गुड मॉर्निंग- सौरभ शाह
(मुंबई समाचार, बुधवार – २९ अगस्त २०१८)
आज से १० वर्ष पहले, मार्च २००८ में प्रकाशित हुई अपनी आत्मकथा `माय कंट्री, माय लाइफ’ में लालकृष्ण आडवाणी ने अटल बिहारी वाजपेयी के बारे में लिखे लंबे अध्याय में कहा है:
`यदि मुझे किसी ऐसे व्यक्ति का नाम लेना हो, जो शुरू से अभी तक मेरे राजनीतिक जीवन का अंतरंग हिस्सा रहा है, जो करीब पचास वर्ष तक इस पार्टी में मेरे सहयोगी रहे हैं तथा जिनके नेतृत्व को मैने हमेशा निंसंकोच भाव से स्वीकार किया है तो वह नाम अटल बिहारी वाजपेयी का होगा.’
कई छोटे बडे मतभेदों (जिनकी बात आडवाणक्ष ने लिखी है, उसे हम आगे देखेंगे) के बावजूद आप देख सकते हैं कि शुरुआती वाक्य में ही नहीं, बल्कि वाजपेयी के बारे में संपूर्ण अध्याय में एक एक पंक्ति में आडवाणी का उनके प्रति प्रेम और आदर झलकता है, उन्होंने वाजपेयी को हमेशा अपने से सीनियर नेता के रूप में स्वीकार किया है ऐसी वचनबद्धता झलकती है.
लेकिन पार्टी के कई नेताओं तथा उन नेताओं के साथ वफादारी रखनेवाले कई कार्यकर्ताओं तथा संघ परिवार के कई लोगों ने तथा सबसे खास बात विरोधी राजनीतिक दलों के लोगों ने मीडिया की मदद से ऐसी छाप बना दी कि वाजपेयी `सॉफ्ट हिंदुत्व’ के पक्षधर हैं और आडवाणी `हार्ड लाइनर’ हैं, `कट्टरतावादी’ हैं.
ध्यान रहे कि ये दो पाले अनेक लोगों ने और मीडिया ने निर्मित किए हैं और मैं तो कहूंगा कि ऐसा भ्रम फैलानेवाले काफी हद तक सफल भी रहे हैं. लेकिन सच्चाई क्या है? देखते हैं.
१९८९ में शिलान्यास और रामजन्मभूमि आंदोलन की हवा देश में चारों ओर फैली थी. ऐसे वातावरण में कम्युनिस्ट पार्टी के नेता हिरेन मुखर्जी और वाजपेयी के बीच पत्रव्यवहार होता है. हिरेन मुखर्जी के एक पत्र के जवाब में वाजपेयी लिखते हैं:
`वर्तमान में तो ऐसा वातावरण बना है कि गांधीजी ने स्वयं को हिंदू कहलाने में कोई संकोच नहीं किया, इसके लिए उन्हें अपराधी ठहराए जाने की पैरवी की जा रही है. आपको शायद ज्ञात हो कि अब तो उद्घाटन समारोहों में दीपक जलाने या नारियल समर्पित करने के विरुद्ध भी लोग आपत्ति उठा रहे हैं.’
वाजपेयी आगे लिखते हैं: `हीरेनदा, आपकी तरह मैं भी इस (रामजन्मभूमि) मामले का शांतिपूर्ण समाधान लाने के पक्ष में हूं. मैं जब कहता हूं कि अदालत इस मामले को हल नहीं कर सकती है तब मेरे कहने का अर्थ केवल इतना ही था कि ऐसे संवेदनशील मामले में जहां धार्मिक भावनाएँ गहराई तक जुडी हैं, वहां अदालत के किसी भी निर्णय पर अमल करने में काफी मुश्किलें खडी होने ही वाली हैं. दुर्भाग्य से (कांग्रेस) सरकार ने शाहबानो केस में (सुप्रीम) कोर्ट के फैसले को न मानकर पहले से ही एक उदाहरण स्थापित कर दिया है.’
