दीवार पर लिखा पढा जा सकता है, हाथ की रखाएँ पढी नहीं जातीं

गुड मॉर्निंग- सौरभ शाह

(मुंबई समाचार, शनिवार – ३१ अगस्त २०१८)

आडवाणी लिखते हैं: `वे (वाजपेयी) भारतीय जनसंघ के युवा सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में राजस्थान के कोटा स्टेशन से गुजर रहे थे. मैं उस समय उस प्रदेश में (राष्ट्रीय स्वयंसेवक) संघ का प्रचारक था. (उस समय, १९५२ में आडवाणी की उम्र पच्चीस के आसपास होगी) वाजपेयी नवनिर्मित पार्टी जनसंघ को लोकप्रिय बनाने के लिए डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी की रेल यात्रा में साथ थे. उस समय वाजपेयी डॉ. मुखर्जी के राजनीतिक सचिव थे. अतीत में झांकता हूं तो मेरे मन में उनकी (वाजपेयी की) सबसे जीवंत तस्वीर युवा राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में उभरती नजर आती है. उस समय वे मेरी तरह दुबले-पतले थे लेकिन मैं उनसे अधिक पतला दिखता था, क्योंकि मेरा शारीरिक कद उनसे अधिक था. मैं बडी सहजता से कह सकता हूँ कि उनमें आदर्शवाद की भावना ठूंस ठूंस कर भरी थी और उनके संपूर्ण व्यक्तित्व में एक कवि की आभा का तेज था. एक ऐसा कवि जिसे नियति ने राजनीति में प्रवृत्त किया. उनके अंदर कोई आग थी जिसकी ज्वाला उनके चेहरे पर सुशोभित हो रही थी. उस समय उनकी उम्र २७-२८ वर्ष रही होगी. इस पहली यात्रा के अंत में मैने खुद से कहा था कि यह एक असाधारण युवक है और मुझे उसके बारे में अधिक जानना चाहिए.

अटलजी १९४८ में राष्ट्रवादी साप्ताहिक `पांचजन्य’ के संस्थापक सदस्य बने. उनके नियमित पाठकों में आडवाणी भी थे और इसीलिए वाजपेयी के नाम से वे भलीभांति परिचित थे. वाजपेयी `पांचजन्य’ में संपादकीय लिखा करते थे और कभी कभार कविताएं भी लिखते थे. आडवाणी इन सबसे खूब प्रभावित हुए. इसी साप्ताहिक के कारण आडवाणी को पंडित दीनदयाल उपाध्याय के विचारों को जानने का मौका मिला. दीनदयालजी ने राष्ट्रवादी साहित्य के प्रकाशन हेतु `राष्ट्रधर्म प्रकाशन’ नामक संस्था शुरू की थी जिसके तत्वावधान में `पांचजन्य’ का प्रकाशन होता था. आडवाणी को काफी देर से पता चला कि वाजपेयी इस साप्ताहिक में केवल संपादक ही नहीं, प्रूफ रीडर- कंपोजिटर- बाइंडर और मैनेजर की जिम्मेदारी भी निभाते थे और अलग अलग उपनामों से भी उसमें लिखते थे.

वाजपेयी- आडवाणी की कोटा में पहली भेंट से कुछ ही समय बाद वाजपेयी फिर से राजस्थान के राजनीतिक दौरे पर आए. इस सारी यात्रा में आडवाणी वाजपेयी के साथ रहे. यात्रा के दौरान आडवाणी वाजपेयी को निकटता से जान सके. दूसरी मुलाकात के दौरान पहली बार की पहचान के समय जो उनके बारे में छाप पडी थी, वह अधिक दृढ हो गई.

आडवाणी लिखते हैं:`उनका अनूठा व्यक्तित्व, असाधारण भाषण शैली, उनका हिंदी भाषा पर अधिकार तथा वाक्‌चातुर्य और विनोदपूर्ण तरीके से गंभीर राजनीतिक मुद्दों को प्रभावशाली ढंग से मुखरित करने की क्षमता – इन सभी गुणों का मुझ पर गहरा प्रभाव पडा. दूसरे दौरे की समाप्ति पर मैने अनुभव किया कि वह नियति पुरुष एवं ऐसे नेता हैं, जिसे एक दिन भारत का नेतृत्व करना चाहिए.’

