भोजन के बारे में इक्कीस स्वर्ण मुद्राएँ – हरिद्वार के योगग्राम में २२ वॉं दिन : सौरभ शाह

(गुड मॉर्निंग: चैत्र शुक्ल छठ, विक्रम संवत २०७९, शुक्रवार, २२ अप्रैल २०२२)

आज बाइस अप्रैल है. दंतालीवाले स्वामी सच्चिदानंद आज आयु के ९० वर्ष पूर्ण करके जीवन के दसवें दशक में प्रवेश कर रहे हैं. ब्रह्ममुहूर्त में जागकर सबसे पहले उन्हें स्मरण कर भगवान से उनके स्वास्थ्यपूर्ण शतायु के लिए प्रार्थना की.

रूम में ही नेत्र प्रक्षालन और जलनेति की विधि पूर्ण करके हल्दी-तुलसी-अदरक का काढ़ा पीने के लिए डायनिंग हॉल में गया. कप प्लेट में दिया जाता है. गर्म होता है. चाय की तरह धीमे धीमे पिया जाता है तो पेट में गरमाहट आ जाती है. घर जाकर भी यह जारी रखना है.

योगाभ्यास वाले गार्डन में अब सूर्यप्रकाश जल्दी फैलने लगता है. यहां एक अप्रैल को जब आया तब दूसरे दिन योगासन के सत्र में सुबह पांच पहुंचे तब घना अंधकार था. अब तो थोड़ा उजाला देखने को मिलता है. कुछ ही मिनटों में आकाश में लालिमा छा जाती है और साढ़े पांच बजे तक लगता है कि सुबह हो गई है! मुंबई के साढ़े छह-सात बजे जितना उजाला हो जाता है.

स्वामीजी जिस मंच से योगाभ्यास करवा रहे हैं, उसकी बाईं तरफ आम का घना वृक्ष है. यहां बैठे बैठे उस पर लगी बौर दिखाई देती है. वलसाड के हापुस आम तो पक कर घरों में खाए जाने लगे होंगे. यह शायद दशहरी का पेड़ है. इस प्रदेश में मई-जून में दशहरी खाई जाती है.

आज मुझे एक नई बात ध्यान में आई. योगासन तथा प्राणायाम सीखना हो तो समूह में एक दूसरे को देखकर और योगाचार्य के निर्देश में सीखना ठीक है. लेकिन एक बार अभ्यास हो जाने के बाद और निर्देश की आवश्यकता नहीं है, ऐसा ध्यान में आने के बाद योगासन एकांत में करना चाहिए, समूह में नहीं. प्राणायाम तो विशेषकर एकांत में करना चाहिए. मुझे तो यही बात ठीक लगती है. अन्यथा जिसकी जैसी इच्छा. मैं मुंबई जाकर घर में या फिर नीचे सोसायटी के गार्डन में एकांत में ही योगासन और प्राणायाम करने की सोच रहा हूं. जहां तक हो सके, किसी प्रकार की आवाज भी नहीं, संगीत भी नहीं. पूर्ण मौन. वाणी और श्रवण का भी मौन. यह तो एक साधना है, व्यायाम नहीं है.

आज स्वामीजी ने एक अति गंभीर बात कहते हुए सभी को खूब हंसाया. स्वामीजी योगग्राम में आकर ठीक हो रहे तथा ठीक हो चुके लोगों को खड़ा करके उनसे उनकी बीमारियों तथा ठीक होने की प्रक्रिंया की जानकारी ले रहे थे. उनमें से किसी को मंच पर भी बुला लेते थे. अचानक उन्होंने कहा,`इन सभी को कुछ भी नहीं कहा है कि आपको क्या बोलना है? वे सचमुच अपने अनुभव हमारे साथ और `आस्था’ चैनल द्वारा दुनिया के १७० से अधिक देशों में जो करोडो लोग देख रहे हैं उनके साथ साझा कर रहे हैं.’

