वाराणसी जहां बारंबार आने को मन करता है

गुड मॉर्निंग- सौरभ शाह

(मुंबई समाचार, शनिवार – ५ जनवरी २०१९)

वाराणसी के लिए ऐसा कहा जाता है कि एक बार आप यहां आ जाते हैं तो अपनी आत्मा का एक अंश यहां छोडकर जाते हैं जिसके कारण आपका बार-बार यहां आना होता है- अपने उस अंश से मिलने के लिए.

अपनी आत्मा के उस अंश से मिलने का संयोग फिर एक बार हमारे लिए भी अनायास ही आ गया. अयोध्या में रामजन्मभूमि के दर्शन करके धन्य होकर, व्यथित होकर हमने थर्टी फर्स्ट मनाया. नए वर्ष के नव प्रभात का स्वागत वाराणसी में गंगाजी के दर्शन के साथ करना था.

रामजन्मभूमि की तीर्थयात्रा की चर्चा करते करते हमने अयोध्या छोडी. अयोध्या से वाराणसी का अंतर करीब दो सौ किलोमीटर का है. आप साढे चार घंटे पहुंच सकते हं लेकिन हमें पूरे छह घंटे लगे.

अभी अयोध्या – वाराणसी रूट पर फोर लेन हायवे बन रहा है, इसीलिए जो छोटा हिस्सा बनकर तैयार हुआ है वह चकाचक है लेकिन बाकी का सारा रास्ता बिलकुल ऊबड-खाबड है. साल भर में उसके तैयार हो जाने के बाद यह रास्ता पौने चार- चार घंटे में कट जाएगा.

अयोध्या छोडकर फैजाबाद पार करके सुलतानपुर और जौनपुर होते हुए वाराणसी पहुंचते हैं. मजरूह सुलतानपुरी के कारण सुलतानपुर विख्यात है. मुंबई में रहनेवाले किसी भी मुंबईकर से आप पूछें तो वह जौनपुर जिले में जिसका गांव है ऐसे किसी न किसी हिंदी भाषी को पहचानते होंगे. हम भी जानते हैं. पहली जनवरी को प्रकाशित लेख `पहला सुख है स्वस्थ रहना, दूसरा सुख है मौज करना’ को हमने सुलतानपुर और जौनपुर के बीच का रास्ता काटते हुए लिखा.

देर रात वाराणसी पहुंचकर अगले दिन ब्रह्ममुहूर्त में सुबह-‍ए-बनारस देखने गंगा किनारे अस्सी घाट पर पहुंच गए. तापमान ८ डिग्री सेल्सियस था. दो साल पहले की बनारस यात्रा के समय लिखी वाराणसी डायरी के पांच सप्ताह में विस्तार से इन सारे अनुभवों का वर्णन किया है. एक जनवरी की खुशी मनाने का ये हमारा अनोखा अंदाज था. ईसा के नए वर्ष के पहले दिन की सुबह गंगाजी की आरती का दर्शन हो इससे बडा सौभाग्य और क्या हो सकता है? इस बार की बनारस यात्रा के दौरान दौडभाग करने के बजाय अपने मित्र के गंगा दर्शन करानेवाले फ्लैट में आराम करने और किसी खाने-पीने की जगह पर घूमकर आने का उपक्रम था. दो-ढाई दिन की यात्रा में दौड-भाग क्या करनी. `सुबह-ए-बनारस’ का आनंद लेकर लक्ष्मी टी स्टॉल पर चाय के साथ मलाई-टोस्ट का ब्रेकफास्ट किया. बाहर निकलकर देखा तो मलैयो मिल रही थी. दूध से बननेवाले इस मीठे व्यंजन के बारे में बहुत सुना था. चॉकलेट मूस जैसा गाढापन होता है. बादल या रुई की तरह. ठंडी में ही ये बनती है क्योंकि दूध को सारी रात खुले में रखकर इसका संपर्क ओस से कराना होता है. इसके बाद इसे फेंटा जाता है, शक्कर और केसर मिलाकर, जो झाग बनती है उसे मलैयो कहा जाता है. बडा प्यारा नाम है. खाने में तो और भी प्यारा लगता है. मलाई टोस्ट के अलावा मक्खन टोस्ट (घर का सफेद मक्खन) के साथ गिलास भर गरम दूध का ब्रेकफास्ट करने के कारण पेट बिलकुल तना हुआ था.

फिर भी मलैयो की लालच को नहीं रोक पाए. शरीर में अब तो उबासी लेने की जगह भी नहीं बची थी लेकिन निवास स्थान पर आते समय लंका चौराहे पर केशव तांबूल भंडार देखा. बनारसी पान. अभी सबेरे के आठ ही बजे थे लेकिन बनारसी पान खाए बिना बनारस का ब्रेकफास्ट भला कैसे पूरा हो सकता है. दोनों गलफडों में दो पान रख लिए. बनारसी पान में पान की किस्म से अधिक महत्वपूर्ण होती है पान बनाने की पद्धति. बिलकुल नन्हा सा.

