(गुड मॉर्निंग क्लासिक्स : मंगलवार, २१ अप्रैल २०२०)
स्पर्धा और सफलता मानवजाति के सबसे पुराने और परिचित रोगों के नाम हैं. लॉकडाउन के दौरान आपको सबसे बडी बात कौन सी सीखने का मिली? यह सवाल बात ही बात में मैने अपने एक सेल्फमेड युवा संभ्रांत मित्र से जब पूछी तब किसी गहन विषय पर चर्चा करने की इच्छा से नहीं पूछी थी. उसने भी कैजुअली जवाब दिया था. लेकिन फोन रखने के बाद लगा कि बहुत बडी बात उन्होंने काफी सहजता से कह दी. मुझसे कहा: `अभी तक किसी के पास पचास देखकर मुझे इक्यावन बनाने का विचार आता था. मुझे मेरे उनचास कम लगते थे. कोरोना के बाद ऐसा लगा कि जो है उसका भी उपयोग नहीं कर सकते तो इक्यावन बनाकर मुझे किसे दिखाना है?
जीवन में कुछ हासिल करने का ये अर्थ निकाला गया कि `किसी के समान’ या `उससे भी अधिक’ हासिल करना. स्पर्धा का जन्म यही से होता है. धन, प्रसिद्धि और सत्ता जैसे बाहरी तथा भौतिक लक्षणों द्वारा ही व्यक्ति की सफलता को परखने के आदी हो चुके समाज में स्पर्धा एक अनिवार्य अंग बन गई. किसी के भी साथ दौडे बिना, अकेले दौडकर ही लक्ष्य तक पहुंचने में अब संतोष नहीं मिलता. किसी से पहले पहुंचने में, किसी से आगे निकलने में ही संतोष मिलता है. फिर भले ही वह गंतव्य आपका निर्धारित लक्ष्य न हो.
एक अच्छी बात बी.आर. चोपडा ने वर्षों पहले किसी इंटरव्यू में कही थी. नई पीढी के पाठकों के लिए बी.आर. चोपडा यानी डीडीएलजे के डायरेक्टर आदित्य के चाचा और जब तक है जान वाले यशजी के बडे भाई. अगली पीढी के लिए बी.आर. चोपडा की पहचान जरूरी नहीं है.चोपडाजी ने अपने निर्देशन में पहली फिल्म `अफसाना` बनाने का फैसला किया था ये तब की बात है. करीब ७० साल पहले की, १९५०-५१ की बात है.
स्टोरी काफी दमदार थी और डबल रोल निभाने के लिए हीरो के नाते एक मजबूत अभिनेता की जरूरत थी. चोपडा साहब ने अपने निर्देशन में ये पहली फिल्म बनाने के लिए दिलीप कुमार से संपर्क किया. दिलीप कुमार उस समय महबूब खान की `अंदाज़’ (१९४९) में काम करके स्टार बन गए थे. उन्हे `अफसाना’ की कहानी अच्छी लगी. लेकिन इस रोल के लिए उनका चयन गलत है, ऐसा उन्होंने कहा. न्यायाधीश की भूमिका निभाने के लिए मैं बहुत ही छोटा लगूंगा. आप एक काम कीजिए अशोक कुमार इस रोल के लिए बिलकुल फिट हैं, उनसे संपर्क कीजिए- ऐसा दिलीप कुमार का कहना था. वह रोल अशोक कुमार ने निभाया. `अफसाना’ हिट हो गई. उसके बाद बी.आर. चोपडा ने अपनी खुद की प्रोडक्शन कंपनी स्थापित की.
कुछ साल बाद और कुछ और सफलताओं के बाद चोपडा साहब के हाथ में एक नया प्रोजेक्ट आया. फिर दिलीप कुमार की याद आई. उनसे जाकर मिले. वह सब्जेक्ट इंडस्ट्री में काफी लोगों के पास घूम चुका था. वासन, राज कपूर, महबूब खान, एस. मुखर्जी सभी इस स्टोरी को रिजेक्ट कर चुके थे. लेकिन बी.आर. चोपडा को विश्वास था कि उसके आधार पर सुपर हिट फिल्म बनाई जा सकती है, यदि अच्छा हीरो मिल जाय तो. दिलीप कुमार के कान पर भी वह स्टोरी पड चुकी थी. चोपडाजी उनसे मिले और बात शुरू की तो तुरंत ही उन्होंने कहा,`वो तांगेवाले की स्टोरी है ना?’ नहीं भाई नहीं, उसकी बात रहने दो.’ थक हार कर चोपडा फिर से अशोक कुमार के पास आए. दादामुनी ने स्टोरी सुनकर कहा कि कहानी बहुत ही अच्छी है, आपमें गजब का स्टोरी सेंस है. लेकिन इसमें हीरो के रूप में मैं नहीं चलूंगा. गांव के आदमी के रूप में कुछ ज्यादा ही सॉफेस्टिकेटेड लगूंगा. मेरे हिसाब से यह रोल यूसुफ ही कर सकता है.
