ल दशमी, विक्रम संवत २०७९, सोमवार, २५ अप्रैल २०२२)

स्वामी रामदेव ने आज सुबह के ढाई घंटे के योगसत्र के दौरान एक शब्द पर खूब बल दिया: `श्रद्धा’.

आप योगग्राम में आकर तभी ठीक हो सकते हैं जब आपको यहां की उपचार पद्धतियों पर श्रद्धा हो. आपको यदि आयुर्वेद नीमहकीम लगता है, आपको यहां की उपचार पद्धतियों के बारे में शंका-कुशंका होती है, आपको केवल अलोपथी में विश्वास होता है-अन्य किसी में नहीं तो योगग्राम में आपका आना निरर्थक है. यह मेरे यहां पर पचास दिन के निवास का प्रथम पड़ाव आ रहा है तब-पिछले २५ दिनों का मेरा ये निरीक्षण है. स्वामीजी ने सौ प्रतिशत सच बात की है.

श्रद्दा.

उपचार पद्धति में ही नहीं, अन्य किसी भी संबंध में, किसी भी विषय की बात हो, श्रद्धा ज़रूरी है. आप जो काम करते हैं, वह आपको जीवन में आगे ले जाएगा, ऐसी श्रद्धा, तमाम संकटों के सामने अडिग रहने की प्रभु शक्ति देंगे, ऐसी श्रद्धा, आपके माता पिता, आपके पति-पत्नी, आपकी संतानें, आपके मित्र-स्वजन हमेशा आपके साथ रहेंगे, ऐसी श्रद्धा. इन तमाम प्रकार की श्रद्‌धाओं का योग ही जीवन जीने की कला है.

वैसे, उस तरफ गए बिना हम उपचार पद्धति के प्रति श्रद्धा की बात करेंगे.

गुजराती भाषा के अति उत्तम कवि लाभशंकर ठाकर पेशे से आयुर्वेदिक प्रैक्टिशनर थे, वैद्य `पुनर्वसु’ उनका व्यावसायिक नाम था और `सर्वमित्र’ के नाम से अत्यंत लोकप्रिय आयुर्वेद विषयक स्तंभ भी उन्होंने वर्षों तक लिखा, जिसे मैने `समकालीन’ के रविवारीय परिशिष्ट में बड़े शौक से छापा. और फिर वे कॉलेज में गुजराती भाषा साहित्य भी पढ़ाते थे. और कवि तो थे ही, बहुत बड़े कवि.

आयुर्वेद की उपचार पद्धति में श्रद्धा के अत्यधिक महत्व का विषय निकला है इसीलिए मुझे लाभूदादा याद आ गए. वैद्य `पुनर्वसु’ यानी कि लाभशंकर ठाकर ने अपने एक वकील मरीज़ से जुड़ा प्रसंग बताया है:

वकील साहब को अनिद्रा की तकलीफ थी. एकाध साल से इन्सोम्निया के इस भयानक रोग से ग्रस्त थे. देर रात बीतने के बाद बड़ी मुश्किल से नींद आती. दूसरे दिन सिर भारी रहता और शरीर टूटता रहता. मलशुद्धि भी ठीक से नहीं होती. वकील साहब को आयुर्वेद में बिलकुल श्रद्धा नहीं थी. नींद की गोली लेने से उनका काम चल जाता. वैसे स्लीपिंग पिल्स लेने से उन्हें डर भी लगता. लेकिन नींद नहीं आती थी और अकड़न छा जाती थी, इसीलिए एक टिकिया ले लेते. कभी कभी एक टिकिया से असर नहीं होता तो डेढ़ घंटे बाद दूसरी टिकिया लेनी पड़ती. नींद तो आ जाती पर सबेरे शरीर सुस्त हो जाता. शरीर में स्फूर्ति का बिलकुल अनुभव नहीं होता था.