सुपारी का एक ही टुकडा. गुलकंद-खजूर चाहिए तो अलग पत्ते पर अतिरिक्त चूने कत्था के साथ दिया जाता है. मुंबई आते समय दो दर्जन पान यहां के मित्रों के लिए बंधवा लिए.

एक पूरी दोपहर गंगा किनारे एक के बाद एक घाट पर टहल कर बिताई. नाव के मांझी हटताल पर हैं, सरकार द्वारा आरंभ की गई क्रूज के विरोध में. सैकडों नौकाएँ गंगाजी में विहार करने के बजाय किनारे पर लंगर डाले हुए हैं. बडा ही उदास दृश्य है. पांच-छह दिन से हडताल जारी है. सैकडों मांझी – मल्लाहों के परिवार क्या पका कर खा रहे होंगे, पता नहीं. इस मामले में अधिक गहराई में उतरने की जरूरत नहीं है. हमारा हृदय इन तमाम केवट के वारिसों के पक्ष में खडा है.

अस्सी घाट से शुरू करके तुलसी घाट, अहिल्या घाट, हरिश्चंद्र घाट इत्यादि को पार करके हम दशाश्वमेध घाट से बाहर निकल जाते हैं. आगे मणिकर्णिका घाट तक नहीं जाना. थकान लगी है. आज का लिखना बाकी है. पिछली बार तो घाट पर बैठ कर ही लेख लिखा था. इस बार भीड के कारण गंगा किनारे जिस नीरव शांति का आनंद लेते हुए लिखना था, वह मौका नहीं मिला. ताज गैंगीज़ कॉफी शॉप में गए. चाय मंगाई. लेकिन यहां भी शोरशराबा था. देखा तो बार खुला था और दोपहर का समय था इसीलिए बिलकुल खाली भी था. पूछा तो हां कहा. चाय भी वहीं भेज दी गई.

शराब के बार में ग्रे टी पीते पीते लेख लिख कर ईमेल कर दिया. शाम का भोजन दीना चाट में हुआ, टमाटर, चूरा मटर, टिक्की चाट, दही वडा और अंत में गुलाब जामुन.

एक दिन पहलवान की लस्सी भी पी. वैसे, ये पी नहीं जा सकती, इसे चम्मच से खाना पडता है.

सडक दोनों तरफ पहलवान लस्सी की दुकानें हैं. एक तरफ तीन दुकानें हैं, सामने की तरफ एक ही बडी दुकान है. हम सामनेवाली बडी दुकान पर गए थे. बाकी याद न रहे तो देखना चाहिए कि जहां भीड अधिक हो, वही घुस जाइए.

संकटमोचन हनुमानजी के दर्शन किए बिना वाराणसी छोडने का मन नहीं होता. मित्रों के लिए प्रसाद-अनुमान चालीसा और सुंदरकांड की प्रतियॉं लेकर हमने बनारस छोडा. ठंडी में कोहरे के कारण शाम सात बजे उडान भरनेवाली फ्लाइट पांच बजे रिशेड्यूल हो जाया करती है. हम प्रार्थना कर रहे थे कि हे प्रभु वह फ्लाइट डिले न हो और कैंसल भी न हो. क्योंकि उस दिन तीन जनवरी थी. हमें किसी भी कीमत पर मुंबई पहुंचना अनिवार्य था. अगले दिन, चार जनवरी को हमारे लिए रामजी और हनुमानजी तथा श्रीनाथजी की तरह ही आराध्य देव पंचम की २५वीं पुण्यतिथि के निमित्त पुणे में एक विशेष कार्यक्रम था. पुणे की सदाशिव पेठ में स्थित तिलक स्मारक मंदिर में आयोजित आर.डी. बर्मन की स्मृति संध्या को हम मिस नहीं करना चाहते थे. आज का लेख मुंबई-पुर्ण हायवे की सडक यात्रा के दौरान आर.डी. बर्मन के गीत सुनते हुए ही लिखा जा रहा है.

आज का विचार

जो कांग्रेस अभी मध्य प्रदेश में `वंदे मातरम’ पर प्रतिबंध लगा रही है, क्या सचमुच उसने इसी नारे के साथ आजादी की लडाई लडी होगी!

– वॉट्सएप पर पढा हुआ

एक मिनट!

बका: पका, मन में हलचल मची हुई है.

पका: किस बात की?

बका: दिल कहता है कि पिज्जा खाना है

पका: तो इस में हलचल कैसी?

बका: जेब कहती है कि दाबेली ही खानी चाहिए!

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