फिर अचानक खड़े होकर बोले,`ये कोई उन इसाइयों का पाखंड नहीं कि पहले से व्यवस्था करके स्टेज पर नाटक किया जाता है.’फिर दोनों हाथ झुलाकर, पैर मोडकर लंगडाते हुए बोले,`पहले यह आदमी इस तरह से चलकर यहां आया था और अब देखो चमत्कार-कैसा तन गया है-ऐसा कहकर उस पर पानी छिड़क कर उसे ठीक कर देता है!’ इतना कहकर बाबा ने फिर ऐसे तमाशबीनों की नकल की और मानो कांपने की नकल करके पादरी के `चमत्कार’ के बाद ठीक हो गए हों, ऐसा नाटक किस तरह से किया जाता है, यह बताया. सभी खूब हंसे. बाबा को भी मिमिक्री करने में आनंद आया. लेकिन बात काफी गंभीर थी. वह तो इसाइयों का पाखंड है और यहां सचमुच में रोग से मुक्ति पानेवाले या रोग से छुटकारा पानेवाले वास्तविक किस्से हैं. बाबा जानते हैं कि दुनिया में ऐसा बहुत सारे लोग हैं जो अपनी नौटंकी को लीला का दर्जा दिलाने के लिए आपकी लीला को नौटंकी बताकर बदनाम किया करते हैं.

बाबा ने आज एक सटीक सूत्र दिया: `आहार ही उपचार है.’

प्रतिदिन की आहार पद्धति कैसी होनी चाहिए, यह समझने के लिए हमें फिर एक बार वैद्य बापालाल भाई से कंसल्ट करना होगा. `दिनचर्या’ पुस्तक के ३३ प्रकरणों में सबसे लंबा चैप्टर भोजन विषयक है. २८ पृष्ठों के इस प्रकरण के अलावा पुस्तक के अंत में परिशिष्ट में उन्होंने आठ-दस पृष्ठों में भोजन से जुड़े सुभाषितों का संग्रह दिया है. चरक और मनु के अलावा गीता, विष्णुपुराण, महाभारत और स्कन्दपुराण के श्लोकों का भी उसमें समावेश किया गया है.

बापालाल भाई द्वारा विस्तार से बताई गई बातों को संक्षिप्त में रखने से पहले उनकी अंतिम भाग में दी गई इस सलाह को खास ध्यान में रखें:`आहार के संबंध में सभी को एक ही लकड़ी से नहीं हांकना चाहिए.’

इस स्वर्णिम सलाह का अर्थ ये हुआ कि आपका पालन-पोषण, शरीर का गठन, आपका व्यवसाय और आप किस प्रदेश में रहते हैं, यह सब विचार में लेना होता है. इसके अलावा मौसम के अनुसार, ऋतु के अनुसार, आहार में यथोचित परिवर्तन करना होता है. इतना ही नहीं, आपके शरीर के स्वास्थ्य में कोई गड़बड़ी पैदा होती है तब भी आपके लिए निश्चित किए गए प्रतिदिन के आहार में बदलाव जरूरी हो जाता है. कभी आहार त्याग कर निराहार या अन्य प्रकार के उपवास करने पड़ते हैं तो कभी कुछ समय के लिए कई पदार्थों से परहेज करना पड़ता है.

आगे दी गई बापालालभाई की टिप्स को पढ़ते समय ऊपर दिया गया परिच्छेद एक बार फिर से पढ़कर मन में रख लीजिए.

१. भोजन से पहले अदरक का कचुंबर और सैंधव नमक खाना हितकारी है. इससे जठराग्नि प्रदीप्त होती है. जीह्वा और कंठ शुद्ध होते हैं और भोजन में रुचि बढ़ती है. बापालाल वैद्य ने सबसे नीचे टिप्पणी में यह श्लोक उद्धृत करते हुए अपनी बात का प्रमाण दिया है: भोजनाग्रे सदा पथ्यं लवणार्द्रकभक्षणम्‌, अग्नि सन्दीपन रुच्य जिह्वाकंठविशोधनम्‌. आगे से हम संस्कृत के श्लोक बीच में दिए बिना दनादन आगे बढ़ेंगे.

बापालाल वैद्य ने स्पष्ट लिखा है:`गुजरात का मध्यम वर्ग का आहार दाल, भात, रोटी, सब्जी, दूध, दही इत्यादि है. जिन पूर्वजों ने इस आहार की योजन की है, उन पूर्वजों के लिए हमें खूब गर्व होता है. यह आहार संपूर्ण है, ऐसा कहते हुए मुझे तनिक भी संकोच नहीं होता.’

