गुड मॉर्निंग- सौरभ शाह
(मुंबई समाचार, बुधवार – २८ नवंबर २०१८)
मार्क्सवादियों या वामपंथियों या सेकुलरों के रस्मोरिवाजों को यदि अच्छी तरह से समझना है तो आपको ताजा इतिहास के सिर्फ दो उदाहरणों का अध्ययन करना चाहिए. एक निर्भया केस और दूसरा किस्सा है अरविंद केजरीवाल का.
मार्क्सवादियों को जन्म से ही ये तालीम मिलती है कि अराजकता फैलाओ. उसे वे लोग `समाज में परिवर्तन’ लाने की प्रक्रिया का सुंदर लेबल चिपका देते हैं. अराजकता फैलाने के लिए समाज में फूट डालनी पडती है. समाज में विभाजन पैदा करने के लिए लोगों में असंतोष का भाव जगाना पडता है और ऐसी भावना निर्मित करने के लिए लोगों में अन्यायबोध जागृत करना पडता है.
मैं रोज के दो सौ रूपए कमा कर सौ रूपए में दो समय भर पेट भोजन करके बाकी के सौ रूपए बचाकर संतुष्टि भरा जीवन जी रहा होता हूं तब कोई वामपंथी-साम्यवादी आकर मेरे कान में जहर घोलकर जाता है कि उस उद्योगपति को देखो, अपनी बेटी की शादी में हजार-हजार रूपए का पान मेहमानों को खिलाएगा जिसे पांच मिनट में चबाकर वे थूक देंगे. ये सारी शानोशौकत किस हिसाब से है? तुम जैसों का शोषण करके, तुमसे अन्याय करके ये सारी कमाई की है. लाल सलाम की तुलना में अर्बन नक्सलियों की ऐसी दलील तुरंत आपके गले उतर जाएगी. मैं `अन्याय’ `अन्याय’ की दुहाई देकर अन्य हजारों आंदोलनकारियों की पंगत में जाकर बैठ जाऊंगा और न लेना न देना, उस उद्योगपति की रिफाइनरी के विस्तार की योजना में बाधा डालने के लिए अपनी बांहें चढा लूंगा. देश के विकास का जो होना है सो हो, मैं तो अपने ऊपर हुए `अन्याय’ का बदला लेकर रहूंगा!
पढने में यह बात बेवकूफी भरी और हास्यास्पद लगती है. है भी, लेकिन इस देश में यही होता आया है. यहीं नहीं, ब्रिटेन के खदान मजदूरों से लेकर फ्रांस के एयरलाइन्स वर्कर्स तक के सभी लोगों को उकसा कर वामपंथी-मार्क्सवादी उन देशों की आर्थिक परिस्थिति को बिगाडने की कोशिश करते रहे हैं. एक जमाने में हमारे यहां मेधा पाटकर नामक महिला नर्मदा योजना की राह मे रोडे अटकाया करती थी जिसे विदेश से फंडिंग पानेवाली एनजीओ का समर्थन होता था और उस समर्थन के सहारे वे सुप्रीम कोर्ट में जा-जाकर नर्मदा योजना को लंबा खींचते गए. मोदी ने आकर छह महीने में ही एनजीओ की बहनजीयों की अक्ल ठिकाने पर ला दी, उनकी `सेवा संस्था’ के दरवाजों पर ताले लगा दिए.
मार्क्सवादी, नक्सलवादी, वामपंथी, साम्यवादी, सेकुलरवादी इत्यादि सारे वादी उसी गटर के कॉक्रोच हैं. तिलचट्टों की प्रजातियां अलग अलग हो सकती हैं लेकिन उनकी प्रकृति तो समान ही रहती है, यही हाल अलगाववादियों का होता है. और पलट कर वे लोग अपनी इस तोडफोड को `क्रांति’ का नाम देते रहते हैं.
अरविंद केजरीवाल ऐसी ही `क्रांति’ करने आए थे. हमारी स्कूल की चौथी कक्षा में मॉनिटर के चुनाव के समय एक विद्यार्थी ने सभी को प्रॉमिस किया कि मुझे अगर मॉनिटर बनाओगे तो मैं हर शनिवार को सारी क्लास को मुफ्त पिपरमिंट खिलाऊंगा. चुनाव से पहले उसने पार्ले की एक एक ओरेंज पिपरमिंट दी भी थी. वह चुना गया. दूसरे सप्ताह उसने टालमटोल किया. तीसरे सप्ताह वह एबसेंट रहा. चौथे शनिवार को स्कूल छूटने के बाद वह जल्दी जल्दी बस्ता उठाकर घर जाना चाहता था, तभी हम सभी ने घेर कर आधे घंटे तक उसकी धुनाई की थी. उसके बाद सारे वर्ष हम हर शनिवार को उस लडके पर हाथ साफ करने की प्रैक्टिस करते रहे.
