रेलवे राजू से राजू गाइड तक का सफर

गुड मॉर्निंग- सौरभ शाह

(मुंबई समाचार, शनिवार – २२ सितंबर २०१८)

मालगुडी स्टेशन की रखवाली कर रही लोहे की मोटी सलाखों के बीच से छोटा राजू प्लेटफॉर्म में घुस गया, वहीं से इंजिन और उसके पीछे लगे डिब्बों ने प्रवेश किया. प्लेटफॉर्म पर मेज पर दावत के व्यंजन सजाकर रखे गए हैं. एक एक कर सभी महानुभावों ने खडे होकर प्रसंगानुसार भाषण दिया, सभी ने नाश्ता पानी किया. सबने तालियां बजाईं. फिर से बैंड की धुन गूंज उठी. इंजिन की सीटी बजी, प्लेटफॉर्म पर घंटी बजाई गई, गार्ड ने भी सीटी बजाई. नाश्ता कर रहे महानुभाव ट्रेन में अपनी अपनी जगह बैठ गए. राजू भी ट्रेन में चढना चाहता था, लेकिन पुलिस का भारी बंदोबस्त था. धीरे- धीरे ट्रेन आंखों से ओझल हो गई और स्टेशन से बाहर जुटी भीड को स्टेशन पर प्रवेश मिला. उस दिन राजू के पिता की दुकान पर रेकॉर्ड तोड बिक्री हुई.

धंधा बढता गया. पिता ने बडे गांव में खरीदी के लिए आने जाने के लिए एक तांगा खरीद लिया. मां ने मना किया था. हम खर्च नहीं झेल पाएंगे. बेकार की झंझट, लेकिन पिता समृद्धि के सपने देखने लगे थे, पर अंत में पिता के तांगे का खर्च पूरा करना भारी पडने लगा. घोडे की देखभाल के लिए जिसे रखा था वह आदमी चालाकी से बिलकुल सस्ते में घोडा और गाडी दोनों उठा ले गया. भला हुआ, जी का जंजाल छूटा.

रेलवे वालों ने पिता को स्टेशन पर एक दुकान चलाने के लिए दी. सीमेंट की पक्की दुकान थी. मां ने ताना मारा कि अब आप मोटर गाडी ही खरीद लेना. पिता बडे गांव जाकर खूब सारा माल लाने लगे. समय बीतने पर पिता ने यह नई दुकान चलाने की जिम्मेदारी राजू को सौंप दी, खुद पुरानी-छप्परवाली दुकान पर बैठे रहते. मालगुडी स्टेशन से रोज दो ट्रेनें गुजरती थीं. दोपहर में मद्रास से एक आती और शाम को एक त्रीची से आती. राजू ने दूकान संभाल ली जिसके कारण उसकी स्कूल छूट गई. दुकान में माल सामान बेचने के साथ खाली वक्त में राजू रद्दी में से अखबार-पत्रिकाएं लाकर पढता था.

कालक्रम में पिता का देहांत हो गया. बचत हो रही थी. मां का गुजर बसर सुख से चल सकता था. राजू को उसकी कोई चिंता नहीं थी. राजू वह छप्परवाली दुकान बंद कर दी और सारा दिन स्टेशन की दुकान पर ही रहा करता. राजू को लोगों के साथ बात करना अच्छा लगता. मालगुडी में स्कूल के अलावा अल्बर्ट मिशन कॉलेज भी खुल गया था. कॉलेज में आनेवाले विद्यार्थी दुकान के पास खडे हो कर ट्रेन का इंतजार करते. राजू ने नारियल-संतरे की जगह किताबें बेचने का काम शुरू किया. राजू कई बार तो किताबों की अनोखी दुनिया में खो जाता.

अब लोग उसे `रेलवे राजू’ के नाम से गांव में पहचानने लगे. अनजाने लोग आकर उससे पूछते थे कि कौन सी ट्रेन कितने बजे आएगी. ट्रेन से उतरनेवाले मुसाफिर राजू की दुकान पर आकर सोडा या सिगरेट मांगते और किताबों पर निगाह डालते: फलानी जगह यहां से कितनी दूर है, फलानी जगह पर जाना हो तो कैसे जा सकते हैं? सरयू नदी मालगुडी से होकर गुजरती है, लेकिन नदी का उद्गम कहां है? कितना रमणीय स्थल होगा ना वह?

