आयुष्मान होने के लिए भोजन जितना ही महत्व नींद का है – हरिद्वार के योगग्राम में २३ वॉं दिन : सौरभ शाह

(गुड मॉर्निंग: चैत्र शुक्ल सप्तमी, विक्रम संवत २०७९, शनिवार, २३ अप्रैल २०२२)

`दीर्घकालिक अभ्यास, दीर्घकालिक साधना और दीर्घकालिक उपासना के बिना रातों रात कुछ नहीं हो सकता.’ स्वामी रामदेव ने आज योगाभ्यास शिबिर के आरंभ में कहा.

पूरी इंटेंसिटी के साथ, सातत्य से, हंड्रेड पर्सेंट श्रद्धा से जो काम होता है उसके परिणाम सुनहरे आते ही है.

स्वामीजी ने आज फिर एक बार कहा कि`रोग बड़ा नहीं, योग बड़ा है. असुर-राक्षस बड़ा नहीं, तुम बड़े हो, साधना बड़ी है.’

कल स्वामीजी एक जगह अतिथि विशेष के रूप में उद्घाटन करने जानेवाले हैं, इसकी जानकारी मिली है. परसों, यहां से आधे घंटे के अंतर पर स्थित `योगपीठ’ के कॉम्प्लेक्स में शुरू होने जा रहे योगग्राम-निरामय जैसा ही लेकिन उससे तकरीबन दुगुनी क्षमता वाले `पतंजलि वेलनेस सेंटर’ का उद्घाटन होगा. पांच-छह दिन तक स्वामीजी का निवास वहीं होगा.

स्वामीजी ने आज कहा,`योगग्राम-निरामय सनातन संस्कृति का महातीर्थ है, प्रकृति का महातीर्थ है!’

स्वामीजी की इस बात में तनिक भी अतिशयोक्ति नहीं है. उनकी बात सौ प्रतिशत सत्य है. यह महातीर्थ ही है और `पतंजलि’ द्वारा हो रहा उसका काम कल्पनातीत है. पच्चीस-तीस वर्ष की अल्प अवधि में भारत के स्वास्थ्य इत्यादि क्षेत्रों की आबोहवा उन्होंने बदल दी. कभी इस बारे में विस्तार से लिखूंगा.

बापालालभाई लिखते हैं कि प्राकृतिक आवेगों को कभी रोकना नहीं चाहिए. उन्हें अटकाने से कई तरह की भयानक व्याधियां उत्पन्न होती हैं.

बापालाल वैद्य अब भी मेरे मन से जा नहीं रहे हैं. उनकी बातों का जितना चाहिए उतना प्रचार अभी तक नहीं हुआ है ऐसा लगता रहता है. `दिनचर्या’ पुस्तक हमारे भौतिक अस्तित्व के लिए भगवद्‌गीता की आवश्यकता जितनी ही मूल्यवान है. भगवद्गीता अध्यात्मिक और मानसिक मार्गदर्शन का दुनिया का सबसे श्रेष्ठ ग्रंथ है. `दिनचर्या’ में बापालाल वैद्य ने हमारे भौतिक अस्तित्व को संवार कर रखने के लिए सारी बातें इसमें शामिल की हैं. यह छोटा सा ग्रंथ गागर में सागर की तरह है.

बापालालभाई लिखते हैं कि प्राकृतिक आवेगों को कभी रोकना नहीं चाहिए. उन्हें अटकाने से कई तरह की भयानक व्याधियां उत्पन्न होती हैं. किन किन प्राकृतिक आवेगों को नहीं रोकना चाहिए?

– मल और पेशाब का वेद कभी रोकना नहीं चाहिए.

– वीर्य का वेग कभी रोकना नहीं चाहिए.

– अधोवायु (फार्टिंग) का वेग कभी रोकना नहीं चाहिए.

– उल्टी का वेग कभी रोकना नहीं चाहिए.

– छींक का वेग रोकना नहीं चाहिए.

– डकार का वेग कभी रोकना नहीं चाहिए.

– उबासी का वेग नहीं रोकना चाहिए.

– भूख और प्यास का वेग नहीं रोकना चाहिए.

– आंसू आ रहे हों तो उन्हें भी रोकना नहीं चाहिए. रोने से आंखों में सुधार होता है. आंसू के कारण ऑंखों की मैल दूर होती है. (तो अब रोती हुई पुष्पा मिल जाय तो उससे कहें: पुष्पा, आय लव टियर्स).