पर यूसुफ साहब तो मना कर चुके हैं. इस पर अशोक कुमार ने आश्वासन दिया कि मैं उन्हें समझाऊंगा और फिर एक बार दिलीप कुमार से संपर्क करने को कहा. दिलीप कुमार ने अंत में उस फिल्म को स्वीकार कर लिया, और इतना ही नहीं उसमें जान लगाकर काम किया, इतना ही नहीं शुरूआत में जो हिरोईन थी मधुबाला, खुद उनसे प्यार करने के बावजूद जब मधुबाला के पिता और चोपडा साहब कोर्ट में मुकदमा लडे तब दिलीप कुमार ने निजी भावनाओं को दरकिनार करके चोपडाजी को कोई प्रोफेशनली नुकसान न हो इसलिए उनके साथ खडे रहे. यह फिल्म `नया दौर’ के नाम स रिलीज हुई, बॉक्स ऑफिस पर इतने इतिहास रच डाला.
आज की तरीख में कोई निर्माता किसी हीरो संपर्क करे तो क्या वह हीरो कहेगा कि ये रोल मैं नहीं बल्कि मेरा प्रतिस्पर्धी अधिक न्यायपूर्वक कर सकता है. संभावना तो ये है कि जैसे ही पता चलेगा कि रोल के लिए एक अभिनेता को लेने के लिए चर्चा चल रही है तो उसमें अडंगा डालने के लिए वह तुरंत पहुंच जाएगा.
बिना स्पर्धा की भी सफलता हासिल की जा सकती है, इसके दो ज्वलंत उदाहरण हैं. अशोक कुमार और दिलीप कुमार. क्या आज ऐसा वातावरण है? नहीं, बिलकुल नहीं. तो कैसा है? किसी जमाने में टीवी पर कपडे धोने के साबुन का विज्ञापन आता था: भला उसकी कमीज मेरी कमीज से ज्यादा सफेद कैसे? और आज की तारीख में भी रीयल लाइफ में देखें तो अपनी कमीज को अधिक सफेद बनाने की धुन में कपडा पूरी तरह से घिस जाता है, इसकी भी परवाह नहीं रहती. क्लाइमेक्स तो तब आता है जब सफेदी लाने के तमाम प्रयास विफल हो जाने के बाद दूसरे की कमीज पर काला रंग लगाने की कोशिश शुरू हो जाती है. फिल्म इंडस्ट्री में ही नहीं, हर क्षेत्र में यही हाल है. किसी को कोई सीख देने जैसा नहीं है. जाएंगे तो दोनों पक्ष आपकी कमीज भी खींचकर चीथडे चीथडे कर देंगे.
स्पर्धा यानी खुद आगे बढने का प्रयास करना, कल की तुलना में आज अधिक काम करना. दूसरों की तुलना में खुद कहां हैं, ऐसा नजरिया नहीं रखना.
लॉकडाउन शुरू होने से पहले परीक्षा का मौसम था और लॉकडाउन खुलने के बाद परिणाम आने लगेंगे. कई स्कूलों में वार्षिक परीक्षा के बाद कक्षा में पहला नंबर किसका है, और दूसरा कौन, तीसरा कौन, इस रैंकिंग सिस्टम को छोड दिया गया है. कम से कम प्राथमिक कक्षा में तो ऐसा ही किया गया है. मेडिसिन जैसे क्षेत्र में एक एक मार्क से दाखिले का निर्णय होता है तब स्वाभाविक है कि माता पिता बारहवीं में पढ रहे बच्चे को कोसिंग क्लास और प्रायवेट ट्यूशन्स में चाबुक मार मार कर रेस जिताने का प्रयास करते हैं. बिलकुल स्वाभाविक है और शायद ये जरूरी भी हो. लेकिन ऐसा करते समय जब एक सावधानी नहीं रखी जाती है तब वह संतान बडी होकर दूसरे की बीएमडब्ल्यू देखकर अपनी होंडा सिटी को तिरस्कार से देखने लगता है. सावधानी सिर्फ इतनी ही रखें कि मेडिसिन में इच्छित क्षेत्र में दाखिला नहीं मिलने से आसमान नहीं टूट पडनेवाला है और उसी क्षेत्र का आग्रह यदि हो तथा थोडे अंक कम मिले हों तो पहली पसंद के कॉलेज के अलावा भी भारत में दर्जनों शिक्षा संस्थान हैं. वहां पर जाने की तैयारी रखनी चाहिए. दूसरी बात. कुछ नहीं मिल पाने से जीवन में पूर्ण विराम नहीं लगता. जो इच्छा है वह यदि न भी मिले तो मान लेना चाहिए कि प्रारब्ध में उससे भी बेहतर मिलने का लिखा होगा. यह बात बारहवीं कक्षा के बच्चों को माता पिता ने समझाना चाहिए. लेकिन उससे पहले माता पिता को समझना चाहिए कि दूसरे के पचास देखकर इ्क्यावन बनाने का विचार छोड देंगे तो उनचास का असली स्वाद ले सकेंगे.
आज का विचार
मनुष्य मात्र दुविधा में है कि परिवर्तन उसे पसंद होने के बावजूद वह उसे धिक्कारता है. मनुष्य को वास्तव में सब कुछ वैसे का वैसा ही चाहिए, लेकिन हर वस्तु जैसी है उससे बेहतर बने इतनी ही उसकी चाह है.
– सिडनी जे. हैरिस (अमेरिकी पत्रकार और लेखक जिनका `स्टिक्टली पर्सनल’ नामक वीकली कॉलम अमेरिका-कनाडा के दौ सौ अखबारों में एक साथ प्रकाशित होता था. जन्म: १९१७- निधन:१९८६)