वकील साहब की पत्नी रोज कहा करती थीं कि अब आप देशी इलाज करवाइए लेकिन आयुर्वेद में श्रद्धा नहीं होने के कारण वकीलसाहब उस बात को टाला करते. एक बार किसी अन्य वकील मित्र से आयुर्वेद की प्रशंसा सुनी. उन्होंने विरोध किया. उस मित्र ने अपना ठोस अनुभव बताया, जो वास्तविक था, उसका विरोध नहीं किया जा सकता था. दो-चार दिन बाद पत्नी ने बिलकुल हठ पकड ली और वकीलसाहब ने अंत में आयुर्वेदिक उपचार करवाने का विचार किया. लेकिन मन में अब भी आयुर्वेदिक इलाजों के लिए संपूर्ण श्रद्धा नहीं थी. ऐसी स्थिति में वे लाभशंकर ठाकर के दवाखाने पर सपत्नीक पहुंचे.

उनकी अश्रद्‌दा की बात सुनकर तथा उनकी वाणी-व्यवहार में भी `ठीक है, यह तो मैं पत्नी का मन रखने के लिए आया हूं.’ ऐसी अभिव्यक्ति के कारण अपने स्पष्ट और मुंह पर बोलने वाले स्वभाव के लिए पहचाने जानेवाले लाभशंकर ठाकर ने कहा: `माफ कीजिए, मैं आपका उपचार करने के लिए तैयार नहीं हूं. जिसे मेरी विधा में और मुझमें श्रद्धा नहीं है, उनका अनिच्छा से उपचार नहीं करना चाहिए. आप अपनी पत्नी के दुराग्रह के कारण भले यहां आ गए हों लेकिन मैं आपको ऐसे आग्रह से मुक्त करता हूं. आप जा सकते हैं.’

फिर क्या हुआ? आगे बढ़ने से पहले लाभशंकर ठाकर के स्पष्ट बोलने के (और उग्र) स्वभाव का एक किस्सा बताने का मन कर रहा है. ज्ञानपीठ पुस्कार विजेता रघुवीर चौधरी बहुत उच्च श्रेणी के साहित्यकार थे. लाभशंकर जी की तरह ही रघुवीर भाई भी स्पष्टवक्ता –उग्र स्वभाव के थे. एक बार द्वारिका में गुजराती साहित्य परिषद का अधिवेश था (दशकों पहले की बात है-छठें सातवें दशक की) तब ये दोनों महान साहित्यकार किसी मुद्दे पर झगड़ा कर बैठे और दोनों के बीच हाथापाई हो गई. हाथापाई में एक महानुभाव ने दूसरे की शर्ट फाड दी. (किसने किसकी फाडी यह तो नहीं पता लेकिन यह किस्सा रघुवीरभाई ने तो लिखा ही है, शायद विनोद भट्ट ने भी लिखा है. शायद रघुवीरभाई ने लाभशंकर जी की शर्ट फाडी थी. भूलचूक माफ करें.) अहमदाबाद लौटने के बाद दोनों साहित्यकारों ने मां सरस्वती के दिए आशीर्वाद को शोभा दे इस तरह से एक-दूसरे से माफी मांगकर हमेशा के लिए संधि कर ली. एक बताने का लालच मैं नहीं रोक पा रहा हूँ. उग्र स्वभाव के लिए विख्यात दोनों महान साहित्यकारों के इस पक्ष का परिचय मुझे कभी नहीं हुआ. दोनों ने ही मेरी युवावस्था लेकर हमेशा खूब प्रेम और स्नेह दिया है और उनके पुत्र की उम्र का-हर तरह से जूनियर होने के बावजूद, बहुत आदर भी दिया है.

हं…..तो लाभशंकर ठाकर ने वकीलसाहब से जाने के लिए कह दिया. यह सुनकर पति-पत्नी हतप्रभ हो गए. वकीलसाहब की पत्नी ने कहा:`पर वैद्यराज! मैने इन्हें किसी तरह बड़ी कठिनाई से तैयार किया है.’

`इसीलिए तो बहन, इनका उपचार करने का कोई अर्थ नहीं है.’