वही लडका बडा होकर अरविंद केजरीवाल बना. दिल्ली विधानसभा चुनाव से पहले उसने मतदाताओं से वादा किया था: मुझे चुनेंगे तो मैं आपको बिजली मुफ्त दूंगा, पानी मुफ्त दूंगा, शिक्षा मुफ्त दूंगा, जो कुछ भी चाहिए वह सब मुफ्त दूंगा. मतदाताओं ने उसे जिताया, लेकिन एक भी प्रॉमिस उसने नहीं निभाया इसीलिए रह रहक कर उसका स्याही से कभी मुंह काला किया जाता है, कभी कोई उसे थप्पड लगा जाता है, कभी चप्पल चप्पल से फटकारा जाता है, कभी मिर्ची का पावडर उसकी आंखों में डाला जाता है.
आपको पता है कि दिल्ली में प्रदूषण का होहल्ला इस केजरीवाल के आने के बाद ही खडा हुआ है? तीन-चार साल पहले ऐसा कोई होहल्ला नहीं था. केजरीवाल ने अराजकता फैलाने के लिए ये प्रचार शुरू किया जिसमें सबसे बडा प्रचार दिल्ली के प्रदूषण का है. प्रदूषित हवा हर जगह है. सारी दुनिया में है. वर्षों से है. न्यूयॉर्क इत्यादि की प्रदूषित हवा के उल्लेख हॉलिवूड की फिल्मों में तथा वहां के साहित्य में आपको पढने के लिए मिल जाएगा. लंदन जिसके दोनों किनारों पर बसा है वह थेम्स नदी गटर बन गई थी. केजरीवाल ने सम-विषम नंबर की गाडियों और अन्य कई तरह के प्रचार करके दिल्ली को ऐसा बदनाम कर दिया कि आज की तारीख में आप यूट्यूब पर भारत के बारे में टॉप-टेन- फिफ्टीन बातों जैसा कोई वीडियो सर्च करके देखेंगे तो उसमें सबसे पहले दिल्ली के प्रदूषण का उल्लेख देखने को मिलेगा. दिल्ली की प्रदूषित हवा में एक दिन जीना यानी रोज की पचास सिगरेट पीना, ऐसा कुप्रचार केजरीवाल के कारण सारी दुनिया में हुआ है. दिल्ली में ही नहीं, भारत में भी अनेक जगहों पर हवा प्रदूषित है. मुंबई से भरूच की ओर जाएंगे तो हायवे पर आपकी कार का कांच बंद होने के बावजूद आपको पता चल जाएगा कि वापी आ गया, ये अंकलेश्वर आ गया- इतनी प्रदूषित हवा वहां के उद्योगों के कारण है. ये तो होगा ही. दुनिया में ऐसा हर जगह होता है और क्रमश: इलाज भी होगा ही, लेकिन दिल्ली जितनी बदनामी दुनिया के किसी भी शहर की नहीं हुई- ऑल थैंक्स टू अनार्किस्ट केजरीवाल
और दिल्ली की बदनामी के लिए दूसरी जो बात ताजा इतिहास में जिम्मेदार हुई है वह है निर्भया केस. दिल्ली ही नहीं, सारे भारत की बदनामी की गई. भारत मानो बलात्कारियों का देश हो ऐसी छाप इंटरनेशनल मीडिया के लिए हमने खडी की. हमने यानी हमनारी मार्क्सवादी मीडिया ने.
भारत की बदनामी करने में ही मार्क्सवादियों को रुचि है. यही उनका ध्येय भी है. हम कहते रहते हैं कि विदेशी मीडिया भारत की बदनामी करती है, भारत के बारे में छोटी छोटी खराब बातों को हद से ज्यादा बडा करके दिखाती है, भारत की सिद्धियों को दबाती है और इसके विपरीत वे अपने देशों की बडी से बडी बुराइयों को भी ढंक कर छोटी मोटी उपलब्धियों को भी हम तक पहुंचाते हैं. विदेशी मीडिया को ऐसा करने के लिए साथ किसका मिलता है? हमारे यहां फॉरेन फंडिंग वाली एनजीओ का और अपने यहां पर (किसी जमाने में) कंधे पर कपडे का थैला लटका कर घूमनेवाले मार्क्सवादी पत्रकारों का.