– तेज नींद आ रही हो तो उसे कभी रोकना नहीं चाहिए.

– सॉंस फूल रही हो तो उसे कभी रोकना नहीं चाहिए.

– थकान लगी हो तब भी मानो थके नहीं हैं ऐसा दिखाते हुए अधिक श्रम नहीं करना चाहिए. ऐसे सभी वेग रोकने से भयानक व्याधियों उत्पन्न होती हैं.

बापालाल वैद्य का कहना है कि विषाद को दूर करने के लिए आयुर्वेद है. इससे निराशा, भय, भीरुता खत्म हो जाती है.

बापालाल वैद्य ने सायकोसोमेटिक रोगों की बात भी एक प्रकरण में लिखी है जिसका शीर्षक है: `विषाद’

१. रोग बढ़ाने वाली बातों में जो कुछ भी है, उसमें पहले नंबर पर विषाद है. अर्थात, रोगों को बढ़ानेवाला विषाद है, ऐसा महर्षि पुनर्वसु ने जोर देकर कहा है.

२. आरोग्य के सभी लक्षणों में अनिर्वेद मुख्य है. निर्वेद यानी विषाद, निराशा, अवसाद, दीनता, शोक, विरक्ति, घृणा, जुगुप्सा. अनिर्वेद यानी मन की प्रसन्नता. उल्लास, उत्साह. जैसे रोग बढ़ानेवाले कारणों में विषाद मुख्य है उसी तरह आरोग्य बढ़ानेवालों या आरोग्य सुधारने वाले कारणों में मन की प्रसन्नता मुख्य है.

३. इस बात के संबंध में कहा गया है कि जो भी पथ्य वस्तुएं हैं, उन सभी में मन की शांति श्रेष्ठ है. मन की शांति यानी मन की निर्विकार स्थिति, स्वस्थचित्तता, मन:तुष्टि-इस जैसा पथ्य और कुछ नहीं.

४. इसके विपरीत आयास जैसा अपथ्य सभी अपथ्यों में पहले क्रमांक पर है. `आयास’ का यहां पर अर्थ है अति श्रम, मेहनत, गधा मजूरी, थककर चूर हो जाने जितनी मेहनत करना. भारी वजन रखी हुई गाड़ी खींचते स्त्री-पुरुष दशकों पहले गांवों में देखने को मिलते थे. उसे आयास कहते हैं. मर्यादा से आगे जाकर काम करना. काम में आनंद नहीं आना, काम खींचना पड़ता है, ऐसा आयास सभी अपथ्यों का मूल है. इसी से अनेक रोग उत्पन्न होते हैं.

इस चार बातों में सारी रोगमीमांसा सामविष्ट हो जाती है.

विषाद के चक्कर में पड़ने पर मनुष्य समाप्त हो जाएगा. अच्छे अच्छे मानसशास्त्री उसके दिमाग का भूत नहीं भगा सकते. विषाद को लेकर अनेक रोग पैदा हुए हैं. विषाद खुद एक महारोग बन गया है.

बापालाल वैद्य का कहना है कि विषाद को दूर करने के लिए आयुर्वेद है. इससे निराशा, भय, भीरुता खत्म हो जाती है. आयुर्वेद रोगों के नाम धुआंधार बोलकर रोगी को नहीं भड़काता. आज के चिकित्सा विज्ञान ने विषाद को पैदा करने में काफी बड़ी भूमिका निभाई है. दनादन रोगों के नाम बोलकर उसने मानव को भड़काया है, विषादयुक्त किया है. इस विषाद को दूर करनेवाला चिकित्सक को सही मायने में संत, तत्वज्ञानी, कवि होना चाहिए. ऐसा चिकित्सक ही रोगी को विषाद मुक्त करके नया जीवन दे सकता है.

मन की प्रसन्नता हो तो दु:ख नष्ट हो जाता है. ऐसे प्रसन्न अंत:करण वाले पुरुष की बुद्धि भी स्थिर-निश्चल हो जाती है. मन की शांति अंदर से स्फुरित होनेवाला झरना है, ऐसा संत ज्ञानेश्वर ने ज्ञानेश्वरी गीता में कहा है (ओवी ३३९). आप पागल बनकर हंसेंगे तो आपको मन की शांति मिलेगी, ऐसा नहीं मानिएगा.