`वैद्यराज! मैं भी तैयार हुआ हूं. आपकी दवा करने में मुझे कोई आपत्ति नहीं है.’

`लेकिन मुझे आपत्ति है. आप जा सकते हैं.’

`आप तो गजब हैं वैद्यराज, हम आपकी फीस देने को तैयार हैं, दवा के पैसे देने को तैयार हैं, फिर क्या परेशानी है?’

`आपको श्रद्धा नहीं है, ये परेशानी है. आप जब पूरी तरह से चिकित्सक के वश में हों तो ही आपकी दवा हो सकती है. आपको सचमुच जब आयुर्वेदिक उपचार करने का मन हो तभी आइएगा. रोग का उपचार करना मेरा काम है.’

`पर वैद्यराज! वह तो आपकी दवा करेगी. नींद की गोलियों से तो ऊब चुके हैं. आपको दवा करनी ही पड़ेगी. कितनी आशाएं लेकर आपके पास आए हैं.’

`ये तो ठीक है बहन! लेकिन जब तक रोगी के मन में श्रद्धा नहीं होगी तब तक उपचार सफल नहीं होगा.’

लंबी झिकझिक के बाद उन्हें जाना पड़ा. जाते जाते वकीलसाहब कहते गए:`आपकी बात तो सही है. बिना श्रद्धा के दवा करने का कोई अर्थ नहीं है.’

वकीलसाहब बाहर निकल गए. उनकी पत्नी अभी केबिन में ही थीं. वे रुआंसी होकर बोली:`वैद्यराज! अब मैं क्या करूं? मुझे आप पर बड़ी श्रद्धा है. आपने दवा दी होती अच्छा होता.’

लाभशंकरजी कहते हैं:`आप चिंता न करें. वकीलसाहब एक बार स्वेच्छा से यहां आएंगे. उस समय मैं ज़रूर दवा करूंगा.’

पूरा किस्सा विस्तार से पढ़ने के बाद लाभशंकर ठाकर के इन शब्दों को ध्यान से पढ़कर मन में उतार लीजिएगा:`आयुर्वेद केवल उपचारशास्त्र या चिकित्साशास्त्र नहीं है. उसे किसी ने जीवन शास्त्र भी कहा है. उपचार की सफलता केवल औषधि पर निर्भर नहीं है. सफल उपचार में वैद्य, औषधि, अनुचर (कंपाउंडर, नर्स) और रोगी-इन चारों में निश्चित गुणों की अपेक्षा रहती है. महर्षि चरक ने सूत्रस्थान में `खड्डाक चतुष्पाद’ नामक प्रकरण (नवें) में यह लिखा है. `खुड्डाक’ का अर्थ है `छोटे’. उसमें चार छोटे मुद्दे दिए गए हैं जो छोटे हैं किंतु अतिमहत्वपूर्ण हैं. इस प्रकरण में चरक ने चिकित्सा के चार अंग गिनाए हैं.

१. स्मृति: मरीज़ की स्मरणशक्ति ठीक होनी चाहिए जिससे वह अपना इतिहास ठीक से बता सके. उसी प्रकार से पथ्य अपथ्य (क्या खान है और किसका परहेज करना है) तथा औषधि सेवन के बारे में सूचनाओं को याद रखकर उनका कड़ाई से पालन कर सके. इसके लिए ही स्मृतिबल आवश्यक है. मरीज़ में इसकी कमी हो तो उसके साथ या बुजुर्गों में ये होना ज़रूरी है.