२. `अष्टांगहृदयम्‌’ में वाग्भट्ट की लिखी सलाह (सू.स्थ.अ.-५-१५) का उल्लेख करते हुए बापालाल भाई कहते हैं कि भोजन करते समय पानी पीने में तनिक भी नुकसान नहीं है. इस विवादास्पद प्रश्न को ज़रूरत से अधिक महत्व दिया गया है. जब पानी की प्यास लगती है तब पी लेना चाहिए. वाग्भट्ट के शब्द हैं:`भोजन के बीच में पानी पीने से शरीर न अधिक मोटा न अधिक पतला, बिलकुल समान रहता है. भोजन के अंत में पानी पीने से शरीर सूखता है, जब कि खाने से पहले पानी पीने से शरीर स्थूल बनता है. कई लोग मानते हैं कि भोजन करने से पहले पानी पीने से शरीर सूखता है और भोजन करने के बाद पीने से स्थूल बनता है. लेकिन एक पहलू पर अपनी प्राचीन विद्या सहमत है कि भोजन के मध्य में खाते खाते छोटे छोटे घूंट से पानी पीने से अमृत जैसा असर होता है और अन्न का पाचन होकर धातुसमता आती है. सुश्रुत ने भी कहा है कि उत्तरोत्तर स्वादिष्ट भोजन खाना चाहिए और खाते खाते बारबार पानी से मुख प्रक्षालन करना चाहिए. इस तरह से घूंट घूंट कर पानी पीने से जीभ साफ रहती है और भोजन पहले की तरह ही रुचिकर बनता है (सुश्रुत सू. ४६-४८३).

भोजन करने के बाद तुरंत पानी पीने से वह विष समान अहितकर बन जाता है. भोजन पचने के बाद (खाने के दो-तीन घंटे बाद) पानी पीने से शरीर में शक्ति-बल आता है.

इतना ध्यान रखें कि खाते समय हम जो पानी पिएं वह थोड़ा-थोड़ा ही हो. अधिक पानी पीने से अन्न का पाचन ठीक से नहीं होता और पानी नहीं पीने से अन्न नहीं पचता.

३. बापालाल वैद्य ने स्पष्ट लिखा है:`गुजरात का मध्यम वर्ग का आहार दाल, भात, रोटी, सब्जी, दूध, दही इत्यादि है. जिन पूर्वजों ने इस आहार की योजन की है, उन पूर्वजों के लिए हमें खूब गर्व होता है. यह आहार संपूर्ण है, ऐसा कहते हुए मुझे तनिक भी संकोच नहीं होता.’

इतना कहकर वे आगे लिखते हैं:`(अधिकांश) भोजन बनानेवाली स्त्रियों को आहार का जरा भी ज्ञान नहीं है इसीलिए उन्हें ज्ञान देने की आवश्यकता है…हमें क्या खाना चाहिए और क्या नहीं, इतना भी यदि स्त्रियां जान जाएं तो अपना आहारशास्त्र खूब खिल पाएगा.’

बापालालजी द्वारा करीब सौ वर्ष पहले की गई इस टिप्पणी को आलोचना के रूप में न लेते हुए समझ विकसित करने हेतु निर्दोष सलाह के रूप में सभी को लेना चाहिए.

दूध साक्षात अमृत है. वह दूध निरोगी गाय-भैंस का होना चाहिए… बापालालभाई की सलाह है कि हर व्यक्ति को हमेशा एक से डेढ़ सेर (करीब आधा से पौना लीटर) दूध हमेशा पीना चाहिए.

४. आज-कल कई डेढ़ सयाने वेजिटेरियनों ने `वेगन’ फूड का फैशन शुरू किया है जिनका तर्क ये होता है कि दूध तो गाय के बछड़े के लिए होता है, उसे भूखा रखकर हमें दूध नहीं पीना चाहिए. वे दूध से बननेवाली तमाम सामग्रियों को आहार से दूर कर देते हैं-मक्खन, दही, छास, चीज़, खोआ, पनीर इत्यादि.

