(newspremi.com, शनिवार, २३ जनवरी २०२१)
२३ जनवरी १८९७ को जनमे सुभाष चंद्र जानकीनाथ बोस भारत के उपेक्षित सपूत बन गए, इसका कारण उनके द्वारा गांधीजी का खुलेआम विरोध करना था या कुछ और? क्या आजादी से पहले नेहरू के साथियों ने और आजादी के बाद के वर्षों में कांग्रेसी सरकारों ने इसी कारणवश सुभाषबाबू की अवगणना की थी? यह बात भारत का असली इतिहास लिखनेवाले इतिहासकार ही तय करेंगे.
सुभाषबाबू में गांधीजी का प्रत्यक्ष रूप से विरोध करने का नैतिक साहस तो था ही, साथ ही उनके पास जनता का समर्थन भी था, वे अकेले ही गांधीजी के सामने नहीं लड़े थे.
गांधीजी, सरदार, नेहरू इत्यादि वाली इंडियन नेशनल कांग्रेस के साथ सुभाषबाबू का संबंध काफी पुराना था. देशबंधु चित्तरंजनदास का सुभाषबाबू पर वरदहस्त था. देशबंधु गांधीजी के भी प्रिय थे. १९२५ में देशबंधु का स्वास्थ्य जब बुरी तरह से बिगड़ा तब गांधीजी उनका हालचाल पूछने दार्जीलिंग गए थे. उसी वर्ष २५ जून को देशबंधु का देहांत हुआ.
सुभाषबाबू के पिता जानकीनाथ बोस कटक के जाने-माने और संपन्न वकील हुआ करते थे. सुभाषबाबू का जन्म कटक में ही हुआ था. इंग्लैंड जाकर दी गई इंडियन सिविल सर्विसेस की एंट्रेंस परीक्षा में सुभाषबाबू का चौथा क्रमांक आया था. १९२० की ये बात है. उम्र तेईस वर्ष रही होगी. लेकिन २३ अप्रैल १९२१ को सिविल सर्विसेस की नौकरी छोड़कर भारत आ गए. गांधीजी के नेतृत्व में कांग्रेस से जुड़े. अपना अखबार `स्वराज’ शुरू किया. बंगाल प्रदेश कांग्रेस समिति की ओर से प्रचारकार्य आरंभ किया.
१९२३ में सुभाषबाबू ऑल इंडिया यूथ कांग्रेस के प्रमुख के पद पर चुने गए और बंगाल राज्य कांग्रेस के सचिव भी बने. चित्तरंजनदास द्वारा शुरू किए गए अखबार `फॉरवर्ड’ के संपादक बने. कलकत्ता म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन में चुने गए. उस समय १९२४ में कलकत्ता के मेयर के पद पर चित्तरंजनदास चुने गए थे. १९२५ में ब्रिटिश सरकार ने राष्ट्रवादी भारतीयों की गिरफ्तारी शुरू की. सुभाषबाबू भी पकडे गए. मांडले (म्यांमार, बर्मा) की जेल में भेजा गया जहां उन्हें टी.बी. की बीमारी हो गई. १९२७ में जेल से निकलने के बाद उन्होंने कांग्रेस के जनरल सेक्रेटरी के रूप में जवाहरलाल नेहरू के साथ आजादी की लडाई शुरू की. १९२८ में सुभाषबाबू ने कलकत्ता में कांग्रेस का अधिवेशन आयोजित किया. अधिवेशन के कुछ समय बाद सुभाषबाबू को फिर गिरफ्तार कर लिया गया. बाहर आने के बाद १९३० में वे कलकत्ता के मेयर बने. तब उनकी उम्र ३३ वर्ष थी. (१९२२ में सरदार पटेल ४७ वर्ष की उम्र में अहमदाबाद म्युनिसिपैलिटी के प्रमुख बने थे. सरदार ने उसके बाद १९२४ और १९२७ में भी इस पद पर चुनकर काम किया था.)
१९३० के दशक के मध्य में सुभाषबाबू ने यूरोप की यात्रा की. वहां पढनेवाले भारतीय विद्यार्थियों से मिले, वहां के राजनेताओं से मिले, इटली के तानाशाह बेनितो मुसोलिनी से भी मिले.
इस अवधि के दौरान सुभाष चंद्र बोस ने `द इंडियन स्ट्रगल’ पुस्तक का पहला भाग लिखा जिसमें १९२० से १९३४ के दौरान भारत में चले स्वतंत्रता संग्राम की गतिविधियों का वर्णन था. १९३५ में लंदन में प्रकाशित इस पुस्तक को ब्रिटिश सरकार ने अपनी हुकूमत वाले विश्व के तमाम प्रदेशों में प्रतिबंधित घोषित किया. ब्रिटिश सरकार को भय था कि यह पुस्तक स्थानीय जनता को स्वतंत्र होने के लिए ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध विद्रोह करने की प्रेरणा देगी.