मुझे पता नहीं- ऐसा कहना राजू के स्वभाव में नहीं था. यदि राजू को `मुझे नहीं पता या आप क्या कह रहे हैं’, कहना आता तो उसकी जिंदगी ने अलग ही मोड ले लिया होता, लेकिन उसके बजाय राजू कहता,`अरे हां, बहुत ही सुंदर जगह है. आपने नहीं देखी? टाइम निकालकर जाना चाहिए. अगर नहीं गए तो समझो मालगुडी में आना बेकार गया.’

राजू किसी को धोखा देने के लिए झूठ नहीं बोलता था, लोगों को खुश करने के लिए ऐसा बोला करता था. कई लोग राजू से वहां पर जाने का रास्ता पूछते थे.

`ऐसा कीजिए, उस रास्ते पर चले जाइए, वहां से बाजार का चौराहा आएगा और वहां किसी भी टैक्सीवाले से पूछिएगा, वह ले जाएगा’, राजू जवाब देता, लेकिन कई यात्रियों को इस जवाब से संतोष नहीं मिलता था. कई उसे बाजार तक आकर रास्ता दिखाने के लिए कहते, कई टैक्सी करा देने की प्रार्थना करते.

स्टेशन पर एक पोर्टर था. उसका एक बेटा था. राजू उस लडके को दुकान सौंपकर मुसाफिरों को टैक्सी दिलाने में मदद करता. बाजार के फौव्वारे के पास गफूर नाक का एक टैक्सीवाला खडा रहता. राजू उससे कहता,`गफूर, ये मेरे मित्र हैं, इन्हें फलानी जगह पर छोड आ…’ भावताल करके टैक्सी तय होती. मुसाफिर को जिस भाव में उस जगह जाना होता था राजू झिकझिक करके गफूर को मना लेता था, लेकिन अगर मुसाफिर गफूर की गाडी की खटारा हालत देखकर शिकायत करते तो राजू गफूर का पक्ष लेकर कहता,`आपको जहां जाना है वहां पर कई जगहों पर तो सडक भी नहीं है. यही गाडी आपको अंत तक ले जाएगी.’

राजू को आश्चर्य होता कि लोग भी कैसे कैसे होते हैं. घर की सुख सुविधाएं छोडकर निकल पडते हैं और खाने पीने, रहने, सोने की तमाम असुविधाओं के बावजूद सैकडों मील दूर जाकर नई नई जगहें देखने का शौक रखते हैं. वैसे राजू कुछ बोलता नहीं था लेकिन सोचता रहता था कि सरयू नदी खुद पहाडों से अटखेलियां करती सामने से बिलकुल मेरे गांव तक मिलने आ गई हो तो उसे देखने के लिए बिलकुल दूर उसके उद्गम स्थल तक जाने की जरूरत क्या है!

रेलवे राजू से राजू गाइड बनने की यह पहली सीढी थी.

आज का विचार

या-रब, जमाना मुझ को

मिटाता है किसलिए,

लौह-ए-जहां पे

हर्फ-ए-मुकर्रर नहीं हूं मैं.

– गालिब

(हे भगवान, इस दुनिया में क्यों मेरी हस्ती मिटाने पर तुला है. इस दुनिया की किताब पर लिखा हुआ ऐसा अक्षर हूं जो फिर कभी लिखा नहीं जाएगा.)

एक मिनट!

बस, अनूप जलोटा के बारे में यह आखिरी जोक:

बका: यार, अनूपजी ने तो बडी परेशानी खडी कर दी है.

पका: क्यों?

बका: कोई यंग लडकी हमसे उम्र पूछती है तो हमें असली उम्र बता देनी चाहिए या फिर बीस-तीस साल जोडकर बतानी चाहिए?

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