यह विदेशी ट्रेंड अब भारत आया है. दुर्भाग्य है. जब कि अपने यहां परंपरागत तौर पर समृद्धि के लिए कहा जाता रहा है कि,`यहां दूध-दही की नदियां बहा करती थीं’. महर्षि चरक ने कहा है कि `दूध ओज को बढ़ानेवाला है. जो जीवनोपयोगी या जीवन को दीर्घ करनेवाला खाद्य पदार्थ हैं, उन सभी में दूध उत्तम है-प्रवर जीवनीय है-दूध तो रसायन है.’(चरक सू.२७-२१२). रसायन अर्थात जिस द्रव्य के सेवन से जरा और व्याधियां दूर होती हैं.

दूध साक्षात अमृत है. वह दूध निरोगी गाय-भैंस का होना चाहिए. (डॉ. प्रकाश कोठारी भैंस के बदले गाय के दूध की, गाय के घी की प्रखर हिमायत करते हैं. वे अपनी बात समझाते हुए उदाहरण देते हैं:`किसमें ताकत ज्यादा होती है? सॉंड में या भैंसे में!)

बापालालभाई की सलाह है कि हर व्यक्ति को हमेशा एक से डेढ़ सेर (करीब आधा से पौना लीटर) दूध हमेशा पीना चाहिए.

जिन्हें दूध की एलर्जी हो या कोई त्वचा रोग हो या किसी अन्य रोग के उपचार के दौरान दुग्ध जनित उत्पाद लेने की मनाई हो, उनकी बात अलग है, उन्हें परहेज करना चाहिए. अन्यथा सामान्य रूप से दूध अमृत है, इसमें कोई संदेह नहीं है, वेगन वाला चाहे जो कहें.

५. मनु का श्लोक उद्धृत करके बापालालभाई कहते हैं कि `जो हाथ पैर धोकर भोजन करने बैठते हैं, वे दीर्घायु होते हैं.’ इसका अलावा `क्षेमकुतूहल’ ग्रंथ का उल्लेख करके वे कहते हैं:`भोजन करते समय धुले वस्त्र पहनने चाहिए….सुंदर, रम्य (और स्वच्छ) स्थान में प्रिय मित्र या आत्मीयजनों के साथ भोजन करने के लिए बैठना चाहिए.’

६. जहॉं बच्चे रो रहे हों, मां डांट रही हो, शोरगुल हो, गंदगी हो-और ऐसे अन्य कारण जिनसे मन को आघात पहुंचता हो, ऐसे स्थान पर भोजन करने नहीं बैठें. सुंदर आसन बिछे हों (या आज के जमाने में बढिया तरीके से डायनिंग टेबल सजा हो), सुगंधित अगरबत्ती जल रही हो, बड़ी स्वच्छ थाली में या पत्तल में भोजन परोसा जा रहा हो, ऐसी मनोरम जगह पर भोजन करने बैठना चाहिए. जहां मक्खियां भिनभिना रही हों, मच्छरों का उत्पात हो, परेशान करनेवाली दुर्गंध हो, वहां भोजन करने नहीं जाना चाहिए.

७. भोजन करते समय तन्मयता से खाएं. भोजन करते समय ज्यादा हा हा हीही या अन्य उल्टी पुल्टी बातें बिना किए, एकाग्रता से भोजन करना चाहिए. मन अन्य विचारों में भटक रहा हो तब खाने के लिए बैठना ठीक नहीं है.

८. हमेशा गर्मागर्म और ताजा आहार ही खाना चाहिए. गर्मागर्म यानी जल जाएं ऐसा नहीं बल्कि भोजन बनते ही तुरंत खाने के अर्थ में. महर्षि चरक कहते हैं कि गर्म आहार खाने से भोजन में स्वाद आता है, जठराग्नि प्रदीप्त होती है और खाया हुआ आहार जल्दी पचता है, वायु का अच्छे से अनुलोमन होता है, कफ सूख जाता है.

९. आहार स्निग्ध खाना चाहिए. सूखा आहार खाना अहितकारी है. (आजकल घी इत्यादि के बिना सूखी रोटी या कोरा खाखरा खाने का ट्रेंड कई आहारशास्त्रियों / डॉक्टरों ने शुरू कराया है. डॉ. मनु कोठारी ने मेरे पिताजी को स्टेंट लगाने के बाद सादी रोटी खाना शुरू की तो उन्होंने घी में चुपड़ी रोटी शुरू करवाई थी और सप्ताह में कुछ मीठा भी शौक से खाने की सलाह देकर तत्काल आंत के कैंसर की गांठ का ऑपरेशन नहीं करवाने की सलाह दी थी, जिसके कारण मेरे पिता दो वर्ष अधिक जिए और मजे से जिए-सौ.शा.)

