`मणिकर्णिका’ झांसी की रानी का गौरवपूर्ण इतिहास

गुड मॉर्निंग- सौरभ शाह

(मुंबई समाचार, मंगलवार – ५ फरवरी २०१९)

`ठाकरे’ के साथ रिलीज हुई फिल्म `मणिकर्णिका’ में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का शौर्यपूर्ण इतिहास है. भारतीय इतिहास के संदर्भ में अनेक कम्युनिस्ट इतिहासकारों को आपत्ति होती रहती है. भारत की जयजयकार करनेवाले ऐतिहासिक प्रसंगों को वे मिटा देना चाहते हैं. उसके बजाय, भारतियों में आपस में एकता नहीं थी, सभी एक-दूसरे के खिलाफ दुश्मन की चुगली किया करते थे, घर के भेदी निकलने जैसी घटनाओं को ये साम्यवादी बढाचढाकर, तिल का ताड बनाकर पेश करते रहते हैं. हमारे मानस में बचपन से ऐसी अनेक भारत विरोधी मान्यताएँ पैठ बना चुकी होती हैं. इन मान्यताओं को झकझोरने का काम, पाठ्यक्रम के अनुसार मोदी सरकार में शुरू हो चुका है और फिल्म के माध्यम में यानी जनता की स्मृति के माध्यम में ऐसी मान्यताएँ क्रमश: झकझोरी जा रही हैं. द्रोही लोग तो हमेशा रहे हैं- अंग्रेजों के खेमे में और आतंकवादियों के खेमे में भी. हमारे यहां भी होंगे. लेकिन इतिहास में दगाबाजों को ही जब याद रखा जाता है और वफादारें को भुला दिया जाता है तब जनमानस दूषित हो जाता है. इस प्रदूषण के खिलाफ जब एक ही महीने में चार राष्ट्रप्रेम से भरी मेन स्ट्रीम की हिंदी फिल्में रिलीज हो रही हों तो कम्युनिस्टों के पेट में मरोड उठना और उनके पिछलग्गू मीडिया के जले पर नमक पडना स्वाभाविक है. `ठाकरे’, `मणिकर्णिका’ के अलावा `द एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ और `उडी: द सर्जिकल स्ट्राइक’ ये चारों ही फिल्में सेकुलर मीडिया की रुदाली के बावजूद अपनी तरह से बॉक्स आफिस पर काफी अच्छा प्रदर्शन कर रही हैं. आमिर खान द्वारा निर्मित `लगान’ अंग्रेजों के खिलाफ काल्पनिक लडाई का चित्रण करनेवाली फिल्म थी, बावजूद इसके सेकुलरवादियों को उस फिल्म में कोई प्रपोगेंडा नहीं महसूस हुआ (था भी नहीं. बेहतरीन फिल्म थी) लेकिन `मणिकर्णिका’ में अंग्रेजों के विरुद्ध भारतियों द्वारा किए गए युद्ध के इतिहास को समाविष्ट किया गया है, ये काल्पनिक नहीं बल्कि ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित फिल्म है, फिर भी सेकुलरिस्टों को इस फिल्म में प्रपोगेंडा नजर आ रहा है. `लगान’ और `मणिकर्णिका’ दोनों ही फिल्मों में कहीं कोई प्रपोगेंडा नहीं है, दोनों ही शानदार हैं. बेशक `लगान’ तो `लगान’ है. `मणिकर्णिका’ की उसके साथ तुलना करने का प्रश्न ही नहीं उठता, ऐसा कोई आशय भी नहीं है.

१८५७ का पहला स्वतंत्रता संग्राम हम लडे और उसमें हमें भले ही जीत न मिली हो, लेकिन अंग्रेजों को टक्कर देनी चाहिए, उनका मुकाबला करने के लिए हम सक्षम बन सकते हैं, यह बात तो इस पहले स्वतंत्रता संग्राम ने साबित कर दी. १८५७ की इस लडाई पर अब भी दर्जन – दो दर्जन स्वतंत्र फिल्में बन सकती हैं, इतनी रोमांचकारी घटनाओं का खजाना है. हॉलिवुड में सेकंड वर्ल्ड वॉर पर दर्जनों फिल्में बनी हैं जिन्हें हम सभी ने देखा है. जो नहीं देखी हैं और जो बहुत अच्छी नहीं हैं, ऐसी तकरीबन सौ फिल्में हॉलिवुड में बनी होंगी.

`मणिकर्णिका’ फिल्म की आत्मा कंगना राणावत हैं. (अपनी अटक की स्पेलिंग न्यूरोलॉजी के कारण उन्होंने बदल दी है इसीलिए अब लोग उन्हें राणावत के बदले रनौट कहने लगे हैं. विक्रम यदि अपनी स्पेलिंग में डबल `के’ लगाएं तो क्या हम उसे विक्क्रम कहेंगे!)

