जिन्हें महल में होना चाहिए वे भगवान अयोध्या में उजाड वीरान, टूटे-फूटे तंबू में रहते हैं

गुड मॉर्निंग- सौरभ शाह

(मुंबई समाचार, शुक्रवार – ४ जनवरी २०१९)

सन १८५३ में कुछ डेढ शताब्दि पहले निर्मोही अखाडा के साधुओं ने बाबरी वाली जगह पर कब्जा करके एक चबूतरा बना दिया जिसके कारण मस्जिद दो भागों में बंट गई. एक भाग में राम चबूतरा के रूप में पहचानी जानेवाली जगह थी जो बाहर का हिस्सा था और हिंदू वहां आकर पूजा-कीर्तन करते थे. अंदर का भाग मस्जिद का था जहां पर नमाज पढी जाती थी. १८८३ में चबूतरे पर मंदिर बनाने की कोशिश हुई लेकिन मुसलमानों के विरोध के कारण उस समय की अंग्रेज सरकार के डिप्टी कमिशनर ने मंदिर निर्माण पर प्रतिबंध लगा दिया. १८८६ में डिस्ट्रिक्ट जज के फैसले में स्पष्ट रूप से कहा गया कि हिंदुओं के लिए पवित्र मानी जानेवाली भूमि पर मस्जिद बनी है इसके बावजूद इस जज ने `यथा स्थिति’ (स्टेटस को) का हुक्म देकर ऐसी व्यवस्था की कि मंदिर का निर्माण न हो. इस अंग्रेज न्यायाधीश के फैसले के बाद इस संबंध में की गई अपील को अन्य अंग्रेज जज ने भी खारिज कर दिया.

१९३६ में सुन्नी वक्फ बोर्ड ने कोर्ट में इस जगह पर अपने हक का दावा किया. और शिया-सुन्नी मुसलमानों के बीच फूट पड गई, क्योंकि शियाओं ने दावा किया था कि मूलत: ये जमीन हमारी है. शियाओ ने सुन्नी दावे को नकारा और उसे चुनौती दी.

दिसंबर १९४९. ये महीना और साल रामजन्मभूमि के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा. अखिल भारतीय रामायण महासभा ने नौ दिन के अखंड रामचरित मानस का पाठ मस्जिद के बाहर किया और उसके बाद २२-२३ दिसंबर की रात को ५०-६० लोगों ने जाकर मस्जिद में सीताराम की मूर्तियॉं स्थापित कर दीं. २३ दिसंबर को अखंड पाठ कर रहे आयोजकों ने लाउडस्पीकर द्वारा घोषणा की कि चमत्कार हो गया है, रामसीता की मूर्तियां स्वयंभू रूप से प्रकट हुई हैं, सभी लोग दर्शन के लिए आएठ, हजारों रामभक्त आने लगे. प्रशासन ने मस्जिद को विवादास्पद जगह बताकर प्रवेश द्वारों से कोई घुस न पाए, ऐसा प्रबंध किया.

तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने आदेश दिया कि सीताराम की मूर्तियां हटा दी जाएं, लेकिन फैजाबाद के डिप्टी कमिशनर के.के. नायर ने डर दिखाया कि ऐसा करने पर हिंदुओं की भावनाएँ आहत होंगी और क्षेत्र की शांति खतरे में पड जाएगी.

६ दिसंबर १९९२ को बाबरी ढांच ध्वस्त हो गया. १९४९ से भी एक दशक पहले से यहां कोई नमाज नहीं पढता था. १९४९ में रामलला की मूर्ति स्थापित होने के बाद यह स्ट्रक्चर ऑफिशियली इस्लाम की इबादत के लिए हराम हो गया. इस प्रकार से यह इमारत मस्जिद नहीं रही. इसके बावजूद ५० वर्ष बाद भी उसे मस्जिद बताते हुए मीडिया ने मुसलमानों की धार्मिक भावना को उकसाया और दुनिया भर में भारत की बदनामी की. सूट बूट पहनकर जर्नलिज्म करनेवाले अंग्रेजों की औलादों जैसे खुद को एलिट माननेवाले पत्रकारों तथा उन्हें पालनेवाले मीडिया हाउसेस का वह जमाना था जो २००२ के गोधरा हिंदू हत्याकांड के बाद प्रतिक्रिया स्वरूप हुए दंगों तक जारी रहा. २०१४ के बाद यदि बाबरी टूटती तो सऊदी अरब ने भी इस घटना की तारीफ की होती.