तेज भूख लगने की स्थिति आदर्श जठराग्नि की निशानी है. सुबह-शाम दो बार भोजन का समय ही वेदसंमत बताया गया है. लेकिन जो शारीरिक और मानसिक रूप से कड़ी मेहनत करते हैं, उन्हें दो से अधिक बार भोजन करना चाहिए. उनकी जठराग्नि अच्छी होती है. लेकिन हर व्यक्ति को अपने भोजन का एक निश्चित समय रखना चाहिए. उस तय किए गए समय का ही रोज पालन करना चाहिए. आज १० बजे, कल डेढ़ बजे, परसों किसी और समय पर तो किसी दिन कुछ खाया ही नहीं-ऐसा नहीं होना चाहिए.

यही बात नींद के समय के लिए भी है. जो भी रात को सुखपूर्वक सोकर उठता है, उसकी जठराग्नि प्रदीप्त होती है. उसके शरीर की जठराग्नि उचित मात्रा में लिए गए आहार को पका सकती है और इससे वह आहार शरीर के लिए पुष्टिकर बन जाता है.

`स्कन्दपुराण’ में निद्रा और जठराग्नि का सीधा संबंध बताया गया है. ये सभी के अनुभव की भी बात है कि ठीक से नींद नहीं आती है तो जठराग्नि भी अन्न ग्रहण के लिए समर्थ नहीं होती. महर्षि चरक ने तो निद्रा को प्राणीमात्रा का पोषण करनेवाला कहा है. जिसकी जठराग्नि अच्छी होती है, उसकी नींद अच्छी होती है और जिसकी नींद अच्छी होती है उसकी जठराग्नि अच्छी होती है. मंदाग्नि और अनिद्रा अनेक रोगों को जन्म देती है. निद्रा और क्षुधा जीवन के दो स्तंभ हैं. शरीर की इमारत इन दो के आधार पर ही खड़ी है, ऐसा बापालाल वैद्य मानते हैं.

महर्षि चरक ने कहा है कि देह धारण करने के लिए जितनी आहार की जरूरत है, उतनी ही ज़रूरत गहरी नींद की है.

निद्रा के बारे में बताते हुए वे ये बातें कहते हैं:

१. महर्षि चरक के सूत्र को उद्धृत करते हुए वे कहते हैं: स्वच्छ चादर के बिना, संकरी, असमतल बिस्तर पर नहीं सोना चाहिए.

२. महर्षि चरक ने कहा है कि देह धारण करने के लिए जितनी आहार की जरूरत है, उतनी ही ज़रूरत गहरी नींद की है. इन दोनों पर ही शरीर की स्थूलता और कृषता निर्भर है.

३. महर्षि सुश्रुत ने भी कहा है कि,`अच्छी शैया पर सोना श्रम और वायु का हरण करता है, वीर्यवर्धक है. इसके उलट स्थिति (खराब बिछौना) दु:खदायक है.

४. महर्षि चरक ने नींद के कई प्रकार बताए हैं: (१) तमोभवा, (२) श्लेष्मसमुद्भवा (कफ से उत्पन्न हई) (३) मन:शरीरश्रमसंभवा, (४) आगंतुकी, (५) व्याधिअनुवर्तिनी, और (६) रात्रिस्वभावप्रभवा. ये छहों प्रकार की नींदों का वर्णन पढ़ने जैसा है.

जिनमें तमस के गुण केंद्र में होते हैं उन्हें अधिक नींद आती है. किसी भी प्रकार के ध्येय के बिना, स्वार्थी, लोलुप लोगों को हम तामसिक प्रकृति का मानते हैं. ऐसे लोग दिन और रात को खूब सोते हैं. ऐसी निद्रा को पाप का मूल स्थान कहा गया है.

अति कफवाले मनुष्य बहुत अधिक खर्राटे लेते हैं. स्थूल शरीर के, ऐशोआराम में लीन रहनेवाले, मिष्ठान्नप्रिय महानुभाव अधिकतर कफ प्रकृति के होते हैं. ऐसे लोग भी दिन में सोते हैं और रात में भी खर्राटे लेते हैं.

मन:शरीश्रमसंभवा यानी मन और शरीर के अति श्रम से उत्पन्न हुई निद्रा. मन या शरीर के अतिश्रम से शरीर में वायु की वृद्धि होती है और अति वायुवृद्धि से निद्रानाश होता है. नींद आती है तब वह स्वाभविक नींद नहीं होती और वह स्वास्थ्यप्रद भी नहीं होती. अतिश्रम-चाहे शारीरिक थकान हो या मानसिक-निद्रा का विघात करता है.

