हम जैसे तीन स्तरों पर जीवन जीते हैं

लाउड माउथ- सौरभ शाह

(बुधवार – ५ दिसंबर २०१८, अर्ध साप्ताहिक पूर्ति, `संदेश’)

जो महापुरुष कुछ हासिल कर गए या जो अध्यात्म के सर्वाच्च शिखर पर पहुँच गए हैं ऐसे लोगों की बात अलग है. उन्हें एक ही स्तर पर जीवन जीना होता है. जो भीतर है वही बाहर है. और दूसरी ओर जो फिल्म-क्रिकेट इत्यादि क्षेत्रों के सेलिब्रिटी होते हैं उन्हें शायद तीन से अधिक स्तरों पर जीवन जीना पडता है. और संभव है कि देश या दुनिया के सबसे धनवान उद्योगपतियों को इन सेलिब्रिटीज से भी अधिक स्तरों पर अपनी जिंदगी जीनी पड सकती है. ये विभिन्न स्तरों का ख्याल होता है इसीलिए कई बार जीवन जीने में गडबडी हो जाती है. ऐसी सतर्कता जब आती है तब की बात तब होगी, लेकिन अभी इतनी जानकारी तो लेनी ही चाहिए कि ये तीन कौन कौन से हैं जिससे हममें समझ बढेगी और समझ बढने से सजगता आएगी और तब जाकर कभी हम अपना गडबडी भरा जीवन सुधार सकेंगे.

पहला स्तर है हमारा सार्वजनिक जीवन जिसमें अनजान लोगों से साथ होते बर्ताव से लेकर परिवारजनों के संबंध शामिल होते हैं. इसमें जिनके साथ थोड़ा बहुत परिचय है ऐसे लोग या जिसे एक्वेंटेंस कहा जाता है ऐसे लोग शामिल हैं. इन जान-पहचान वालों के अलावा ऑफिस के कलीग्स, मित्र, व्यावसायिक संबंध, जाति के लोग, आस पडोस के लोग, चाचा मामा फूफा और कजिन, सेकंड कजिन जिसमें रिश्तेदार तथा निकट के परिवारजन – माता पिता- सास ससुर- भाई बहन ये सब आ जाते हैं. सार्वजनिक जीवन के स्तर की व्याप्ति बहुत बड़ी होती है लेकिन उसमें आनेवाले व्यक्तियों के साथ हमारा बर्ताव, उनके सामने व्यक्त होनेवाले हमारे विचार- ये सब काफी सीमित होता है. यहां पर स्वाभाविकता के बजाय सजगता अधिक महत्वपूर्ण है. कहीं कुछ उल्टा सीधा मुंह से निकल जाए तो भारी पड जाता है. गलतफहमी के कारण कोई गांठ लग जाती है तो उसे खुलने में वक्त लगता है. सार्वजनिक जीवन के इस स्तर पर किस तरह से जीना होता है, ये हमें किसी को सिखाना नहीं पडता. अपने आप आ जाता है. कोई गलती होती है तो दूसरों का निरीक्षण करके या गिरते पडते सुधर जाती है.

जीने का दूसरा स्तर है निजी जीवन का. सार्वजनिक जीवन में जो गिनाए उनमें से कई गिने चुने लोगों के साथ हमारे निजी संबंध होते हैं. सभी के साथ नहीं. मां-बाप के साथ व्यक्तिगत संबंध नहीं होता लेकिन पारिवारिक संबंध तो होता ही है. भाई-बहन के साथ परिवार तक ही संबंध सीमित नहीं हो सकता लेकिन बिलकुल पर्सनल में बदल जाए ऐसा हो सकता है. कभी कभी दूर के चाचा-मामा के साथ व्यक्तिगत संबंध हो सकते हैं. ऐसे कुछेक मित्र या ऑफिस के कलीग्स भी हो सकते हैं. पति या पत्नी या प्रेमी या प्रेमिका या बेटा-बेटी भी व्यक्तिगत संबंध में शामिल हो सकते हैं. व्यक्तिगत संबंध उंगलियों पर गिने जा सकने जितने ही होते हैं. कहने के लिए हम किसी को परिचय देने के लिए ऐसा कह देते हैं कि ये तो पर्सनल फ्रेंड है या फिर बडप्पन हांकने के लिए कहते फिरते हैं कि उनके साथ तो मेरे फैमिली रिलेशन्स हैं, ये बात और है. जीवन में व्यक्तिगत संबंध अधिक से अधिक सिंगल डिजिट में होते हैं. ९ से अधिक १०वां व्यक्तिगत संबंध नहीं हो सकता. ९ भी एक सीमा में बांधने के लिए है. बाकी जीवन में दो-चार निजी संबंध होते हैं. जीवन में इतने भी वास्तविक निजी संबंध हों तो भी जीवन भरा भरा सा लग सकता है.