१०. स्निग्ध आहार में मिष्ठान्न का समावेश होता है. भोजन करते समय हमेशा थोड़ा मधुर पदार्थ खाने में आए तो अच्छा है. मीठे पदार्थ से देह की अभिवृद्धि होती है, भोजन स्वादिष्ट लगता है. स्निग्ध आहार पर जल, वर्ण, बुद्धि और साहस निर्भर है (लो ये तो पसंदीदा बात ही बापालाल वैद्य ने कह दी).

११. सही मात्रा में भोजन करना चाहिए. ज्यादा ठूंसकर खानेवाले जल्दी मरते हैं. जो लोग सुमचित मात्रा में खाते हैं, उनकी आयु लंबी होती है, मल-मूत्र की निकासी सुख से होती है; वात-पित्त की तकलीफ नहीं होती.

जैसे बहुत जल्दबाजी में नहीं, उसी तरह से बहुत धीमे भी नहीं खाना चाहिए. कई लोग भोजन करते समय घंटा-डेढ़ घंटा लगा देते हैं. यह भी ठीक नहीं है : बापालाल वैद्य

१२. पहले किया गया भोजन जब तक पेट में ठीक से पच न जाय तब तक फिर से भोजन नहीं करना चाहिए. आहार ठीक से पचने के संकेत: शरीर हल्का लगता है, मुंह का स्वाद अच्छा होता है, खट्टा-खारा या अन्य तरह की डकार न आए, मल-मूत्र खुलकर हो, जठराग्नि प्रदीप्त लगे. यदि पेट में गडगडाहट होती हो, दुर्गंधी अधोवायु (फार्टिंग/हवा खुलना) होती हो, डकार आती हो, शरीर भारी लगता हो तो नहीं खाना चाहिए.

१३. खूब चबाकर खाना चाहिए. चबाने से आहार जब जठर में जाता है तब उसे पचाने के लिए मेहनत नहीं करनी पड़ती. जैसे जैसे आहार चबाया जाता है, उसकी मिठास बढ़ते जाने से खाने में अधिक आनंद आता है और इस दौरान जठर में जठर रस का स्राव होने लगता है. अजीर्ण का रामबाण इलाज चबाकर भोजन करना ही है. चबाकर खाने से दांत मजबूत रहते हैं. चबाकर खाने से कम खाया जाता है और कम खानेवाले अधिक खानेवालों की तुलना में निरोगी रहते हैं.

१४. जैसे बहुत जल्दबाजी में नहीं, उसी तरह से बहुत धीमे भी नहीं खाना चाहिए. कई लोग भोजन करते समय घंटा-डेढ़ घंटा लगा देते हैं. यह भी ठीक नहीं है. बहुत विलंब करने से भोजन ठंडा हो जाता है, अधिक खाया जाता है, आवश्यक तृप्ति नहीं मिलती.

१५. हमें जो आहार जंचता है, वही खाना चाहिए. अन्य आहार चाहे कितना ही गुणसंपन्न हो लेकिन वह हमारी प्रकृति के अनुकूल न हो तो नहीं खाना चाहिए. कइयों को दूध अनुकूल नहीं होता तो कइयों को दही नहीं जमती है, कइयों को अम्लीय खट्टापन नहीं जंचता है तो कइयों को चावल पसंद नहीं आता. कइयों को बाजरी ही अच्छी लगती है. इस तरह से भिन्न भिन्न प्रकृतिवाले मनुष्यों को भिन्न भिन्न वस्तुएं अनुकूल होती हैं.

छह के छह रस को आहार में स्थान देना चाहिए. मधुर, खट्टा, तीखा, नमकीन, कडवा, कस्सैला-सभी स्वाद वाले आहार खाने की आदत डालनी चाहिए. सही मात्रा में छहों रस खाने से शरीर ठीक रहता है.

१६. खाने का समय निश्चित रखें. नियम से भोजन कर लेना चाहिए-जरा भी जल्दी या देर नहीं होने देनी चाहिए. समय पर किया गया भोजन आरोग्य की वृद्धि करनेवाला होता है, ऐसा महर्षि चरक ने कहा है.