१९५७ में बलरामपुर की सीट से चुनकर जब वाजपेयी ने लोकसभा में प्रवेश किया तब दीनदयाल उपाध्याय ने आडवाणी को राजस्थान छोडकर दिल्ली जाने की जिम्मेदार सौंपी ताकि आडवाणी संसदीय कार्य में वाजपेयी की मदद कर सकें. तब से वाजपेयी और आडवाणी जनसंघ का विकास करने में और वर्षों बाद भाजपा का विकास करने में एक दूसरे का साथ देते रहे. १९६८ में दीनदयाल उपाध्याय की संदिग्ध परिस्थितियों में मृत्यु हो गई जिसका भेद आज तक पता नहीं चला है. जनसंघ के अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी वाजपेयी पर आ गई. पांच वर्ष बाद वाजपेयी ने यह जिम्मेदारी आडवाणी को सौंप दी.

वह २६ जून १९७५ का दिन था. बैंगलोर राजनीतिक दौरे पर गए वाजपेयी और आडवाणी को `मीसा’ के तहत गिरफ्तार कर लिया गया. १९ महीने तक जेल में रहने के बाद जनसंघ एक नई पार्टी में विलीन हो गया जो जनता पार्टी के रूप में उदित हुई. वाजपेयी ने नई दिल्ली की लोकसभा सीट जीतकर प्रधान मंत्री मोरारजी देसाई की कैबिनेट में विदेश मंत्री बने. आडवाणी को १९७० में दिल्ली से राज्यसभा में भेजा गया. १९७६ में उनका राज्यसभा का कार्यकाल पूरा हो गया जिसके कारण उन्हें गांधीनगर से राज्यसभा में भेजा गया. १९७० में आडवाणी को `मीसा’ के आरोपी के रूप में पुलिस के पहरे में बैंगलोर से गुजरात ले जाकर राज्यसभा की उम्मीदवारी भरनी पडी थी, जिसका रोचक वर्णन उन्होंने अपने जेल के अनुभवों पर लिखी पुस्तक में किया है). मोरारजी भाई की कैबिनेट में आडवाणी को सूचना एवं प्रसारण मंत्री का दायित्व सौंपा गया.

जनता पार्टी बिखर गई और १९८० में वाजपेयी और आडवाणी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी की स्थापना हुई. १९८४ के चुनाव में नवादित दल को लोकसभा में केवल दो सीटें मिलीं. आडवाणी आत्मकथा में लिखते हैं:`हमने सिर्फ दो सीटें जीतीं: यहां तक कि ग्वालियर से अटलजी चुनाव हार गए. तथापि इस हार का मुख्य कारण इंदिराजी की हत्या के बाद में उत्पन्न `सहानुभूति की लहर’ रही. यह वास्तव में लोकसभा का चुनाव नहीं बल्कि `शोक सभा’ का चुनाव था, जहां सारी सहानुभूति राजीव गांधी के साथ रहनी स्वाभाविक थी.’

उसके बाद भाजपा की आकस्मिक प्रगति का माध्यम अयोध्या आंदोलन रहा ऐसा बताते हुए आडवाणी कहते हैं कि उस समय अटलजी ने अपेक्षाकृत कम सक्रिय रहने का निर्णय लिया था.

१९९० में अयोध्या आंदोलन के लिए जनसमर्थन जुटाने के लिए आडवाणी ने राम रथयात्रा का आयोजन किया. उस समय मीडिया ने अटलजी को और आडवाणीजी को अलग अलग ढंग से पेश करना शुरू कर दिया, ऐसा उल्लेख आडवाणी ने अपनी आत्मकथा में किया है: `अटलजी को उदार बताया, वहीं मुझे `कट्टर हिंदू’. प्रारंभ में इससे मुझे बहुत पीडा पहुंची क्योंकि मैं जानता था कि यथार्थ मेरी इस छवि के एकदम विपरीत है.’

वाजपेयी से संबंधित अध्याय लिखते समय आडवाणक्ष ने उसमें एक उपशीर्षक के तहत कई विस्फोटक बातें लिखी हैं. वह सबहेडिंग है: `कुछ मतभेद’.

शेष कल..

आज का विचार

मुझे दूर का दिखाई देता है,

मैं दीवार पर लिखा पढ सकतो हूं,

मगर हाथ की रेखाएं नहीं पढ पाता.

– अटल बिहारी वाजपेयी (१९९३ को जन्मदिन पर लिखी कविता से)

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