चाणक्य कहते हैं कि तमाम संबंध स्वार्थ के अधीन हैं

गुड मॉर्निंग क्लासिक्स : सौरभ शाह

(newspremi.com, मंगलवार, ७ अप्रैल २०२०)

धन के बारे में चाणक्य ने कहा है कि मनुष्य को खुद को अमर मानकर धन संग्रह करना चाहिए. अर्थात `आज नहीं तो कल, मरना तय है. इतनी सारी लक्ष्मी छाती पर बांधकर कहां ले जानी है.’ ऐसा सोचकर मनुष्य को उद्यम करने में आलस नहीं करना चाहिए. पर्याप्त धन के बिना, यदि वृद्धावस्था लंबी होती है तो जीवन कठिन बन जाता है.

कमाई करने के लिए कई लोग `पापी पेट के कारण करना पडता है’, ऐसा बहाना देकर किसी भी तरह के हीन कार्यों को करने के लिए तैयार हो जाते हैं. लेकिन चाणक्य कहते हैं कि `आदमी भूखे पेट भी जी लेता है.’ दो वक्त के भोजन के लिए अनैतिक काम करना अनिवार्य नहीं होता. भूख कभी व्यक्ति की खुमारी को टूटने नहीं देती. कमजोर मनोबल ही मनुष्य की निष्ठा को डगमगा देता है. सबसे अच्छी बात तो ये है- भूखे रहकर भी जिया जा सकता है.

चाणक्य मानते हैं कि चतुर आदमी को कभी रोजी – रोटी का भय नहीं सताता. अपनी व्यवहार कुशलता से किसी भी कठिन परिस्थिति में मनुष्य आजीविका कमा लेता है. धन के बारे में एक कडवी सच्चाई चाणक्य से जानते हैं. वे कहते हैं कि धन विहीन मनुष्य की सच्ची सीख को भी कोई नहीं सुनता. दूसरी बात चाणक्य कहते हैं कि आवश्यक द्रव्य की व्यवस्था किए बिना किसी भी कार्य का आरंभ करना रेती में से तेल निकालने का प्रयास करने जैसा है. काम तो शुरू कीजिए, आगे चलकर धन की व्यवस्था भी अपने आप हो जाती है, ऐसा कहनेवालों की सलाह माननेवाले आगे चलकर सिर के बल गिरते हैं. जिस काम के लिए जितने धन की जरूरत होती है उसके संबंध में काम की शुरूआत में ही निश्चित प्रबंध हो जाना चाहिए.

चाणक्य के इस एक सूत्र को नजरअंदाज करने की लापरवाही नहीं चलेगी: `हर प्रकार की कोशिश करके संपत्ति जुटा लेनी चाहिए.’ यह सलाह राजा के लिए है और हर मनुष्य अपने मनोराज्य का नृप (राजा) है ऐसा मानकर आप चल सकते हैं. अपने कल्याण के लिए या परोपकार के लिए संपत्ति होना अनिवार्य है.

एक बात विषय से हटकर. गुजराती के उपन्यासकार गोवर्धनराम त्रिपाठी का नायक सरस्वतीचंद्र स्वर्णपुर छोडकर गाडी में बैठकर मनोहरपुरी से होकर रतननगरी की दिशा में जा रहा था, तभी रास्ते में अर्थदास नाम का बनिया खुद को गरीब और लाचार बताकर सरस्वतीचंद्र के सामने गिडगिडा रहा था. ऐसे समय में सरस्वतीचंद्र को खुद से नफरत होने लगी कि मैं क्यों लक्ष्मी को लेकर अकिंचन सा हो गया हूं. गोवर्धनराम माधवराम त्रिपाठी के पाठकों को याद होगा कि सरस्वतीचंद्र के पिता के पास आठ से दस लाख रूपए थे. १८८०-९० के काल में आज के कुछ सौ करोड रूपए होंगे. सरस्वतीचंद्र के पास मानो विरासत मिलने से लाख रूपए की राशि तथा वालकेश्वर में पिता का एक बंगला था. पिता की धनराशि, जो विरासत में मिलनेवाली थी, वह तो अलग ही थी. ये सब कुछ छोडकर (सरस्वतीचंद्र के पिता बडप्पन के लिए उसे भाई कहते थे. १८८५ में लिखे गए इस उपन्यास की यह बात है. उस समय दाऊद के दादा का जन्म भी नहीं हुआ था) जो पहने हुए कपड़े हैं उसी में निकल पडा है. सरस्वतीचंद्र को अफसोस होता है:`उसका दुख दूर करने जितना पैसा मेरे पास नहीं था, उसे तो मैने छोड दिया. ऐसे मौकों पर द्रव्य का उपयोग होता होगा, इसका मुझे ख्याल भी नहीं रहो.’

सत्रह साल में एम.ए और फिर एल.एल.बी. फिर बैरिस्टर बने विद्वान गर्भश्रीमंत के मुख से भी द्रव्य का मूल्य समझाया है. अभी तो उसके पास देने जैसा कुछ भी नहीं था सिवाय धोती के किनारी में बंधी छह-सात हजार की मणिमुद्रा यानी अंगूठी के जिसे कुमुद सुंदरी की उंगलियों की शोभा बनाया गया था. भाइयों उसे गरीब बनिए को दे दिया. यह बात अलग है कि सरस्वतीचंद्र को कंगाल जानकर उस बनिए ने गरीब होने का केवल नाटक भर किया था.