इन निजी संबंधों में आप खुद को ज्यों का त्यों खोल कर देते हैं ऐसा आप मानते हैं. काफी हद तक ये बात सच भी होगी लेकिन हंड्रेड पर्सेंट सच नहीं है. किसी को बुरा न लगे इसीलिए आप उससे कुछ बात नहीं कहते. कहनी भी नहीं चाहिए. किसी को अच्छा लगने के लिए आप उसके अनुसार बर्ताव करते हैं. इसी तरह बर्ताव करना चाहिए. लेकिन ऐसा करते समय आपको सजग रहना चाहिए कि आपकी वाणी-आपका आचरण सामनेवाले व्यक्ति को संभालने के लिए है, उसकी खुशी के लिए है. निजी संबंधों में हम दिल खोलकर बात कर सकते हैं, खुले मन से बर्ताव कर सकते हैं. लेकिन ये खुलापन सार्वजनिक या सामाजिक संबंधों की बराबरी में फील होनेवाला खुलापन है. सार्वजनिक या सामाजिक जीवन में जो कुछ विशिष्ट संबंध आडे आते हैं वे निजी जीवन में नहीं होते इसीलिए हमें ऐसा लगता है कि जीने में अधिक खुलापन है. सार्वजनिक जीवन के स्तर पर उसके अपने नीति-नियम हैं जिनका पालन हमें करना पड़ता है. निजी जीवन में भी कुछ डूज और डोन्ट्स होते हैं जिनका उल्लंघन हम नहीं कर सकते.