२. निर्देशकारिता: चिकित्सक ने जो निर्देश, आदेश या सूचनाएं दी हों, उसका मरीज़ को पूरी तरह से पालन करना चाहिए. यदि वह वैद्य की सूचनाओं को महत्व ही नहीं देगा, पथ्य अपथ्य का तथा औषधि सेवन का ध्यान नहीं रखेगा तो चिकित्सा सफल नहीं होगी. आचार्य वाग्भट ने इस संदर्भ में `भिषग्‌ वश्य’ विशेषण का उपयोग किया है. यानी रोगी को वैद्य के वश में होकर आचरण करना चाहिए, यह गुण अत्यंत महत्वपूर्ण है. यदि मरीज़ की चिकित्सापद्धति में और चिकित्सा में पूरी श्रद्धा ही नहीं होगी तो वह ठीक से ध्यानपूर्वक उपचार नहीं करवाएगा. खाने पीने में छूट लेगा. समय से दवा लेना चूक जाएगा. ऐसे मरीज़ों का उपचार करने में चिकित्सक को उत्साह नहीं दिखाना चाहिए. मरीज़ के श्रद्धावनत होने के बाद ही उपचार करना चाहिए. अन्यथा श्रद्धा के अभाव में ऐसे मरीज़ चिकित्सा पूर्ण होने से पहले ही बीच में छोड़ देते हैं. उपचार के दौरान भी वे निरंतर निगेटिव ऑटो सजेशन्स किया करते हैं और ऐसा मनोभाव आरोग्य प्राप्ति के लिए प्रतिकूल बन जाता है.

३. अभीरूत्व: मरीज़ को डरपोक नहीं होना चाहिए. कई लोग दवाओं से डरते हैं. `नहीं, वैद्यराज! मुझे रेच की दवाएं दवाएं मत दीजिएगा. जुलाब होगा तो कमजोरी आ जाएगी.’ `ये दवा मेरे लिए गरम पड़ेगी.’ `ऐसी कठिन परहेजी से मुझे अशक्ति आ जाएगी’ ऐसी बातें मरीज़ की भीरुता प्रदर्शित करती हैं. ऐसे डरपोक मरीज़ भी लगातार निगेटिव ऑटोसजेशन्स करते रहते हैं. ऐसे मरीज़ों का उपचार सफल होने की संभावना ना के बराबर हैं.

४. ज्ञापकत्व: खुद को जो कुछ भी हो रहा है उसे स्पष्ट रूप से व्यक्त कर सकनेवाला मरीज़ होना चाहिए. कई मरीज़ `प्रदाह’ और `वेदना’ को एक ही भाषा में व्यक्त करते हैं. दोनों के बीच भेद नहीं कर पाते.

इस तरह से आयुर्वेद में अपने महर्षियों-आयुर्वेदाचार्यों ने चिकित्सा के साथ ऐसे अनेक छोटे छोटे विषयों का सूक्ष्मता से विचार किया है जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती.

ज्ञापकत्व की महत्ता के बारे में बात करते करते लाभशंकरजी ने एक अत्यंत महत्वपूर्ण बात भी कही है:`मरीज़ से प्राप्त होनेवाली जानकारी को चिकित्सक द्वारा प्रति प्रश्न पूछकर स्पष्ट कर लेना चाहिए. आयुर्वेद में निदान तीन परीक्षणों से होता है. दर्शन, स्पर्श और प्रश्न. नाडी परीक्षा का महत्व आयुर्वेद के मूल ग्रंथों में बिलकुल नहीं है. मैं नाड़ी परीक्षा का हिमायती नहीं हूँ, नाड़ी परीक्षा में मुझे विश्वास भी नहीं है, मैं कभी भी निदान के लिए नाड़ी परीक्षण नहीं करता. मरीज़ को देखने से, उसके पीड़ादायक या सूजन युक्त शरीर के अंग को स्पर्श करने से तथा प्रश्न परीक्षा से निदान किया जा सकता है. इस प्रश्न परीक्षा के लिए `ज्ञापकत्व’ का काफी महत्व होता है.

फिर उस वकील साहब की चिकित्सा का क्या हुआ?

आठेक दिन बाद वे आए. साथ में उनकी पत्नी भी थीं. बोले: `निश्चय के साथ ही श्रद्धा से आया हूँ.’