खैर.

१९४९ में जो मूर्तियां स्थापित की गई उनके दर्शन करने का आनंद भी है, दुख का भाव भी है. जिस जगह पर भगवान रामजी का भव्य विश्वमंदिर होना चाहिए वहां पर केवल अस्थायी तालपत्री की टूटी फूटी छत के नीचे धूल-धूप को सहती रामजी की मूर्ति देखकर ये दोनों ही फीलिंग्स उभरती है.

रामलला का दर्शन करने के लिए आपको कुल पांच जगहों पर बॉडी फ्रिस्किंग से गुजरना पडता है. मोबाइल, चमडे की चीजें, घडी साथ ले जाने की मनाई है. पहले पुलिसवाले और उसके बाद चौकियों में अर्धसैनिक बलों के जवान आपकी जांच करते हैं. जगह जगह पर सीसीटीवी कैमरे लगे हैं. एक ही आदमी के चल सकने जितना मार्ग है. मेरे जैसा आराम से चला जाएगा लेकिन भारी शरीरवाले व्यक्ति को दोनों तरफ लगी जालियों से शायद रगड कर जाना पडे, इतना संकरा मार्ग है. सिर के ऊपर भी जाली है. सीधा मार्ग हो सकता था लेकिन इस जालीवाले मार्ग को भूलभुलैया की तरह टेढा मेढा, आडा-तिरछा बनाया गया है. हर जगह पर अर्धसैनिक बलों के जवान भाई (और कई जगहों पर बहनें भी) युनिफॉर्म पहन कर सतर्क नजरों से सेमी ऑटोमैटिक राइफल के साथ तैनात हैं. बनावट ऐसी है कि इस पिंजरानुमा पगडंडी में प्रवेश करने के बाद आप बाहर नहीं निकल सकते. फायर ब्रिगेड का इंजिन दिखा. जगह जगह जवानों की छावनियां देखीं. जवान आसानी से घूम फिर सकें इसके लिए लोहे के पिंजरेवाली पगडंडी के ऊपर से छोटे छोटे ब्रिज बनाए गए हैं. चारों तरफ का क्षेत्र वीरान- उजाड है. निर्जन है. लंबा चलने के बाद आप अपनी दाईं तरफ करीब ५० फुट के अंतर पर तालपत्री के नीचे एक छोटे से टीले पर विराजमान रामलला का दर्शन करते हैं. भगवान फिर एक बार वनवास भोग रहे हैं ऐसा महसूस होता है. आंखों में खून उतर आता है. जिसे महल जैसे मंदिर में रहना चाहिए था वे उजाड वीरान में फटे तंबू के नीचे बैठे हैं. आंखों से रोष और भावुकता दोनों एक साथ बहती है. सुरक्षाकर्मियों की कृपया से शांतिपूर्वक दर्शन हो गए. पुजारी ने जाली के झरोखे से मुट्ठी भरकर लाचीदाने का प्रसाद दाईं हथेली में रखा जिसे माथे पर चढाकर हम उसी पिंजरानुमा पगडंडी पर आगे चल दिए. प्रवेश और निकास का मार्ग मिलकर कुछ डेढ किलोमीटर का अंतर होगा. बाहर आने के बाद दुकानें ही दुकानें नजर आने लगीं जैसा कि तीर्थस्थानों पर दिखता है. खूब भीड थी. मेले जैसा वातावरण था. रामलला के दर्शन दोपहर १ से ५ के बीच ही खुलता है फिर भी लोगों का प्रवाह कम होने का नाम ही नहीं ले रहा था.

अनेक साधुओं और राम भक्तों ने बलिदान दिया है- रामजन्मभूमि के लिए.

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