सभी को साथ लेकर चलना यानी क्या

गुड मॉर्निंग- सौरभ शाह

(मुंबई समाचार, गुरुवार – ६ सितंबर २०१८)

तीसरा इंग्रेडिएंट है – सभी को साथ लेकर चलने की प्रवृत्ति.

जिंदगी में मतभेद तो होंगे ही. सभी के साथ होंगे. जिनके साथ सबसे अच्छी जमती है उनके साथ भी होंगे. जो लोग हमारे सबसे करीब होते हैं उनके साथ सबसे अधिक मतभेद होंगे. इन मतभेदों को सुलझाने आना चाहिए और जो मतभेद सुलझाए नहीं जा सकते हैं उन्हें एक ओर रखकर साथ मिलकर आगे बढना आना चाहिए.

मतभेद हो तो भी मनभेद नहीं होना चाहिए ऐसी घोल घोल कर कही गई बात में अनुप्रास बिठाने के अलावा कुछ भी नहीं है. ऐसी तुकबंदी से भरे वाक्यों को बोलना और लिखना चमत्कारिक लगता है लेकिन उसमें जब भीतर उतरने का प्रयास होता है तब पता चलता है कि इसमें कोई गहराई नहीं है, कोई चिंतन नहीं है या कोई श्रेष्ठ विचार नहीं है, केवल एक सतही सौंदर्य है. अज्ञानी और अनपढों को लुभाने की चालाकी भर है. मतभेद- मनभेद वाला शब्द प्रयोग भी ऐसा ही एक उथला कथन है जिसके झांसे में पडकर चकित होने की जरूरत नहीं है.

वाजपेयी ने लगातार पांच साल तक जो एन.डी.ए. की सरकार चलाई उसमें लगभग दो दर्जन छोटे-बडे राजनीतिक दल सत्ता में साझेदार थे. सभी के साथ भाजपा का मतभेद था. उन सभी में अधिकांश दलों के भी एक दूसरे के साथ मतभेद थे. मनभेद वाली तो बात ही कहीं नहीं थी, क्योंकि उनके साथ आने से पहले सभी के बीच मनमेल था ही कहां? मनमेल न हो तो भी मतभेदों को एक तरफ रखकर स्थिर शासन दिया जा सकता है. आर्टिकल ३७०, राम मंदिर और समान नागरिक कानून जैसे तीनों मुद्दे भाजपा ने अपने चुनावी घोषणापत्र में लिखे थे. लेकिन अन्य दलों को साथ लेकर जब सरकार बनी तब जो कॉमन मिनिमम प्रोग्राम बना उसमें ये तीनों मद्दे नहीं थे. यदि ऐसा न हुआ होता तो सरकार ही नहीं बनती और भाजपा को लगातार पांच साल सरकार चलानी आती है यह बात देश के मतदाताओं के सामने साबित नहीं होती. जनता को यह भी पता नहीं चलता कि कांग्रेस की तुलना में भाजपा बहुत अच्छा शासन देने में सक्षम है. वाजपेयी सरकार के उस परफॉर्मेंस के बिना २०१४ में क्या मोदी सरकार न बनी होती? डाउटफुल है. नींव वाजपेयी ने रखी और इमारत मोदी ने बुलंद की. आधारशिला रखने के लिए वाजपेयी को कइयों के अपशब्द सुनने के बाद भी अन्य राजनीतिक दलों के साथ मतभेद पैदा करनेवाले (और भाजपा के लिए महत्वपूर्ण) तीनों मुद्दों को एक तरफ रख देना पडा.

मनभेद जैसा शब्द केवल तुकबंदी जमाने के लिए रचा गया है और यह गलत तरीके से प्रचलित हुआ शब्द है. इसके रूढिगत प्रयोग से बाहर निकल आएंगे तो मनमेल और मतभेद वाली बात को अधिक अच्छे से समझ सकेंगे. वाजपेयी ने जिस प्रकार से मनमेल बिना की सरकार चलाने के लिए मतभेदों को दरकिनार करना पडा उसी प्रकार से जिंदगी में महान कार्य करने के लिए जिनके साथ मनमेल नहीं होता है उनके साथ कॉमन मिनिमम प्रोग्राम बना कर आगे बढना चाहिए. गांधीजी से लेकर बच्चनजी तक हर कोई इसी तरह से आगे बढकर महानता के शिखर पर पहुंचा है.

सभी को साथ लेकर चलने का अर्थ ये नहीं है कि अपना इच्छित कार्य नहीं करना. महान लोगों को अपनी ठानी हुई बात ही करनी चाहिए. दूसरों के मन की तो गुलाम करते हैं. अपने मन की करने के लिए दो बातें चाहिए. एक तो नीरक्षीर विवेक और दूसरी दृढता. क्या अच्छा है, क्या सत्य है, इसे परखने का हुनर ही नीरक्षीर विवेक है. कभी ऐसा भी होता है कि जो सत्य और अच्छा है, उसका भी तात्कालिक रूप से त्याग करना पडता है. यह त्याग कब करना है और कब नहीं करना इसकी निर्णयशक्ति भी आपमें तभी आती है जब आपमें नीरक्षीर विवेक हो. पानी और दूध को अलग करने की कला हर किसी में नहीं होती. जिनमें यह दुर्लभ गुण होता है वे कई बार ऐसा विवेक दिखाने के बाद दृढ नहीं रह सकते. बिना दृढता के नीरक्षीर विवेक बहुत काम का नहीं रह जाता.