इन दोनों के अलावा जो स्तर है उसकी बात अभी तक हमने किसी से नहीं की है और वह है हमारे आंतरिक विश्व का स्तर. हमारा मनोजगत. हममें निहित अन्य निजी से निजी व्यक्तियों से भी अधिक निजी, हमारे विचारों की दुनिया. जीने में हमारी गडबडी ये होती है कि हम मान लेते हैं कि हमारे इस आंतरिक जगत का द्वार हमें अपने निजी व्यक्तियों के सामने खोल देना है. ये जरूरी नहीं है. इसे बंद रखा जा सकता है. दूसरी गलती ये मान लेने की होती है कि निजी जीवन में हम जिस तरह से व्यक्त होते हैं, उसी प्रकार हम आंतरिक जगत में भी हैं. ये समझना थोडा जटिल है इसीलिए बिलकुल स्थूल और मामूली उदाहरण के साथ समझते हैं. माना कि आपको खाने में थोडी सख्त रोटी अच्छी लगती है (गुजराती के कवि उमाशंकर जोशी किसी के यहां भोजन पर गए थे तब `कडी’ रोटी बनाने की सूचना यजमान की पत्नी को दिया करते थे, ऐसा कहीं पढा है). खाते समय आपकी पत्नी ने जो रोटी बनाई है वह आपके मन लायक नहीं है. आप क्या करेंगे? रसोई में उन्नीस बीस होता है तो हम उसे चला लेते हैं. इस चला लेने का अर्थ ये नहीं है कि हमें अपने आंतरिक जगत में भी अपने जीवन में उन्नीस बीस चला लेना चाहिए. `कडक’ रोटी का उदाहरण तो मामूली और स्थूल है- केवल मुद्दा समझने के लिए लिखा है. जिस प्रकार से हम सामाजिक जीवन में अपने कुछ आग्रहों को छोड देते हैं और उन्हीं आग्रहों को निजी जीवन में सहजता से अमल में ला सकते हैं, उसी तरह निजी जीवन में भी हम बहुत सारे समझौते करते हैं- कई हंसी खुशी करते हैं तो कई करने पडते हैं, इसीलिए करते हैं. सामनेवाले को खुश रखने के लिए करते हैं. लेकिन जो समझौते निजी जीवन में किए जाते हैं उन्हें आंतरिक जीवन में करने की जरूरत नहीं होती. ऐसा कभी नहीं मानना चाहिए कि निजी जीवन में जिन आग्रहों को हम त्याग देते हैं, हम वैसे ही हैं. आप उन आग्रहों को आंतरिक जीवन में संभाल सकते हैं. आपका वास्तविक रूप वही है. वह आंतरिक जीवन ही आपके जीवन की दिशा तय करेगी. अपने किसी निजी व्यक्ति के आग्रह के कारण आप उसके साथ गोवा या बहामा के बीच पर वैकेशन मनाने गए तो गए. आपकी पसंद किसी हिल स्टेशन की थी लेकिन ये आग्रह आपने छोड दिया तो इसका अर्थ ये नहीं है कि आप जीवन में कभी भी लेह लद्दाख नहीं जाएंगे. निजी जीवन के समीकरण भी बदल सकते हैं. उन आग्रहों में बहकर आंतरिक जीवन में बदलाव करना जरूरी नहीं है. ऐसा करने पर हमारा व्यक्तित्व मिटता जाएगा. अपने आग्रहों के कारण, अपने द्वारा नहीं किए गए समझौतों के कारण, अपनी दृढता के कारण और कई सारी जिद के कारण हम जैसे हैं वैसे हैं. इन आग्रहों का – दृढता का त्याग कभी निजी जीवन में करना पडे तो करते हैं, जरूर करते हैं, खुशी से करते हैं क्योंकि ये आवश्यक होता है, कभी कभी अनिवार्य भी होता है. लेकिन सजगताये रखते हैं कि हमारे आंतरिक जगत के साथ किया गया यह एक समझौता है. ऐसा समझौता करने के कारण हम अपने आंतरिक जगत में, अपने मनोव्यापार में बदल नहीं जाते. वहां तो हम वैसे के वैसे ही रहते हैं. हमारे मन हमें जैसा रहने के लिए कहता है हम वैसे रहते हैं. इसीलिए तीन स्तरों पर जी जानेवाली जिंदगी की जानकारी लेना जरूरी है. जिंदगी का अल्टीमेट गोल एक ही है. हमें जैसा रहना है, वैसे ही रहें. किसी के कहने से या परिस्थितियों के दबाव के कारण जो नहीं है वैसा दिखावा भले करें लेकिन वैसे बनते नहीं हैं. भगवान हमें निरंतर याद दिलाया करते हैं कि मैने तुझे किसलिए बनाया है, क्यों इस धरती पर भेजा है, भगवान की इस निरंतर याद दिलाने की प्रक्रिया को सिक्स्थ सेंस कहते हैं जिसे हिंदी में विवेकबुद्धि कहा जाता है- आस पास चाहे जितना कोलाहल हो लेकिन हमें मन जो काम करने के लिए तीव्रता से कहता रहता है उसे हमें अपने आंतरिक जगत में संजो कर रखना चाहिए. क्योंकि सार्वजनिक या सामाजिक जीवन में समझौते करने होते हैं, निजी जीवन में आग्रहों को छोडना पडता है, लेकिन अपने आंतरिक जगत की शुद्धता के साथ कभी खिलवाड नहीं करना चाहिए. वो है तो हम हैं. हमें भगवान वैसा ही बनाना चाहते हैं.

साइलेंस प्लीज

हम जो हैं वही बने रहने का साहत रखना चाहिए- फिर भले ही उसमें हमें डर लगता हो या दूसरों को हम विचित्र लगते हों.

– अज्ञात

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here