१७. विरुद्‌ध आहार का त्याग करना चाहिए. दूध के साथ नमक या प्याज या लहसुन, मूली नहीं खाना चाहिए. अनाज के साथ दूध नहीं लेना चाहिए. ऐसे अनेक विरुद्ध आहार हैं जिन्हें त्याग देना चाहिए.

१८. छह के छह रस को आहार में स्थान देना चाहिए. मधुर, खट्टा, तीखा, नमकीन, कडवा, कस्सैला-सभी स्वाद वाले आहार खाने की आदत डालनी चाहिए. सही मात्रा में छहों रस खाने से शरीर ठीक रहता है. हमेशा के लिए दूध पर रहनेवाले निरोगी या बलवान नहीं रह सकते. `मिर्च और इमली तो खानी ही नहीं चाहिए’, ऐसा कहनेवाले लोग भी हैं. चरक स्पष्ट शब्दों में कहते हैं:`सभी रसों का सेवन करने से बल में वृद्धि होती है जब कि अमुक एक ही रस का सेवन करने से दुर्बलता आती है’. आहार का प्रयोग करनेवाले मनुष्यों को यह याद रखना चाहिए, ऐसा बापालाल वैद्य ने कहा है. वैसे, कभी कभी किसी बीमारी के उपचार स्वरूप जब उपवास वगैरह होता है तो उस अवधि को अपवाद मानना चाहिए ऐसा मुझे योगग्राम में आकर लग रहा है. रुटीन में, नॉर्मल लाइफ जीते समय चरक और बापालालभाई की बातों के साथ सौ प्रतिशत सहमति है.

१९. भोजन करने के बाद ठीक से मुख साफ करना चाहिए. खूब गरारा करना चाहिए. भोजन करने के बाद राजा की तरह शांत चित्त से बैठक कर एकाध घंटा आराम करना चाहिए. भोजन करके तुरंत काम पर लग जाने से अन्न पचाने में तकलीफ होती है. वामकुक्षि करनी चाहिए. बाएं करवट लेटना चाहिए-सो नहीं जाना चाहिए लेकिन शांति से पड़े रहना चाहिए. जो खाकर आराम से नहीं सोता, उस पर तंद्रा लागू होती है. खाकर जो सो जाता है, उसका शरीर मोटा हो जाता है. जो टहलता है, वह आयुष्य प्राप्त करता है और जो लोग खाकर दौड़ते हैं, उनके पीछे मृत्यु दौड़ती है.

२०. भोजन करते समय पहले मधुर रसयुक्त पदार्थ खाना चाहिए, मध्यम खट्टे-नमकीन रसवाला आहार लें और अंत में भोजन करें. भोजन के बाद छास पीना ही चाहिए. (दोपहर के भोजन के बाद छास. रात के भोजन के साथ दूध होता है. दही ब्रेकफास्ट में होती है, रात में बिलकुल नहीं).

२१. जठराग्नि को प्राचीन लोगों ने अग्निहोत्र (यानी हवन, होम, यज्ञ) की उपमा दी है. जठराग्नि के ऊपर ही आयु, वर्ण, बल, स्वास्थ्य, उत्साह, ओज और तेज निर्भर करता है. अग्निहोत्र में जैसे अपवित्र वस्तु की हवि नहीं दी जाती है उसी तरह से जठराग्नि को भी समझें-कोई भी पदार्थ पेट में नहीं डालना चाहिए. जठराग्नि मंद होगी और अन्न यदि आमाशय में नहीं पचेगा या अधपचा रह जाएगा तो आम चाहे जितना ही पौष्टिक पदार्थ खा लें वह आपका शरीर के रक्त, मांस, अस्थि इत्यादि को पोषण नहीं दे सकेगा. इतना ही नहीं, बल्कि आप तरह तरह की बीमारियों को आमंत्रित करेंगे. शरीर के चयापचय को ठीक से चलाने का काम जठराग्नि द्वारा होता है.

सुश्रुत ने जैसे कि कहा है प्राणीमात्र के प्राण अन्न पर निर्भर हैं. आहार से ही देह टिकती है…जठराग्नि का स्वास्थ्य आहार पर ही निर्भर है.

बापालालभाई की दी गई ये २१ स्वर्णमुद्राएं जिनके पास हैं, वे करोडपति हैं.

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