आगंतुकी यानी `रिष्टभूता’. रिष्ट यानी मरने के लक्षण और व्याधिअनुवर्तिनी यानी सन्निपात जैसे रोगों में बेहोश होकर मनुष्य पड़े रहता है, उस प्रकार की नींद.

आहार की तरह ही नींद में भी मात्रा नहीं बल्कि उसकी गुणवत्ता देखनी चाहिए. उसकी क्वांटिटी नहीं बल्कि क्वालिटी का महत्व है.

आदर्श नींद रात्रिस्वभाप्रभवा कहलाती है. इस प्रकार की नींद प्राणिमात्र के लिए हितकारी है. रात होने पर नींद आना, बिलकुल स्वाभाविक क्रिया है. दिन में नींद आना अस्वाभाविक क्रिया है. ऐसी निद्रा को चरक ने हर मनुष्य की माता कहा है. ऐसी नींद थके हुओं की थकान उतारती है, थके हुए अंगों को शांति प्रदान करती है, शरीर और मन दोनों की शक्तियों को बढ़ानेवाली और प्राणिमात्र के प्राण का पोषण करनेवाली है.

आज के जमाने में तो पहले ३ प्रकार की ही नींदें देखने को मिलती हैं. छठें प्रकार की-रात्रिस्वभावप्रभवा निद्रा बहुत कम लोगों को मिलती है और इसीलिए आज का समाज रोगग्रस्त है.

नींद कितने घंटों की होनी चाहिए? नेपोलियन के समय घोड़े पर ही आधा घंटा सो सकता था. गीता के अर्जुन को निद्रा का धनी (गुडाकेश) कहा गया गया है. ध्यान में आने पर निद्रा को बुलाता और ध्यान में आता तब उसे विदा कर देता. इसीलिए उसे गुडाकेश-निद्रा का धनी कहा गया.

आहार की तरह ही नींद में भी मात्रा नहीं बल्कि उसकी गुणवत्ता देखनी चाहिए. उसकी क्वांटिटी नहीं बल्कि क्वालिटी का महत्व है. जो लोग सोने की कला जाते हैं वे लोग थोड़ा सोकर भी शरीर को अधिक से अधिक लाभ देते हैं.

(प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी, पूज्य मोरारी बापू, स्वामी रामदेव, सद्गुरू जग्गी वासुदेव, योगी आदित्यनाथ जैसे हर महापुरुष अपने आहार और अपनी निद्रा का संवर्धन कर दशकों से प्रतिदिन १६ से १८ घंटे कार्यरत रहते हैं और वे शायद ही बीमार होते हैं. गंभीर बीमारी या बड़ी बीमारी में वे कभी नहीं फंसते.)

दिन में सोएं या नहीं. वामकुक्षि का गलत अर्थ प्रचलित हुआ है. महर्षि सुश्रुत ने कहा है कि भोजन कर लेने के बाद जब तक खाने की थकान (अन्नकलम) पूरी तरह से नहीं उतर जाती है तब तक राजा की तरह यानी कि आराम से सुंदर शैय्या पर बैठना चाहिए. पंद्रह-बीस मिनट बैठने के बाद सौ कदम चलना चाहिए और फिर बाएं करवट `लेटना’ चाहिए (`सोना नहीं’, केवल पड़े रहना). खाकर तुरंत सो जाने से आयुष्य की हानि होती है. भोजन करके तुरंत सो जाने से अच्छा मनुष्य भी रोगी हो जाता है.

रात में जितने समय की नींद न ली हो या ठीक से नींद न आई हो तो उतने समय की आधी मात्रा में दिन में सो जाना चाहिए, ऐसा क्षारपाणि ने कहा है (जो अग्निवेश और हारीत के समकालीन थे.) रात में केवल चार घंटे की नींद ली हो तो दिन में दो घंटा सो जाना चाहिए.

ग्रीष्म ऋतु में दिन में सोने से लाभ होता है.

मेदस्वी, कफ प्रकृति वाले, कफ के रोगी, हमेशा तेल-घी इत्यादि का खूब उपयोग करनेवालों के लिए दिन में सोना निषिद्ध है.