१९३८ में सुभाषबाबू भारत के राष्ट्रीय नेता के रूप में लोकप्रियता हासिल कर चुके थे, ऐसी क्षमता साबित कर चुके थे. उन्होंने कांग्रेस का प्रमुख बनने के लिए आमंत्रण स्वीकार किया. १९३८ में दक्षिण गुजरात के बारडोली से तेरह किलोमीटर दूर स्थित हरिपुरा में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन में सुभाषबाबू पार्टी के प्रमुख के पद पर विराजमान हुए.
गांधीजीके साथ उनके मतभेद अब खुलकर सामने आने लगे. सुभाषबाबू ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध बलप्रयोग के पक्ष में थे. गांधीजी ने सुभाषबाबू को कांग्रेस के प्रमुख का पद सौंपने का खुलकर विरोध किया था. गांधीजी के कारण सुभाषबाबू और नेहरू के बीच भी फूट पडी.
सुभाषचंद्र बोस मानते थे कि भारत को आजाद कराने के बाद कम से कम दो दशक तक इस देश में समाजवादी तानाशाही होनी चाहिए
१९३९ में मध्य प्रदेश के छोटे से गांव त्रिपुरी में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन में सुभाषबाबू बीमारी के कारण बिस्तर पर थे, इसके बावजूद स्ट्रेचर पर आए. गांधीजी पट्टाभी सीतारामैया को कांग्रेस का प्रमुख बनाना चाहते थे. इसके बावजूद फिर एक बार सुभाषबाबू चुने गए. लेकिन कुछ समय बाद गांधीजी के अनुयायियों के साथ तीव्र मतभेद के कारण सुभाषबाबू ने कांग्रेस के प्रमुख के पद से इस्तीफा दे दिया.
सुभाषबाबू टर्की का तख्त पलटने वाले शासक कमाल अतातुर्क के शासन से काफी प्रभावित हुए थे. मुस्तफा कमाल अतातुर्क क्रांतिकारी नेता थे और रिपब्लिक ऑफ टर्की के संस्थापक थे तथा पहले प्रेसिडेंट थे. टर्की को परंपरावादी, पुराने खयालात के मुस्लिम देश से एक आधुनिक और राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक क्षेत्र में समृद्ध राष्ट्र बनाने का श्रेय अतातुर्क को जाता है. उन्होंने १९२३ से लेकर अपनी मृत्यु तक यानी १९३८ तक टर्की पर शासन किया.
सुभाषचंद्र बोस मानते थे कि भारत को आजाद कराने के बाद कम से कम दो दशक तक इस देश में समाजवादी तानाशाही होनी चाहिए ताकि टर्की की तरह भारत देश भी अंधकार के युग से बाहर निकलकर प्रगति कर सके और दुनिया के प्रमुख राष्ट्रों के साथ स्पर्धा करने लगे.
सुभाषबाबू ने इंग्लैंड जाकर वहां के कई अग्रणी राजनेताओं के साथ लंबी मुलाकातें कीं. वहां की लेबर पार्टी के नेता तथा वहां के राजनीतिक चिंतकों से मिले. वहां की कंज़र्वेटिव पार्टी के नेता सुभाषबाबू से मिलने से भी इनकार करते थे क्योंकि वे भारत को स्वायत्तता देने के पक्ष में नहीं थे. अंत में भारत को ब्रिटेन की लेबर पार्टी के शासनकाल में, जब क्लेमेंट ऐटली वहां के प्रधान मंत्री थे, उस दौरान (ये काल यानी २६ जुलाई १९४८ से २६ अक्टूबर १९५१ तक) आजादी मिली.
१९३९ में जब दूसरा विश्वयुद्ध हुआ तब सुभाषबाबू ने भारत के वाइसरॉय लॉर्ड लिन्लिथगो के खिलाफ भारत में बडे पैमाने पर असहयोग आंदोलन शुरू करने का निश्चय किया क्योंकि भारत की जनता या कांग्रेस की नेतागिरी से पूछे बिना ब्रिटिशों ने भारत को अचानक ही विश्वयुद्ध करने के लिए खींच लिया था. गांधीजी ने इस संबंध में सुभाषबाबू का विरोध किया. सुभाषबाबू ने कलकत्ता में ब्रिटिश विरोधी आंदोलन शुरू किया. ब्रिटिशर्स ने उन्हें गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया लेकिन सात दिन की भूख हडताल के बाद उन्हें छोडना पडा.
उसके बाद सुभाषबाबू को और उनके घर को सी.आई.डी. की निगरानी में रखा गया. ब्रिटिश राज की यह रस्म नेहरू राज में भी जारी रही.
भारत का असली इतिहास नेहरू शासन के कारण किस तरह से खो गया इसकी एक झलक आपको कुल ३ लेखों की इस रोमांचक लेखों की श्रृंखला में मिलेगी. शेष बातें कल और परसों के दिन.
आज का विचार
हममें से कौन भारत को स्वतंत्र देखने के लिए जीवित रहेगा, ऐसा सोचना भी नहीं चाहिए. भारत का स्वतंत्र होना जरूरी है और उसे स्वतंत्र कराने के लिए हम अपने से जो भी संभव हो सब कुछ करें, ये जरूरी है.
—सुभाष चन्द्र बोस