वकील साहब की अनिद्रा-इन्सोम्निया के रोग का निदान कर रहे वैद्य `पुनर्वसु’ ने बताया कि उनकी प्रकृति में वायु की मात्रा अधिक थी. उन्हें कब्ज भी रहा करती थी. इसके अलावा रोज़ाना ३-४ पैकेट सिगरेट पीते थे. वैद्यराज ने सूर्यास्त के बाद सिगरेट पीना बंद कराया. इसके कारण डेढ़ पैकेट सिगरेट कम हो गई. चाय भी दो बार से अधिक नहीं पीनी थी. उपचार में रोज रात में मात्राबस्ति लेने का सुझाव दिया. (`बस्ति’ के बारे में आगे जानेंगे). हर दिन रात में बस्ति नियमित लेना था. एक महीने तक.

शाम के आहार में दही-प्याज का रायता खाना था. (कई आयुर्वेदाचार्य कहते हैं कि शाम/रात को दही नहीं खानी चाहिए. तुंडे तुंडे मतिर्भिन्ना. जिसकी जैसी प्रकृति, वैसा उसका उपचार). भोजन करने के घंटे भर बाद डेढ़ चम्मच `अश्वगंधारिष्ट’ थोड़ा पानी डालकर पीना था. दोपहर तथा रात में-दोनों समय.

सात दिन बाद फिर से वकीलसाहब मिलने आए. पहले से थोड़ा ठीक लग रहा था. सात दिन में एक दिन ऐसा भी आया जब गोली के बिना ही नींद आ गई. अन्य दिनों पर रात में भोजन करने के बाद और बस्ति लेने के बाद नींद तो आती थी लेकिन कुछ घंटे बाद उड़ जाती. इसीलिए मध्य रात्रि में गोली लेनी पड़ती थी.

दूसरे सप्ताह में आगे का उपचार जारी रखकर दो पुडिया नई शामिल की गई. अश्वगंधा का चूर्ण पांच ग्राम, पिप्पली मूल का चूर्ण दो ग्राम तथा जटामानसी का चूर्ण तीन रत्ती-ये सब मिलाकर सुबह और शाम को गर्म-मीठे दूध में मिलाकर पी जाना चाहिए. यह उपचार और दो सप्ताह तक करने के बाद अनिद्रा की शिकायत में उल्लेखनीय लाभ का अनुभव हुआ.

इसी तरह से एक महीना उपचार करने के बाद बस्तिप्रयोग बंद किया. अब सप्ताह में कई दिन ऐसे आते थे जिसमें सारी रात लगातार नींद आती, बीच बीच में नींद नहीं उडती थी.

महीने भर बाद एक और सूचना दी गई. शाम को कोर्ट से आने के बाद पूरे शरीर पर महानारायण तेल की मालिश करनी होती. फिर गर्म पानी से स्नान करना होता. यह शाम का नियमित क्रम बना दिया गया.

कुल तीन महीने बीतने के बाद लगातार ऐसे दिन बीतने लगे कि जिसमें नींद की गोली बिलकुल नहीं लेनी पड़ी. दवा में भी अब दूध के साथ ली जानेवाली पुडिया बंद करवा दी गई. रात में केवल `अश्वगंधारिष्ट’ डेढ़ चम्मच पीना था. दोपहर में पीना बंद करवा दिया. प्याज-दही का उपयोग यहां चालू था. तेल मालिश और स्नान भी जारी था. वकील साहब का वजन चार किलो बढ़ा. सिगरेट तो उन्होंने सूर्यास्त के बाद पीनी बंद ही कर दी थी, लेकिन दिन के दौरान एक पैकेट से अधिक सिगरेट नहीं पीने का निश्चय उन्होंने खुद किया था.

इस तरह अनिद्रा की शिकायत से वे मुक्त हुए थे. कभी रात में अश्वगंधारिष्ट नहीं लेते तब भी नींद आ ही जाती थी.

