सोशल डिस्टेंसिंग और छूआछूत

लाउड माऊथ – सौरभ शाह

( अर्धसाप्ताहिक पूर्ति, `संदेश’, बुधवार २५ मार्च २०२०)

परंपरा से हम लोग साफ-सुथरे, स्वच्छ लोग हैं. मंदिर में तो क्या किसी के घर में भी हम जूते चप्पल पहन कर प्रवेश नहीं करते. किसी जमाने में बाहर से आकर हाथ-पांव और मुंह धोने के बाद ही घर में प्रवेश करते थे. जगह और सुविधा के अभाव में अब ऐसा नहीं होता. इसके बावजूद स्मशान से लौटकर घर से बाहर हाथ पैर मुँह धो लिया जाता है. १४ दिन के क्वारंटाइन (संग रोध) या आयसोलेशन (एकांत) की मेडिकल जरूरत आज कल की संकल्पना है. कोरोना के समय में प्रचलित हुई यह संकल्पना बहुत बहुत तो एकाध सदी से प्रचलित है. हमारे यहां भगवान जगन्नाथ के जमाने से चली आ रही है. मृत्यु के बाद तेरह दिन या ३० दिन का सूतक पालने के पीछे के कई कारणों में से एक कारण ये भी है कि जो व्यक्ति स्वर्गवासी हुआ है उसे अग्निदाह देनेवाले लोगों में से किसी को मरनेवाले के रोगाणु से कोई संक्रमण हुआ हो तो वह अन्य लोगों तक न फैल सके. सूतक का अर्थ ही होता है रोकथाम या हडताल! जो सूतकी होता है उसे अशुद्ध माना जाता है. भारतीय परंपरा को, उम्दा बातों को आज अंधविश्वास में खपा दिया जाता है, जिसके पीछे किसका बड़ा हाथ है? अंग्रजों के आते ही यहां पर मतांतरण करने आए इसाई मिशनरियों का और भारत के इतिहास – रीति रिवाजों-परंपराओं की मूल भावना के साथ छेडछाड करके हमें गलत पाठ पढा चुके साम्यवादी इतिहासकारों का तथा वामपंथी शिक्षाविदों का.

सूतक जैसी वैज्ञानिक संकल्पना महिलाओं के लिए थी. लोकभाषा में कहा जाता था कि `मासिक’ में है. महीने के पांच दिन स्त्री को घर का कोई काम न करना पडे, इस आशय से यह रिवाज शुरू हुआ था कि कोई उसे छूए नहीं, वह खुद भी किसी दूसरे को न छुए. प्रकृति की एक स्वाभाविक प्रक्रिया को शबरीमला मंदिर में प्रवेश का अधिकार मांगने वालों ने चर्चा के रथ पर चढा दिया. स्त्री स्वतंत्रता के नाम पर, जो नास्तिक हैं वे मंदिर में प्रवेश का अधिकार मांगने के लिए सुप्रीम कोर्ट तक लडे और समाज में तीखा संघर्ष खडा कर दिया. मेडिकल साइंस की समस्त प्रगति के बावजूद माहवारी के दिनों में न तो स्त्री के पेडू का दर्द कम हुआ है, न ही प्री-मेंस्ट्रुअल स्ट्रेस (पी.एम.टी.) के नाम से जानी जानेवाली मानसिक पीड़ा में कोई कमी आई है. लेकिन पश्चिम की देखादेखी और स्त्री को `पुरुष के बराबर’ खडा कर देने के जोश में हम उस शारीरिक-मानसिक दर्द को भी नजरअंदाज करने लगे. अब जाकर ऐसी मांग उठ रही है कि इन दिनों में  महिलाओं को ऑफिस से छुट्टी मिलनी चाहिए. हमारे यहां तो हजारों साल से रजस्वला नारी को घर के काम से `छुट्टी’ दी जाती रही है.

रजस्राव वाली महिला को नही छूने की बात तो महीने के पांच दिन की है. लेकिन पूरे महीने, बारह मास बिना नहाए रसोई में न जाना या भगवान को नहीं छूना या मुँह में अन्न नहीं डालना, ये रिवाज तो आज भी अनगिनत भारतीय परिवारों में है. स्वच्छता का पाठ तो हमें जन्म से ही मिला है.

आज वह जमाना नहीं रहा, इसीलिए उस प्रथा की अब कोई जरूरत भी नहीं है. लेकिन किसी समय ये सामाजिक अनिवार्यता थी. छुआछूत और अस्पृश्यता की बात करनी है. सुबह शौचक्रिया के लिए हमारे बुजुर्ग हजारों वर्ष से खेत में जाते, जंगल जाते, मैदान जाते थे. मुगलों के आक्रमण के बाद देश में डिब्बेवाली कोठरी आ गई क्योंकि मुगलों के हरम में रहनेवाली पर्दानशीं महिलाएं खुले में नहीं जाया करती थीं. इन डिब्बों की सफाई कौन करेगा? मुगलों के आक्रमण के बाद जनता के लिए तीन ही विकल्प बचते थे. एक- जितनी मांगें उतना कर दीजिए. दो- कर भरने की ताकत या इच्छा नहीं है तो इस्लाम स्वीकार करो. और तीन- ऊपर की दोनों शर्तें यदि मान्य नहीं हैं तो मौत को गले लगाओ. लेकिन ये डिब्बेवाली कोठरी बाद में आया चौथा विकल्प है- हम जो कहें वह काम करो.

जिन गरीब भारतीयों को अपना धर्म प्यारा था, उन्होंने धर्म बदलने के बजाय अपनी जान बचाकर इस काम की जिम्मेदारी अपने सिर पर ले ली.