जिन लोगों को शारीरिक और मानसिक काम अधिक करना पड़ता है, उन लोगों के लिए दोपहर की नींद परम आवश्यक है, ऐसा बापालाल वैद्य को लगता है.

मन और शरीर को जब अधिक थकान लगती है, तब उसी तरह से खर्च हुई शक्तियों की भरपाई करने के लिए भी अधिक नींद की ज़रूरत होती है.

बापाजी कहते हैं:`रात में नौ बजे सोने की यदि आदत डालेंगे तो तीन बजे स्वाभाविक रूप से ही नींद खुल जाती है. फिर भी आलस्य के वश होकर आंखें मींच कर बिस्तर में करवटें बदलते रहना अलग बात है.

`सुबह जल्दी जागो’ प्रकरण में बापाजी कहते हैं कि भावमिश्र ने एक श्लोक में बताया है:`अपने आयुष्य की रक्षा हेतु स्वस्थ मनुष्य को ब्रह्ममुहूर्त में-तीन से चार बजे के दौरान उठकर दु:ख की शांति हेतु मधुसूदन का स्मरण करना चाहिए.’

बापाजी कहते हैं:`यह युग (भावमिश्र जैसे) आचार्यों को मानने वाला कहां है? इस समय शास्त्रों की तुलना में दैनिक अखबार अधिक प्रमाणभूत माने जाने लगे हैं! परंतु बुद्धि और तर्क इन दोनों की तुलना में श्रद्धा और संकल्प अधिक मूल्यवान है. जिसके जीवन में संकल्प बल या श्रद्धा नहीं होती उनके लिए मेरा ये लेखन नहीं है.’

बापाजी के इन शब्दों के नीचे उनके काल्पनिक हस्ताक्षर देखने के बाद सैकड़ों विद्वान अपना हस्ताक्षर देने की सम्मति देंगे.

बापाजी कहते हैं:`रात में नौ बजे सोने की यदि आदत डालेंगे तो तीन बजे स्वाभाविक रूप से ही नींद खुल जाती है. फिर भी आलस्य के वश होकर आंखें मींच कर बिस्तर में करवटें बदलते रहना अलग बात है. नौ बजे सोने से छह घंटे की गहरी नींद के बाद तीन –चार बजे जरूर उठा जा सकता है, ऐसा मेरा अनुभव है…जीवन केवल खाने पीने या ऐशोआराम के लिए ही नहीं है. जिसके जीवन में शांति नहीं है, संकल्प सामर्थ्य नहीं है, स्वाध्याय नहीं है, श्रद्धा नहीं है, वह मनुष्य बाहर से तंदुरुस्त लगता है तो भी वह तंदुरुस्त नहीं होता.’

रात में सोने से पहले इन बातों का ध्यान रखना चाहिए, ऐसा बापालालभाई ने सुझाया है:

१. सोने से पहले ठीक से मुख साफ करना चाहिए, खूब गरारा करना चाहिए, दांत में कुछ भी अटका न हो, यह देखना चाहिए.

२. सोने से पहले हाथ पैर धोने चाहिए.

३. सोने से पहले मानसिक शांति रखनी चाहिए, इष्टदेव का शांत मन से ध्यान करके स्वच्छ शय्या पर सो जाना चाहिए.

४. रात्रि भोजन के बाद तुरंत न सोएं. दो-ढाई घंटे बाद सोएं. रात के भोजन के बाद धीरे-धीरे एकाध मील घूम आएं तो बेहतर होगा.

५. सोने से पहले (बाथरूम जाकर आने के बाद) एकाध गिलास (ठंडा न हो) पानी पी लें.

जिस जगह सोना है वहां पर अन्य कोई सामान नहीं रखना चाहिए.

शयनखंड की खिड़कियॉं खुली रखनी चाहिए ताकि हवा का आवागमन हो सके. चादर स्वच्छ हो, तकिया नर्म हो और ओढ़ना अधिक भारी या वजनदार न हो बल्कि हल्का हो. दिन भर की पोशाक बदलकर धुला वस्त्र पहनकर सोना चाहिए. महर्षि सुश्रुत कहते हैं कि कभी पेट के बल नहीं सोना चाहि‍ए.

रात को पैर के तलवे में तेल की मालिश करने से दिन भी की थकान उतर जाती है. गहरी नींद आती है, आंखों का तेज बढता है, पादाभ्यंग (अभ्यंग यानी तेल मालिश) से पैर की सुकुमारता और पैर का बल बढ़ता है, पैर को स्थिरता प्राप्त होती है, वायु शांत हो जाती है-ऐसा महर्षि चरक ने कहा है.