बस्ति

आयुर्वेद में बस्ति के प्रयोग का काफी महत्व है. एनिमा अलग बात है. यहॉं योगग्राम में जरूरी होने पर विभिन्न विकारों के लिए अलग अलग औषधियुक्त बस्ति दी जाती है. और जिन्हें आवश्यक हो उन्हें एनीमा भी दिया जाता है.

एनिमा से काफी लोग परिचित होंगे. बस्ति से काफी कम लोगों का परिचय होगा. लाभशंकर ठाकर के अनुसार बॉवेलवॉश करने के लिए जो एनिमा दिया जाता है उसमें साबुन वाला पानी भी मिलाया जाता है जो आयुर्वेद की दृष्टि से उचित नहीं है. साबुन रुक्ष होता है जिससे वायु बढ़ जाती है इसीलिए एनिमा में साबुन का उपयोग बिलकुल नहीं करना चाहिए.

लाभशंकर जी के अनुसार जिनका कफ बढ़ जाता है उन्हें शुद्धि के लिए वमन (उल्टी) कराई जाती है. जिनका पित्त बढ़ गया हो, उन्हें विरेचन (त्रिफला जैसे चूर्ण द्वारा या लैक्सेटिव द्वारा रेच देना) कराया जाता है. जिनकी वायु बढ़ गई हो, उन्हें बस्ति दी जाती है. ये तीनों क्रियाएँ शरीर को दोषमुक्त करनेवाली, शुद्ध करनेवाली हैं. ऐसे शोधन का चिकित्सा में विशेष महत्व है.

बस्तिक्रिया यानी क्या?

यह क्रिया वायु की शुद्धि के लिए की जाती है. मलमार्ग द्वारा औषधि सिद्ध, तेल, घी, क्वाथ,क्षीर इत्यादि का एनिमा देने का नाम बस्तिक्रिया है. बस्तिक्रिया का क्रिया की साम्यता तक ही एनिमा से संबंध है, वर्ना बस्तिक्रिया आयुर्वेद की एक अपूर्व, अनन्य परिकल्पना है.

बस्तिक्रिया वायु की शुद्धि करता है अर्थात वह वायु को शरीर से बाहर निकालती है.

वायु की उत्पत्ति आंत में होती है. नाभि के नीचे का भाग वायु का मुख्य केंद्र है. यहां से यदि वायु कम होती है तो सारे शरीर से उसका प्रकोप कम हो जाता है. बस्ति क्रिया वायु के केंद्र स्थान पर अटैक करती है और वायु का अनुलोमन करके उत्तर परिणाम देती है. बस्तिक्रिया मल और वायु दोनों का अनुलोमन करती है. आयुर्वेद में बस्ति वस्तुत: वातदोष की शुद्धि के लिए की जानेवाली क्रिया है.

ये सारी बात लाभशंकरजी ने कही है.

बस्ति किसी दी जानी चाहिए? इसके लिए आयुर्वेद के ग्रंथों में बहुत ही विस्तार से और व्यवस्थित रूप से निरूपण किया गया है. बस्ति के प्रकार, बस्ति के लिए उपयोग में लाए जानेवाले द्रव्य (मेद घटाना हो तो कुछ द्रव्य, डायबिटीज़ के लिए अन्य इत्यादि) और बस्ति देने की विधि इत्यादि का काफी महत्वपूर्ण ज्ञान हमारे प्राचीन लोगों के पास था. इस प्रयोग से जरा भी नुकसान नहीं होता. यह प्रयोग घर बैठे सरलता से किया जा सकता है.

जैसे एनिमा लेने का साधन केमिस्ट-फार्मासिस्ट की दुकान पर मिलता है, उसी प्रकार से बस्ति के लिए ग्लिसराइज्ड सिरिंज (पिचकारी) नामक दो-तीन आउंस माप का साधन खरीदें. ऐसी सिरिंज कांच, प्लास्टिक तथा धातु की भी आती है. इस प्रयोग में कम मात्रा में स्नेह द्रव्य (तेल/एरंडी का तेल) का उपयोग होता है और उसे `मात्राबस्ति’ नाम दिया गया है.