छुआछूत की प्रथा यहीं से शुरू हुई. यह काम करते करते उनमें दो – तीन पीढियों के बाद रोगप्रतिरोधक शक्ति बढती गई. इम्युनिटी आ गई. जैसे अमेरिकी शिशु लगातार सुरक्षित वातावरण में रहता है जिससे कि वह भारतीय बालक जैसा दृढ नहीं बनता या जैसे विदेश से आए मेहमान भारत में बाहर का खाना खाने के बाद बीमार पड जाते हैं लेकिन हमें कुछ नहीं होता, कुछ वैसी ही इम्युनिटी उन लोगों की थी. गंदगी के साथ काम करने के व्यवसाय के कारण अन्य लोगों को उनसे सुरक्षित अंतर रखना जरूरी था. उनके साथ भेदभाव करने के लिए नहीं बल्कि स्वास्थ्य के साथ समझौता नहीं करने के लिए अस्पृश्यता का चलन शुरू हो गया.

उस जमाने में मॉल, थिएटर्स, हॉल्स, पार्क, स्टेडियम या स्टेशन थे ही नहीं जहां लोग इकट्ठा होते. सिर्फ मंदिर ही थे जो केवल धार्मिक ही नहीं बल्कि सामाजिक मेल मिलाप का स्थान माने जाते थे. उन लोगों को मंदिर में प्रवेश नहीं देने के कारणों में सामाजिक बहिष्कार नहीं बल्कि स्वच्छता तथा हाइजीन के आग्रह थे. भीड में संक्रमण फैलने की संभावन कितनी बढ जाती है, इस बात की जानकारी आज के जमाने के लोगों को कोरोना के कारण होनेवाले जनता कर्फ्यू या लॉकडाउन या सोशल डिस्टेंसिंग के समय हो रही है. हमारे पूर्वजों को यह बात हजारों साल पहले ही पता थी.

जमाना बदला. अंग्रेजों के आने के बाद इस सामाजिक प्रथा को एक भयानक रूप दिया गया जिससे छुआछूत को खत्म करने के नाम पर समाज के एक वर्ग से सहानुभूति प्राप्त की जा सकती है. अस्पृश्यता के निवारण के नाम पर शोरगुल शुरू हो गया. असल में उस वर्ग के लोगों में अब इक्का दुक्का मामलों के अलावा कहीं भी पुराने काम नहीं होते. हर किसी के आरक्षण का लाभ लेकर या बिना लिए‍ अपने बल पर सरकारी नौकरियां मिल रही हैं, शिक्षक-डॉक्टर-कलेक्टर बन रहे हैं, ए‍मएलए-एमपी-राष्ट्रपति बन रहे हैं. उस तरह की अस्पृश्यता नहीं रही. लेकिन जब उसकी जरूरत थी, उस समय को हमारा पिछडापन बताने के लिए अभी भी कई बहादुर लोग आतुर रहते हैं.

स्वच्छता का कितना महत्व है, हाइजीन का ख्याल कैसे रखें, सोशल डिस्टेंसिंग से होनेवाले लाभ- ये सारा ज्ञान कोरोना वायरस के कारण दुनिया को मिल रहे हैं. हाथ मिलाकर शेकहैंड करनेवाले लोगों को मॉडर्न या फॉरवर्ड माननेवाली दुनिया हमारे हजारों साल पुराने नमस्ते को नमस्कार करने लगी है.

कोई भी रोग फैलता है तब शरीर की रोग प्रतिरोधक शक्ति उसके सामने सबसे बडी ढाल बन जाती है. इम्युनिटी पाने के लिए अभी बाकी दुनिया चक्कर काट रही है. जबकि हमारी परंपरा में यह स्वाभाविक रूप से बुनी गई है, अपने दैनिक खान पान को स्वादिष्ट भी बना रहे हैं- हजारों साल से. हल्दी, नीम, मेथी, सरसों से लेकर दर्जनों इम्युनिटी बढानेवाले घटक हम बचपन से आहार में लेते रहे हैं. भारत में आज की तारीख में कोरोना ग्रस्त नागरिकों की संख्या तथा उसके कारण मरनेवालों की संख्या चीन, इटली, अमेरिका, ईरान की तुलना में बिलकुल नगण्य है, जिसका कारण ये है. हमारी इम्युनिटी हमारे आहार में घुल मिल चुकी तुलसी, हल्दी, मेथी इत्यादि के कारण काफी बढ गई है और सोशल डिस्टेंसिंग के फायदे हम हजारों वर्षों से जानते हैं जिसे सूतक, माहवारी के दिन, छुआछूत इत्यादि की परंपरा के चलते अन्य लोग अभी तक हमें अंधविश्वासी मानते रहे, पिछडा हुआ मानते रहे. भला हो कोरोनावायरस का जिसने दुनिया के सामने साबित कर दिया कि सचमुच में सुधरी हुई जनता कौन है और पिछडी जनता कौन है.

सायलेंस प्लीज़!

आषाढी दूज के दिन रथयात्रा निकलने से १४ दिन पहले भगवान जगन्नाथ को सर्दी हो जाती है और उनकी इस बीमारी के कारण उन्हें क्वारंटाइन किया जाता है, जिसे अनासार कहते हैं. बीमारी के दौरान दो सप्ताह के एकांतवास की जरूरत को आधुनिक विज्ञान ने माना है और भारत ने तो इसे हजारों साल पहले से स्वीकार किया है.

– संकलित

1 COMMENT

  1. Excellent sir, fully agreed. Eye opener for our old rituals and traditions with their roots, cause with remedy, Thanks sir

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