नींद किसे नहीं आती?

१. जिसका मन काम में लगा रहता है उसे नींद नहीं आती. (अर्थात जो लोग काम के मामले में स्विच ऑन-स्विच ऑफ करके मन पर काबू नहीं रखना नहीं सीख पाए हैं, उन्हें नींद नहीं आती).

२. वृद्ध लोगों को नींद नहीं आती. वृद्ध स्वभाव से ही जागनेवाले होते हैं.

३. जो रोग से पीड़ित होते हैं, जिन्हें सिर में दर्द रहता है, उन्हें नींद नहीं आती.

४. कइयों का स्वभाव ही कम नींद वाला होता है. उनकी प्रकृति हर कम नींद की आदी हो जाती है.

५. अति वातवृद्धि से नींद नहीं आती. कफ प्रकृति के लोग खूब सोते हैं.

६. शोरगुल-कोलाहल वाली जगहों पर नींद नहीं आती.

७. चिंता, शोक, भय, क्रोध, अति व्यायाम, उपवास और (अति) कार्यशक्ति, ये सभी नींद में अवरोध डालनेवाले हैं.

नींद की गोलियों के सेवन से तत्काल नींद तो आ जाती है लेकिन उनके निरंतर सेवन से स्वास्थ्य को हानि होती है. नींद के लिए किसी भी प्रकार की दवा लेना केवल मूर्खता है. नींद नहीं आने के कारण ऊपर बताए गए हैं. इन कारणों का त्याग करने पर नींद आनी ही चाहिए.

नींद ठीक से नहीं आती है तो ऐसे लोगों को सोते समय पैर के तलवे में तिल का तेल लगाना चाहिए, पैर की मालिश करवानी चाहिए, स्नान करके सोने की आदत डालें. मनपसंद सुंगधी पदार्थों का उपयोग करें (फूल, सेन्ट, इत्र इत्यादि), संगीत सुनें, बिस्तर सुंदर रखें. गंदी चादर और बदबूदार दागवाले तकिए मन को अच्छे नहीं लगते. मन को जो अच्छा नहीं लगता उससे नींद भंग होती है. रात को पैर के तलवे में तेल की मालिश करने से दिन भी की थकान उतर जाती है. गहरी नींद आती है, आंखों का तेज बढता है, पादाभ्यंग (अभ्यंग यानी तेल मालिश ) से पैर की सुकुमारता और पैर का बल बढ़ता है, पैर को स्थिरता प्राप्त होती है, वायु शांत हो जाती है-ऐसा महर्षि चरक ने कहा है.

कुसमय (दिन में) सोना कुसमय (रात में) जागना या अधिक सोने या लगातार जागरण करने से सभी सुखों और आयुष्य का नाश होता है.

उचित मात्रा में निद्रा का सेवन करनेवाले मनुष्य देह, सुख और आयुष्य का लाभ प्राप्त करते हैं.

यहॉं योगग्राम में मुझे यहां पर एक प्राकृतिक चिकित्सक ने प्रतिदिन रात में सोने से पहले गुनगुने पानी के बाथटब में पांव डुबोकर दस मिनट बैठने के लिए कहा है. पानी में थोड़ा नमक डाला हो तो अच्छा है. अभी तक एक भी बार उस सूचना का पालन नहीं कर सका हूँ. रात में भोजन करके टहलने के बाद थोडा काम पुरा करके, ऐसी नींद आ जाती है कि नींद सीधे ब्रह्ममुहूर्त में ही खुलती है. पचास दिन पूरे करके मुंबई लौटने के बाद इस सूचना का पालन करूंगा तो अभी जितनी गहरी नींद आती है, उससे भी अधिक अच्छी नींद आने लगेगी, इसमें कोई शंका नहीं है. पांव के तलुवे की नसे भी अच्छी तरह से कार्यरत हो जाएंगी.

मुझे लगता है कि यह जो लेखमाला लिखी जा रही है, उसमें दी जा रही जानकारी के अनुसार यदि कोई तय करता है कि मुझे इन सूचनाओं का शतप्रतिशत पालन करना है तो वे योगग्राम में आए बिना ही घरबैठे स्वास्थ्य से परिपूर्ण शतायुषी जीवन जीने की अपनी इच्छा को पूर्ण कर सकते हैं.

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