सारी बात कहने में तो चाणक्य रह जाएगा. एक बात तो निश्चित है कि गोवर्धनराम त्रिपाठी के दिमाग में इस महान उपन्यास के लेखन के दौरान चाणक्य के सूत्र उपजे होंगे. लिटरेचर के विद्यार्थी के लिए पीएचडी की थीसिस का विषय बन सकता है: `गोवर्धनराम पर चाणक्य का प्रभाव- सरस्वतीचंद्र के संदर्भ में.’

पॉल जोहान्स ने दुनिया के कई बेहतरीन इतिहासकारों, चिंतों, विचारकों की पोल खोलनेवाली पुस्तक `इंटेलेक्चुअल्स’ लिखना बंद कर दिया होता अगर उसने चाणक्य की ये सलाह मानी होती: `रत्न कभी अखंडित नहीं होता.’ यानी कीमती से कीमती मणि में भी कहीं न कहीं किसी प्रकार की छोटी सी त्रुटि तो रहती ही है. जैसा रत्न का है वैसे ही महापुरुषों के बारे में भी है, व्यक्ति साधारण हो या अत्यंत प्रतिभाशली, उसके छोटे छोटे अवगुणों को ही केंद्र में रखेंगे, उसमें निहित सद्गुणों पर नजर नहीं डालेंगे तो नुकसान हमें ही होगा, उसे नहीं.

चाणक्य नीति के ग्रंथ में जो सूत्र स्वर्णाक्षरों में लिखा जाना चाहिए वह ये है:`तमाम संबंध स्वार्थ के अधीन हैं’. दो राज्य के बीच हो या दो व्यक्तियों के बीच, परस्पर स्वार्थ न हो तो संबंध बनते ही नहीं. बिना प्रयोजन, बिना उद्देश्य के कोई संबंध नहीं हो सकता. एक पूरी किताब लिखी जा सकती है ऐसी मार्मिक बातें इस एक सूत्र में ठूंस ठूस कर भरी हुई हैं.

कई लोगों को अपनी कमजोरियों को सबके सामने या अन्य लोगों के समक्ष जाहिर करने का बडा शौक होता है. भाई, मेरे नसीब ऐसे फूटे हैं कि व्यापार में चार करोड का नुकसान हुआ है- कोई नहीं पूछे तो भी सामने से बोल देते हैं. या फिर, क्या करूं, ये सब मेरे आलस का प्रताप है- ऐसा कहेंगे. कहनेवाले को लगता है कि वह बोलकर वह बडी मासूमियत दिखा रहा है, खुद कितना पारदर्शी है, ऐसा स्थापित कर रहा है. लेकिन हर सुनने वाले का मन आप टटोल नहीं सकते. चाणक्य कहते हैं कि `अपने दोषों की जानकारी कभी किसी को नहीं देनी चाहिए.’ क्यों? तो कहते हैं: शत्रु हमेशा आपकी कमजोरियों के बारे में जानकारी लेकर उसी पर प्रहार करता है. इसके साथ ही चाणक्य सलाह देते हं कि शत्रु की कमियों के बारे में आपको जानकारी होनी चाहिए, इतना ही नहीं मौका मिलने पर उसकी कमजोरियों पर प्रहार भी करना चाहिए और जब तक शत्रु की कमजोरी का पता न चले तब तक उसे मित्रता के भ्रम में रखना चाहिए.

चाणक्य का एक और सूत्र ध्यान रखने योग्य है: `संयोगवश दीमक भी सुंदर आकृति बनाता है.’ अर्थात लकडी का दुश्मन दीमक जब लकडी को अंदर से खोखला बना देता है तो कभी कभी लकडी की सतह पर सुंदर आकृति बनी हुई दिखाई देती है. दुर्जन द्वारा आपको लाभ हुआ है, ऐसा जताने की कोशिश भले हो रही हो तब आपका ध्यान सतह पर बनी डिजाइन पर नहीं बल्कि खोखली हो चुकी लकडी पर जाना चाहिए. बाहरी तौर पर कोई हमारी भलाई कर रहा है, ऐसा जब आभास होता है तब अंदर से उसका क्या परिणाम आएगा, इसका विचार करना चाहिए.

चाणक्य ने कहा है कि मृदु स्वभाववाले लोगों का उनके अपने आश्रित भी अपमान करते हैं.’ केवल राजकाज के क्षेत्र में ही नहीं, सभी जगह यह सूत्र लागू होता है. इसी संदर्भ में दूसरा एक सूत्र चाणक्य देते हैं कि,`अगंभीर विद्वान का लोग सम्मान नहीं देते.’ इसका अर्थ ये नहीं है कि मनुष्य को विद्वत्ता का प्रदर्शन करने के लिए घोर गंभीर चेहरा लेकर घूमना चाहिए. इसका अर्थ ये है कि विद्वानों को उथला बर्ताव नहीं करना चाहिए‍. सामान्य परिचितों या दूर के मित्रों को अपने साथ बोलने-व्यवहार करने की छूट नहीं देनी चाहिए और अगर वे ऐसा करते हैं तो उन्हें टोककर रोक देना चाहिए.

सारी दुनिया की बुद्धिमानी अपने सूत्रों में पिरोना वाले चाणक्य कभी आपको कठोर, भावना शून्य लग सकते हैं. लेकिन नहीं, ऐसा नहीं है. एक जगह उन्होंने छोटी से लेकिन काफी बडी बात कही है:`पुत्र या संतानों के स्पर्श से बड़ा कोई सुख नहीं है.’

सच बात है. संतान के माथे पर हाथ घुमाकर या उन्हें छाती से लगाने से माता पिता को जो सुख मिलता है, उससे अच्छा सुख और क्या हो सकता है इस संसार में.

चाणक्य नीति के बारे में अभी कुछ बातें करनी बाकी हैं. शेष कल.

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