कंगना राणावत आज के दौर की अत्यंत प्रतिभाशाली अभिनेत्री हैं. आप उनकी रेंज देखिए. ३१ वर्ष की इस कलाकार ने २००६ में `गैंगस्टर’ में सिमरन की भूमिका की, उसके बाद `वन्स अपॉन अ टाइम इन मुंबई’, `तनू वेड्स मनु’ (दोनों पार्ट्स) से लेकर `क्वीन’ तक की करीब ढाई दर्जन फिल्मों में उन्होंने गजब की विविधतापूर्ण भूमिकाएँ निभाई हैं. `मणिकर्णिका’ में तो निर्देशन भी उन्हीं का है.

इस फिल्म के मूल निर्देशक के साथ हुए उनके मतभेद हमारा विषय नहीं हैं. फिल्म जबरदस्त बनी है और हमारा संबंध उसी से है. प्रसून जोशी के संवाद और गीत `मणिकर्णिका’ की खास बातें हैं. `बाहुबली’ बहुत प्रभावी फिल्म थी लेकिन उसका कथानक काल्पनिक था, वह फैंटेसी फिल्म थी, तकनीकी दृष्टि से दमदार फिल्म थी. `मणिकर्णिका’ में वह तत्व शामिल हुआ है जिसकी मौजूदगी `बाहुबली’ में नहीं है- सच्चाई का तत्व, ऐतिहासिक तथ्य इसमें समाविष्ट हैं.

`मणिकर्णिका’ की शूटिंग भारत में अनेक स्थानों पर हुई है. ये सभी ऐतिहासिक स्थान हैं. फिल्म के हर पात्र के कॉस्ट्यूम्स हॉलिवुड की फिल्मों की बराबरी करने में सक्षम हैं. सेट्स भव्य हैं और स्पेशल इफेक्ट्स का उपयोग बहुत ही समझदारी से किया गया है. संपूर्ण फिल्म की कथा सहज प्रवाह के साथ बहती है.

मणिकर्णिका नामक लडकी कौन थी, उसे इस नाम से क्यों पहचाना गया और किस तरह से उसका लालन पालन हुआ, किस प्रकार से वह झांसी के राजा की पत्नी बनीकर लक्ष्मीबाई के रूप में पहचानी गईं, किस तरह से वह बार-बार अंग्रेजों को अपनी बहादुरी और विलक्षण बुद्धि का परिचय कराती रही- ये सभी पहलू एक के बाद एक इतनी तेजी से आते हैं कि इंटरवल कब आता है और कब फिल्म खत्म हो जाती है, इसका पता भी नहीं चलता. अभी तक आपने स्कूल के इतिहास में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का नाम सुना होगा, कुछ ज्यादा किया होगा तो उसके बारे में एकाध परिच्छेद पढा होगा. जिसके जीवन पर पूरी एक फिल्म बन सकती है ऐसे महान ऐतिहासिक पात्र को भारत विरोधी (साम्यवादी) इतिहासकारों ने एकाध पैराग्राफ में ही निपटा दिया था, जब आपको इस बात का आभास होता है, तब इन देशद्रोहियों पर आपको अधिक गुस्सा आता है. `मणिकर्णिका’ का स्टारकास्ट भी जबरदस्त है. कंगना राणावत का साथ देने के लिए अतुल कुलकर्णी, कुलभूषण खरवंदा और सुरेश ओबेरॉय जैसे समर्थ कलाकार यहां हैं. विभिन्न दृश्यों में कंगना की आक्रामकता, दृढता और उनका जोश- ये सब बेहतरीन है. अपनी शारीरिक बनावट के कारण युद्ध के समय चपल दिखने वाली इस अभिनेत्री ने यदि ऐसी राष्ट्रवादी फिल्म बनाने के बजाय सेकुलरिस्टों को रिझानेवाली किसी फिल्म में यदि काम किया होता तो मीडिया तथा सोशल मीडिया ऐसी खबरें हर दिन छापकर हवन में हड्डी डालने का काम नहीं करते कि उन्होंने निर्देशक के साथ ऐसा क्यों किया, सोनू सुद का रोल क्यों काट दिया, फलां अभिनेत्री या अभिनेता के साथ क्यों अन्याय किया इत्यादि इत्यादि. हम सभी को यह बात ध्यान में रखनी चाहिए. किसी अच्छे व्यक्ति या वस्तु के कारण खूब कॉन्ट्रोवर्सी खडी हो जाय तो समझ लेना चाहिए कि देशद्रोहियों को बरनॉल की जरूरत है.

आज का विचार

बंगाल में मोदी, योगी, अमित शाह और सीबीआई को प्रवेश करने से रोका जाता है लेकिन रोहिंग्याओं और बांग्लादेशी घुसपैठियों का स्वागत हार पहनाकर किया जाता है.

– वॉट्सएप पर पढा हुआ

एक मिनट

बका: चाहूंगा मैं तुझे सांझ सवेरे गीत किसने लिखा?

पका: किसने?

बका: राजकोटवासी ने

पका: हें!

बका: दोपहर को सोना होता है ना!

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