६ दिसंबर १९९२ का वह रविवार

गुड मॉर्निंग- सौरभ शाह

(मुंबई समाचार, गुरुवार – ६ दिसंबर २०१८)

भारत के निकटतम (यानी पिछले २५ वर्षों के) इतिहास की तीन लैंडमार्क तारीखें हैं. लेटेस्ट शुरू करें तो २६ मई २०१४ का वह दिन जब नरेंद्र मोदी ने प्रधान मंत्री पद की शपथ ली थी. उससे भी आगे चले तों २७ फरवरी २००२ को जब गोधरा हिंदू हत्याकांड के घृणित षड्यंत्र के परिणामस्वरूप ५९ हिंदुओं को जीते जी जला दिया गया और उससे भी आगे चलें तो ६ दिसंबर १९९२ को जब राम जन्मभूमि पर बने राम मंदिर को ध्वस्त करके खडे किए गए जर्जर बाबरी ढॉंचे को (किसी जमाने में जो मस्जिद हुआ करती थी लेकिन १९४९ से वह मस्जिद न रहकर केवल इमारत भर रह गई थी) को धराशायी कर दिया गया.

भारत के निकटतम इतिहास की ये तीनों घटनाओं का दूरगामी प्रभाव सदियों तक देखने को मिलेगा.

बाबरी ढांचे को तोडकर धराशायी किए जाने से पहले भारत में हिंदुत्व की बातें एकांत में गुपचुप तरीके से की जाती थीं. सेकुलरों की बदमाशी के बारे में आप एक भी शब्द सार्वजनिक रूप से नहीं बोल सकते थे. बाबरी ढांचा तोडने की प्लानिंग, उसकी प्रेरणा और उसके लिए उत्साह- यह सब भाजपा की बदौलत संभव हो पाया, लेकिन बाबरी को धराशायी करने के बाद भाजपा के उस समय के कई नेताओं ने हथियार डाल दिए. सेकुलर बदमाशों ने भाजपा के नेताओं को इस हद तक हताश कर दिया कि वे सभी जिसके श्रेय लेना चाहिए उसके लिए शर्म का अनुभव करने लगे या सार्वजनिक रूप से शर्म महसूस होने की बातें कहने लगे. इस तरह से कहने की उनकी रणनीति गलत थी. उस समय सेकुलरों का पावर आसमान छू रहा था. कांग्रेसी शासन में माल-मलीदा खाकर और विदेशी धन की चर्बी से मोटे-तगडे बन चुके सेकुलरों की तानाशाही १९९२ के उस दौर में अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच गई थी. बाबरी मस्जिद में नमाज पढना १९४९ में बंद हो चुका था. १९४९ मे रामलला की मूर्ति की स्थापना वहां पर विधिवत्‌ हो गई. इस्लाम के एक फिरके की मान्यता के अनुसार जिस स्थान पर विधर्मी पूजा करते हैं (या उनकी मूर्ति स्थापित हो) उस स्थल पर नमाज पढना हराम माना जाता है. १९४९ से १९९२ तक कभी उस जगह पर नमाज नहीं पढी गई, ऐसे जर्जर ढांचे को आप मस्जिद कैसे कह सकते हैं? लेकिन कांग्रेस प्रेरित सेकुलरवादी वामपंथ संचालित मीडिया ने खंडहर को, उस परित्यक्त स्थल को मुस्लिम धर्मस्थान बता कर भारतीय जनता को उकसाने का प्रयास किया. जनता उकसावे में आई भी. उनता यह भी नहीं देखा कि ये कोई फंक्शनल मस्जिद नहीं थी. जनता ने ये भी नहीं देखा कि इस इमारत के बनने से पहले वहां पर राम मंदिर था जिसके अवशेष आर्कियोलॉजी विभाग को मिले हैं. जनता ने ये भी नहीं देखा कि अयोध्या की उस भूमि को हिंदू राम की जन्मभूमि मानते हैं. जनता ने तो यह भी नहीं देखा कि भगवान न करे कि मक्मा में धार्मिक दृष्टि से पवित्र माने जानेवाले विशाल काले पत्थर को ध्वस्त करके कोई मंदिर बना दे तो मुसलमानों की भावना कितनी आहत होगी. जनता ने यह भी नहीं देखा कि इस तरह से बने मंदिर में दशकों से पूजा नहीं हो रही हो, कोई दर्शन करने भी नहीं आता हो और उसे तोड दिया जाए तो यह वाजिब भी है क्योंकि पहले वह जगह इस्लाम पंथ के श्रद्धालुओं की थी.