मीडिया में हमारे पुलिस तंत्र के बारे में, ब्यूरोक्रेसी या सरकारी तंत्र के बारे में, राजनेताओं के बारे में, सामाजिक बुराइयों के बारे में या दो जातियों के बीच के संघर्ष के बारे में जब जब आप न्यूज आयटम्स पढते हैं तब उन सभी समाचारों का स्रोत ये मार्क्सवाद पत्रकार तथा उन्हें आर्थिक मदद करनेवाली एनजीओ हैं ऐसा मान लेना चाहिए. हमारा देश भ्रष्टाचारियों का, अप्रामाणिक लोगों का, असहिष्णुओं का और कुंएं के मेंढकों का देश है, ऐसी छाप बनाने के लिए ये मार्क्सवादी पत्रकार दिन रात उछल उछल कर काम करते रहते हैं. उनके काम के बीच में कोई भी देशप्रेमी हिंदूवादी पत्रकार आता तो उसकी खाल उधेड देते ये लोग और अगर कोई फौलादी पत्रकार निकला और इन लोगों की तलवार से उसकी धज्जियां नहीं उडती हैं तो उसे गांव का बिगडैल मानकर ये लोग साइडलाइन कर देते हैं. भारत की छवि खराब करने में, असली भारत को प्रोजेक्ट नहीं होने देने में और विदेश में भारतियों को सिर झुकाकर जीना पडे ऐसा वातावरण खडा करने में भारत के मार्क्सवादी पिछले ७० वर्ष के दौरान अपनी हर संभव कोशिश कर चुके हैं. बिलकुल निचले स्तर पर उतर कर इन लोगों ने हमारे गौरवपूर्ण इतिहास के साथ छेडछाड करके उस इतिहास को स्वर्ण अक्षरों में लिखनेवाले सावरकर, सरदार, श्यामाप्रसाद, दीनदयाल सहित स्वर्गस्थ तथा अनेक विद्यमान महापुरुषों को हाशिए पर धकेल दिया.
आज की तारीख में भी भारत के मीडिया का बडा हिस्सा मार्क्सवादियों के कब्जे में है या फिर उनके प्रभाव में है. किसी भी जमाने में, किसी भी क्षेत्र में सत्य बोलनेवालों और सच्चा काम करनेवालों की संख्या काफी कम ही रहेगी. दुर्भाग्य से मीडिया में भी ऐसा ही होता है. मेडिकल, शिक्षा, बैंकिंग, मैनेजमेंट इत्यादि दर्जनों क्षेत्रों में सच बोलनेवाले कम हों तो उतना नुकसान नहीं होगा जितना कि मीडिया में सच बोलनेवालों की संख्या कम होने पर होता है. झूठ बोलने, करनेवाले जब मीडिया में छा जाते हैं तब सामान्य नागरिक गुमराह हो जाता है. वह भ्रमित हो जाता है. वह दुविधा में पड जाता है. सच क्या है और झूठ क्या है, यह तय नहीं कर सकता है तब टु बी ऑन सेफर साइड वह जो मानता आया है और अन्य लोग जिस विचारधारा को मानते हैं उससे जुडा रहता है. उसे यह विचार तक नहीं आता है कि वह खुद जिस बात को मानता है या दूसरे लोग जिस बात को मानते हैं, वे बातें तो इन मार्क्सवादियों द्वारा ७० वर्षों तक किए गए प्रचार का परिणाम हैं.
सच पूछिए तो मेरा फ्रस्ट्रेशन ही यही है. इतनी बार समझाने के बावजूद ये पब्लिक समझती क्यों नहीं?
आज का विचार
आलसी पत्नी और समझदार पति यानी…शाम के खाने में खिचडी.
– वॉट्सएप पर पढा हुआ.
एक मिनट!
बका: विराट – अनुष्का ने इटली में विवाह किया, प्रियंका चोपडा निक के साथ जोधपुर में डेस्टिनेशन वेडिंग करनेवाली हैं, रणवीर-दीपिका इटली में शादी करके आए. पका, तू कहां शादी करने की सोच रहा है?
पका: गांव के पंच की बाडी में.