सभी को साथ लेकर चलने के लिए आपको शरारती लोगों को खपा लेने की जरूरत नहीं है. उन्हें दंड दें या साइडलाइन करके उपेक्षित कर दें, यह परिस्थिति पर निर्भर है. लेकिन यदि उन्हें चला लेंगे तो उनका मन बढेगा और वो ज्यादा फुदकने लगेंगे जिससे आपके वास्तविक सपोर्टर्स में असंतोष पैदा होगा, वे आपसे दूरी बनाने लगेंगे. और कमजोर नजर आएंगे और अधिक कमजोर होते जाएंगे.

सभी को साथ रखने की कला सीखने के लिए आपने दृष्टि होनी चाहिए कि किस व्यक्ति मे क्या गुण है और आपके ध्येय के लिए उस खूबी का उपयोग आप किस तरह से कर सकते हैं और उस उपयोग के बदले में आप उसे क्या प्रतिफल दे सकेंगे.

इस दुनिया में कोई भी चीज बेकार नहीं है. हर निर्जीव वस्तु का कोई न कोई महत्व तो है ही. यदि निर्जीव वस्तु पूरी तरह से बेकार नहीं होती है तो सजीव व्यक्ति किस तरह से पूरा बेकार हो सकता है. हर व्यक्ति किसी न किसी रूप में आपके जीवन के लिए काम का हो सकता है. आपको ये देखना है, तौलना है कि उस व्यक्ति में आपके लिए जो कुछ भी काम का है उसका कितना प्रतिफल देना उचित होगा. कभी कभी आपको महंगा दिखने वाला सौदा भी करना पडता है. रेलवे स्टेशन पर बारह-पंद्रह रुपए में मिलनेवाली पानी की बोतल के लि आपको सहारा के रेगिस्तान में पांच सौ रूपए भी खर्च करने पडते हैं, और तब अफसोस नहीं होता. आपको पता हाता है कि पूरी जिंदगी आपको सहारा के रेगिस्तान में तो नहीं बितानी है. और भगवान न करे सहारा के रेगिस्तान में ही सारा जीवन व्यतीत करना पडे तो पांच रूपए की पानी की बोतल के बदले कोई अन्य विकल्प भी मिल जाएगा.

सभी को साथ लेकर चलने का अर्थ ये भी नहीं है कि आपका कोई विरोधी नहीं होगा. जिन्हें स्पष्ट रूप से पता है कि क्या अच्छा है और सच्चा है तथा यह जानकारी होने पर भी जो अपने विचारों पर अडिग रहते हैं, उनके तो विरोधक भी होंगे ही. लेकिन एक बार अपने विचार पर आपकी आस्था दृढ हो जाती है तो फिर विरोधी चाहे जितना कंकड- पत्थर – पहाड आप पर फेंके, आपको तो उन्हें लपककर उन्हीं के आधार पर किले को अधिक से अधिक बडा करते जाना है.

लोगों को आपके खिलाफ करने से ताकत नहीं मिलती बल्कि उन्हें आपके साथ जुडने से मिलती है, ऐसी चाणक्य नीति की डींग हांकनेवाला डायलॉग किसी हिंदी फिल्म में इस्तेमाल हो चुका है और ये शतप्रतिशत सत्य है. हर महान व्यक्ति लोगों को अपने साथ जोडकर आगे बढता जाता है, लोगों को अपने विरुद्ध करके नहीं. यहां पर बहुत ही पेचीदा स्थिति पैदा होती है. एक तरफ तो हम मानते हैं कि लोगों को अपने विरुद्ध नहीं करना चाहिए और दूसरी तरफ हम कहते हैं कि दृढता रखनेवाले ही महान बनते हैं और जो अपने विचारों पर दृढ हैं उनके विरोधी तो होंगे ही. इस दूविधा को कैसे हल करेंगे. प्रत्यक्ष रूप से तो यहां पर विरोधाभास है और यह असमंजस की स्थिति पैदा होती है कि दोनों में से अच्छा क्या है?

इस पर कल सोचेंगे.

आज का विचार

 सूरज की निगाहों पर उदासी चढी है,

तेरे बिना शाम सिसकियां ले रही है.

दहलीज पर मुझे छोडकर अकेला,

अब प्रतीक्षा खुद झरोखे पर खडी है.

तुमने मेरा नाम कभी लिखा था जहां,

मधुमालती आज उसी दीवार पर चढी है.

जरा गुनगुना लूं महफिल में तुम्हारी,

भूली हुई पंक्तियां फिर जबान पर चढी हैं.

– भगवतीकुमार शर्मा

(३१-५-१९३४ से ५-९-२०१८)

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