इस नासमझ जनता ने ऐसा होहल्ला मचाया कि मानो सारा भारत सांप्रदायिक देश हो, ऐसी छाप सारी दुनिया में दुनिया में पडी. इस्लामिक देश हीं नहीं, बल्कि गोरे देश भी भारत के सामने आंख निकालकर हमें डराने लगे. भारत की इस नासमझ जनता ने भारत का बहुत बडा अहित किया. इस नासमझ जनता में कांग्रेस के पक्षधर हिंदू थे, खुद को सेकुलर कहलानेवाले हिंदू थे, गांधीवादी -सर्वोदयवादी-विनोबा भावे वादी तथा हिंदू संस्कृति को गालियां देनेवाले वामपंथी तथा विदेशी फंडिंग से भारत में एनजीओ चलाकर भारत विरोधी गतिविधियों में लिप्त रहनेवाले हिंदू भी थे. इस कुछ हजार जनता का वर्चस्व कांग्रेसी सरकार के दौरान इतना था कि उन्होंने इस देश की ८५ प्रतिशत जनता को तकरीबन बंधक बना रखा था.

छह दिसंबर को बाबरी ढहने के कारण दो बातें हुईं. एक तो इस सेकुलर जनता के आतंक से देश को जलाने लगा. और दो, इसके खिलाफ, इस आग की ज्वाला को शांत करने के लिए कई हिंदूवादी लेखनियां अग्निशामक का काम करने के लिए आगे आईं. उन लोगों ने आग लगाकर सबकुछ भस्म करने का प्रयास किया तो इन लोगों ने मशाल जलाकर उसके प्रकाश में उन लोगों की बदमाशी को बेनकाब किया. अभी तक यह सेकुलर बदमाशी जिस अंधेरे में थी वह अब प्रकाश में आ गई. ६ दिसंबर १९९२ के बाद प्रज्वलित हुई कई लेखनी रूपी मशालों के कारण जो गिनेचुने हिंदूवादी अपनी अपनी तरह से दीप जलाकर निष्ठा से देश के विभिन्न कोनों में बैठ कर काम कर रहे थे, उनके बीच एक अदृश्य श्रृंखला बन गई. हिंदुत्व के बारे में एक भी शब्द कहा तो हम सांप्रदायिक कहलाएंगे, ऐसा सोचनेवाले अब सेकुलरों के सामने मुखरित होकर सेकुलरों के स्वार्थी मुस्लिम प्रेम और हिंदू द्वेष के बारे में बोलने लगे, लिखने लगे. इनके सामने जो लोग अभी तक खुद की गणना सहिष्णुता की मूर्ति के रूप में करवाते रहे और लोगों को अपने असली चेहरे को लेकर अंधेरे में रखते रहे, उनका नकाब उतर गया, उनके सेकुलरिज्म को मोहक चेहरा उतर गया. किसी जमाने में आदरणीय माने जानेवाले इन सभी सेकुलरों की कलई खुल गई और फिर जनता इन पर थू थू करने लगी. हिंदू संस्कृति, हिंदू परंपरा और हिंदू धर्म में आस्था रखने को पुरातन पंथी कहा जाता है, गंवार और जाहिल लोग ही ऐसी आस्था रखते हैं, ऐसा सेकुलरों द्वारा आधी सदी से अधिक समय तक किए गए प्रचार की पोल खुल गई. लोग खुलेआम मुस्लिमवादी सेकुलरों को धिक्कारने लगे. कांग्रेस की वोटबैंक की राजनीति बेनकाब हो गई जिससे तमाम कांग्रेसी हिंदुओं को अपने अस्तित्व के लिए खतरा मानने लगे.

धीरे धीरे भाजपा के नेताओं में गर्व का भाव आने लगा और चुपचाप सेकुलरों का थप्पड खा लेने के बदले उनके सामने मुक्केबाजी करने की तैयारी करने लगे. वामपंथी मीडिया अब दुगुने जोर से इन नेताओं पर टूट पडी, लेकिन जनता इन नेताओं के साथ थी. १९८४ के लोकसभा चुनाव में केवल दो सीटों पर चुनाव जीतनेवाली भारतीय जनता पार्टी को १९९२ के बाद के चुनाव में भारत की जनता ने छप्पर फाडकर वोट दिए. १९९६ के लोकसभा चुनाव में भाजपा को १६१ सीटें मिली, जब कि भाजपा के साथ राजनीतिक दलों को मिली सीटें अलग थी.

बाबरी टूटने के बाद सेकुलरवादी और वामपंथी यदि होहल्ला मचाने के बजाय चुप रहे होते तो हिंदुओं के आक्रोश को उभार नहीं मिला होता. सेकुलरवादियों का शुक्रिया.

उन लोगों का अधिक आभार २७ फरवरी २००२ के गोधरा हिंदू हत्याकांड के बाद उनके एटिट्यूड के लिए जिसके कारण हिंदुओं की प्रचंड शक्ति उन्हें कुचलने के लिए सुसज्जित हो गई और २६ मई २०१४ को इस शक्ति का परिचय भी मिल गया.

शेष कल.

आज का विचार

कांग्रेस आई.सी.यू. में है और ये नवजोत सिद्धू बार-बार ऑक्सीजन की पाइप पर पांव रख देता है.

-वॉट्सएप पर पढा हुआ

एक मिनट!

ज्योतिष: बका, तेरी कुंडली में अपार धन है.

बका: ये सब तो ठीक है लेकिन महाराज, ये बताइए कि ये धन कुंडली से मेरे बैंक अकाउंट में ट्रांसफर कब होगा?

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