मौलिक सर्जक एक तरफ हैं, दूसरी तरफ हैं ऑर्केस्ट्रावाले और मिमिक्री आर्टिस्ट

संडे मॉर्निंग – सौरभ शाह

(मुंबई समाचार, रविवार – १६ सितंबर २०१८)

“इस दुनिया में मौलिक जैसा कुछ नहीं होता. मौलिकता तो मूल स्रोत को छिपाने की कला है और यहां से, वहां से उठा लेने की आदत को चोरी नहीं कहते.

जो लोग उठाईगीर है, यानी जिन्हें `यहां से वहां से उठाने’ की आदत पडी है वे इस तरह के तर्क देकर अपनी चोरी को न्यायसंगत साबित करने की कोशिश करते हैं. कई बार वे लोग `प्रेरणा’ की संकल्पना का गलत तरीके से उपयोग करके कहते हैं कि,`मुझे फलां से `प्रेरणा’ मिली? असलियत तो ये होती है कि उन्होंने फलां में से चोरी की होती है- या फिर डाका डाला होता है. या फिर थोडा यहां से और थोडा वहां से चोरी करने की चतुराई प्रदर्शित करते हैं ताकि कोई यह न पकड सके कि यह माल मूलत: किसका है, कहां से आया है.

प्रेरणा पूरी तरह से एक अलग चीज है. किसी को प्रेमचंद का उपन्यास `निर्मला’ पढकर स्त्री विमर्श पर आधारित उपन्यास लिखने का मन करता है तो इसे प्रेरणा कहा जाएगा. लेकिन `निर्मला’ जैसा ही प्लॉट बनाकर, वैसे ही पात्रों- वातावरण- भाषा का उपयाग करके मूलत: जो जो कथानक और कहानी में मोड आए हैं उसी तरह का तानाबान बुनकर यदि कोई उपन्यास लिखता है तो उसे प्रेरणा नहीं कहेंगे, चोरी कहेंगे.

नाटक-फिल्मवाले ऐसी चोरी कई बार करते रहते हैं. किसी फिलॉसॉफर या चिंतक का कोई अच्छा वाक्य पसंद आ जाता है तो उस सुविचार के लिए मूल रचनाकार को क्रेडिट देने के बजाय वे संवाद लिखते हैं:`मेरी दादी कहा करती थी कि लव मीन्स नेवर हैविंग टू से यू आर सॉरी.’ या फिर:`किसी ने सच ही कहा है कि दिल की बातों में दिलगिरी नहीं होती.’ इस प्रकार की बदमाशी करते समय उन्हें एरिक सेगल या उनके वाक्य का सुंदर अनुवाद करनेवाले कवि उदयन ठक्कर याद तो रहते हैं, लेकिन दूसरे की थाली में हाथ मारकर पेट भरने की आदत लोगों को जन्म से ही पड जाती है.

अमिताभ बच्चन ने अपनी आवाज का कॉपीराइट लिया है. उनकी आवाज की मिमिक्री करके कोई भी व्यक्ति विज्ञापन इत्यादि में उनकी आवाज का उपयोग नहीं कर सकता. भारत में पिछले कुछ वर्षों से संगीत से जुडे कॉपीराइट के कानूनों का पालन कडाई से हो रहा है. आप यदि कोई ऑर्केस्ट्रा का प्रोग्राम करना चाहते हैं या अपने नाटक में फिल्मी गीत बजाना चाहते हैं तो थिएटरवाले आपसे पहले ही अनुमति पत्र मांगते हैं. यह अच्छा ही है. दूसरे की रचनाशीलता पर मलाई खाने के धंधे पर अंकुश लगना ही चाहिए.

लेकिन नाटक-सिनेमा- उपन्यास-कॉलम इ्त्यादि की दुनिया में अंधाधुंध उठाईगिरी चलती रही है. कभी सब्जेक्ट चुरा लिया जाता है, कभी पात्रों की विशेषताओं – गुणों को उठा लिया जाताहै, कभी दमदार वाक्यों-संवादों, कभी मौलिक निरीक्षणों तो कभी बने बनाए प्लॉट्स-सब्जेक्ट्स को ही उठा लिया जाता है. और फिर शरीफ बनकर तर्क दिए जाते हैं कि इस दुनिया में मौलिकता जैसा कुछ होता ही नहीं है.

कई संगीत प्रेमियों को यह खोज निकालने में पैशाचिक आनंद आता है कि हिंदी फिल्म के संगीतकारों ने कहां कहां से धुनें चुराई हैं. हो सकता है, किसी संगीतकार की पांच-दस प्रतिशत धुनें प्रोड्यूसर के कहने से या अन्य कई कारणों से उठाई गई होती हैं. लेकिन इसके अलावा ९०-९५ प्रतिशत धुनों का क्या? ऐसी सदाबहार मौलिक धुनों को अपने ऑर्केस्ट्रा में बजाकर दो पैसे कमानेवाले छोटे छोटे वादकों-संगीत प्रेमियों को उन संगीतकारों का उपकार मानना चाहिए जिनकी रचनाशीलता के कारण आज उनका गुजरबसर चल रहा है. लेकिन उपकार मानने के बजाय ऐसे ऑर्केस्ट्रावाले कहते फिरते हैं कि शंकर-जयकिशन ने फलां धुन को यहां से उठाया, सलिल चौधरी ने वहां से और आर.डी. बर्मन ने अमुक जगह से उठाया. अपनी खुद की कोई ताकत तो है नहीं कि इन संगीतकारों द्वारा निर्मित बाकी की ९०-९५ प्रतिशत मौलिक धुनों के समान कोई धुन बना सकें. और फिर बदनामी दूसरे की करते हैं.

ऐसी मानसिकता रखनेवाले लोग जिंदगीभर ऑर्केस्ट्रावाले ही रहते हैं, मिमिक्री आर्टिस्ट ही रहते हैं. मौलिक सृजन किसे कहा जाता है, इसकी उन्हें खबर ही नहीं है. उसका सृजन कैसे किया जाता है, इसकी तो वे कल्पना तक नहीं कर सकते.

फिल्मों में ही नहीं, नाटकों में, साहित्य में, चित्रकला में, विज्ञान की शोधों की दुनिया में, अखबार में छपते कॉलम्स में, फैशन डिजाइ्निंग के क्षेत्र में, आर्किटेक्चर में, भाषणों में, चिंतन-फिलॉसफी के संसार में- हर जगह पर आपको ऐसे मिमिक्री आर्टिस्ट और ऑर्केस्ट्रावाले देखने को मिल जाएंगे.

एक प्रकार से अच्छा ही है कि हर क्षेत्र में ऐसे उठाईगीर, चोर हैं. उनके होने के कारण ही मौलिक्ता की कद्र होती है, रीयल ओरिजिनल स्टफ की कीमत होती है.

आज की बात

नकल करके सफल होने के बजाय मौलिक सृजन करके विफल होना ज्यादा अच्छा है.

– सैम्युअल जॉन्सन

संडे ह्यूमर

पप्पू: इतनी लंबी और इतनी मोटी घास? विदेशी बीज है क्या?

किसान: घास नहीं, गन्ने की फसल है.

पप्पू: अच्छा, गोलवाला गन्ना?

किसान: हां….

पप्पू: ऐसा लग रहा है कि अभी उसमें गुड नहीं लगा है, कब लगेगा?

किसान: जब आप प्रधानमंत्री बन जाएंगे तब!

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