वाजपेयी पत्र पूर्ण करते हुए अंत मे लिखते हैं: `मुझे ऐसा लग रहा है कि हिंदुओं का एक बहुत बडा वर्ग ऐसा महसूस करने लगा है कि बहुमत में होने के बावजूद उनके साथ अन्याय हो रहा है…आप शायद मुझसे सहमत होंगे कि राष्ट्रहित की मांग है कि हम सब सभी राजनीतिक दल इस तरह के कदम उठाएं कि समाज के बडे वर्ग में असंतोष की इस भावना को दूर किया जाए.’
वाजपेयी के इस पत्र के नीचे कौन ऐसा हिंदू होगा जो हस्ताक्षर नहीं करेगा? फिर वाजपेयी और आडवाणी के हिंदुत्व के बीच दरार क्यों पैदा करनी? लेकिन सेकुलर तथा कांग्रेसी – साम्यवादी लोग मानो यह स्थापित करना चाहते थे कि भाजपा में गुड कॉप-बैड कॉप का खेल चल रहा है. (पुलिस वाले जब आरोपी से पूछताछ करते हैं तो एक पुलिस आरोपी के साथ अच्छे से बर्ताव करता है, उसके साथ सहानुभूति जताता है, उसे छोटी-बडी सहूलियतें देता है और दूसरा अधिकारी आरोपी के साथ सख्ती से पेश आता है, उस पर अपनी धाक जमाता है, डराता है. इस कारण से आरोपी से जानकारी निकालने का काम आसान हो जाता है. व्यवसाय में तीसरे पक्ष के साथ व्यवहार करते समय कई बार दो में से एक साझेदार गुड कॉप और दूसरा बैड कॉप की भूमिका निभाता है. घर में भी बच्चों के लिए माता पिता में से एक गुड कॉप और दूसरा बैड कॉप होता है. मूलत: ये विदेशी मुहावरा है. जहां पुलिस को कॉप कहा जाता है. अब तो ये अंग्रेजी भाषा का बहुत ही आम और प्रचलित शब्द हो गया है).
वाजपेयी सॉफ्ट और सेकुलर तथा आडवाणी हार्ड लाइनर और सांप्रदायिक हैं ऐसी इमेज को आडवाणी ने बहुत ही धैर्य से आत्मकथ के इन पृष्ठों में तोडा है लेकिन इसे पढने की फुरसत किसके पास है? न कार्यकर्ताओं को, न विरोधियों को, न मीडिया को. इसीलिए इस आत्मकथा को प्रकाशित हुए एक दशक बीतने के बावजूद वाजपेयी- आडवाणी हिंदुत्व के बारे में परस्पर विपरीत ध्रुवों पर थे, यह भ्रम अब भी दूर नहीं हुआ है. हम इस भ्रम के आर-पार जाएंगे. क्योंकि हमारे पास तो १,०८४ पृष्ठ की मोटी साइज की आत्मकथा को पढने की फुर्सत ही फुर्सत है.
आज का विचार
भारत का विभाजन होने के बाद मुसलमानों के `मानसिक पुनर्वसन’ की जरूरत थी. यह काम सच्ची शिक्षा, शुद्ध संस्कार तथा आर्थिक- सामाजिक समानता की गारंटी देने से हो सकता था, लेकिन इस दिशा में कदम उठाने के बजाय सरकार ने मुस्लिम समस्या को हमेशा कांग्रेस पार्टी के चश्मे से ही देखा है. जहां तक मुसलमानों का प्रश्न है, ९५ प्रतिशत (भारतीय) मुसलमानों के पूर्वज हिंदू थे. उन्होंने मुस्लिम शासन के दौरान इस्लाम स्वीकार किया था. मजहब बदल जाने से उनकी राष्ट्रीयता नहीं बदलती या न ही उनकी संस्कृति में बदलाव आता है.
– अटल बिहारी वाजपेयी