योगग्राम में जो विविध प्रकार की बस्ति दी जाती है उसमें किस बस्ति में कौन सी औषधियां डाली जाती हैं उसकी जानकारी मेरे पास नहीं है. लाभशंकर ठाकर ने इन जनरल `मात्राबस्ति’ की जानकारी दी है.

सबसे पहले `महानारायण तेल’ को हल्का गर्म करके दो से तीन आउंस मात्रा पिचकारी में खींच लेनी चाहिए. फिर उसमें से तीन-चार बूंद निकाल देनी चाहिए ताकि पिचकारी से हवा निकल जाय. अब, जिसे पिचकारी देनी हो उसे बाएँ करवट लिटाकर, मल मार्ग में पिचकारी की छोटी नलिका को डालकर बस्ति दे देनी चाहिए.

पिचकारी देने का समय रात में भोजन करने के घंटे दो घंटे बाद होता है. योगग्राम में एनिमा सुबह पांच बजे और बस्ति दोपहर के भोजन के एक-दो घंटे बाद, दो से पांच के बीच दी जाती है, इतना मुझे पता चला है.

पिचकारी लेने के बाद मरीज़ को चिंता करने जैसा कुछ नहीं होता. शौच लगे तो मलशुद्धि के लिए जाना चाहिए. अन्यथा सुबह मल शुद्धि के लिए जाना पड़ेगा. सुबह भी नहीं जाना पडता है तो चिंता करने की कोई बात नहीं है. सतर्कता के लिए रात में सोते समय या दिन के दौरान एडल्ट डायपर पहन कर रखना अच्छा होता है.

बस्ति में डाली गई औषधियां आंत द्वारा सोखकर सीधे शरीर में प्रवेश करती हैं. इस तरह से प्रतिदिन रात में मात्राबस्ति का प्रयेग आवश्यकता के अनुसार करना चाहिए-पंद्रह दिन, महीना या दो महीना या उससे अधिक समय में किया जा सकता है, ऐसा वैद्य `पुनर्वसु’ का कहना है. (एनिमा का प्रयोग अत्यंत सीमित रूप से किया जाना चाहिए, बार बार नहीं).

महानारायण तेल के बदले देशी एरंडी के तेल का भी उपयोग किया जा सकता है और तेल कर्भ करने के लिए तेल की बोतल को गर्म पानी में कुछ देर रखना चाहिए. थोड़ा सा गर्म हो जाना ही पर्याप्त है. अधिक गर्म तेल का उपयोग नहीं करना चाहिए.
इस प्रयोग से जुलाब नहीं होता. एरंडी का तेल पीने से जैसा असर होता है वैसा असर बस्ति द्वारा एरंडी का तेल लेने से नहीं होता. बस्ति द्वारा एरंडी का तेल लेने से मल-वायु नीचे उतरती है, उसका अनुलोमन होता है.

`बस्ति’ शब्द कहां से आया है. संस्कृत में `बस्ति’ का अर्थ होता है `मूत्राशय’. प्राचीन काल में सिरिंज या पिचकारी जैसे साधन नहीं थे तब मृतप्राणियों के मूत्राशय का उपयोग किया जाता था. गुब्बारे जैसे इस मूत्राशय में द्रव्य भरकर यह क्रिया की जाती थी. इस तरह से साधन के रूप में प्रयुक्त बस्ति के कारण ही इस क्रिया का नाम बस्तिक्रिया पड़ गया.

अनेक विकारों-रोगों के लिए बस्ति अचूक इलाज है. अनिद्रा के मरीजों के लिए तो बहुत ही लाभकारी है. लाभशंकर जी ने वकील साहब को जो उपचार सुझाए थे उसमें से एक था बस्तिप्रयोग.

महर्षि चरक ने शरीर के तीन उपस्तंभ गिनाए हैं: आहार, निद्रा और ब्रह्मचर्य (ब्रह्मचर्य यानी सेक्स से दूर रहना चाहिए ऐसा नहीं है बल्कि उस संबंध में संयमित रहना तथा जीवन की अन्य अनेक क्रियाओं में कई करणीय और अकरणीय बातों का पालन करना ब्रह्मचर्य की मूल व्याख्या है).

ऐसे तो नींद शरीर का अनिवार्य आधार है. जिन्हें स्वाभाविक रूप से ठीक से नींद नहीं मिलती है, उनके शरीर की स्थिरता डगमगा जाती है. `स्थिरता’ कफ का गुण है. कफ स्निग्ध और गुरु गुण रखता है. शरीर से यह गुण घट जाने पर रुक्षता बढती है, चमडी ढीली होने गती है. आंत की श्लेष्म त्वचा (म्यूकस मेंब्रेन) यदि ठीक से स्निग्ध हो तो उसके संकुचन और प्रसरण की क्रिया सामान्य रहती है जिसके कारण आहार-रस के शोषण का, पाचन का तथा मल विसर्जन का काम ठीक से चलता है. लेकिन यदि यह श्लेष्म त्वचा रुक्ष हो जाती है तो ये सारी क्रियाएँ मंद हो जाती हैं. परिणामस्वरूप अनिद्रा के रोगी का पाचनतंत्र बिगड जाता है, भूख मर जाती है, कब्ज की शिकायत रहती है. कब्ज अनेक रोगों का मूल बन जाती है. कब्ज के कारण वायु का अनुलोमन नहीं होता और ये वायु अवरुद्ध होकर अनेक विकार पैदा करती है.

अनिद्रा के चलते पर्याप्त नींद नहीं मिलने के कारण, मनुष्य में अस्थिरता-चंचलता प्रवेश करती है. यह चंचलता वायु का गुण है. यह बढ़ जाने से हाथ कांपना, पैर घसीटने से लेकर मन और ज्ञान तंतुओं की अस्थिरता पैदा होती है.
अनिद्रा या अपर्याप्त नींद को या विघ्न युक्त नींद को कभी भी हल्के से नहीं लेना चाहिए. ऊपरी तौर पर अधिक गंभीर नहीं लगनेवाले इस विकार के कारण शरीर अनेक रोगों का घर बन जाता है.

लाभशंकर ठाकर अद्भुत वैद्य थे. मनुष्ट तो अद्भुत थे ही. कवि भी लाजवाब थे. उनका एक काव्य मैने १९७८-७९ के दौरान मुंबई दूरदर्शन द्वारा आयोजित कवि सम्मेलन में सुना था जिसका संचालन उमाशंकर जोशी ने किया था. वर्षों तक यह कविता मुझे कंठस्थ थी. उसकी अनेक पंक्तियां आज भी मुझे याद हैं. लेकिन यहॉं इस कविता का मैने यहां पर हिन्दी अनुवाद दिया है.

तो आज का लेख पूरा करते करते प्रस्तुत है वैद्य `पुनर्वसु’ को भुला देनवाली कवि लाभशंकर ठाकर की एक अमर रचना:

आवाज़ खोदी नहीं जा सकती
और उठाया नहीं जा सकता मौन.

हे विप्लवखोर मित्रों!
अपनी यायावर खोपड़ियों को
हम गाड़ सकते नहीं
और अपनी धूसर चिंताओं को
हम सिल भी नहीं सकते.

तो
सफेद हंस समान अपने सपनों को
प्लावित करने हेतु
कहां तक दुलार करेंगे
इस ऊसर भूमि की कंटीली झाड़ियों का?

अपनी ऑंखों की धूमिलता का लाभ लेकर
वृक्ष भी उड़ने को आतुर हैं
किंतु यह भी क्या सत्य नहीं है
कि ऑंखें देकर हमें छला गया है?

वागीश्वरी के नेत्रसरोवर से
अंजुली भर पानी पीकर
फिर काम पर लगे
क्लांत हो चुके मित्रो!
सचमुच
आवाज़ खोदी नहीं जा सकती
और उठाया नहीं जा सकता मौन.

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