प्रिंट मीडियम की शोकसभा का विज्ञापन डिजिटल मीडिया में आएगा या अखबार में ही छपेगा? : सौरभ शाह

( न्यूज़ व्यूज़: गुरुवार, १६ अप्रैल २०२०)

किसी जमाने में अमेरिका के `टाइम’ और `न्यूजवीक’ जैसे समाचार साप्ताहिक जर्नलिज्म की दुनिया के सिरमौर माने जाते थे. बडी साइज में छपनेवाले `लाइफ’ के फोटो सराहे जाते थे. `नेशनल ज्योग्राफिक’ का चित्रमय वैभव आंखों को बडा सुहाता था.

भारत में प्रतिदिन के समाचारों के लिए समाचार पत्र ही एकमात्र माध्यम थे. आकाशवाणी कॉन्ग्रेस पार्टी की दासी थी और सरकारी समाचार ही देती थी अत: कुछ मामलों में उसकी विश्वसनीयता शू्न्य थी. इमरजेंसी और मोरारजी देसाई की सरकार जब गिरी तब का दौर मीडिया के बूम का दौर था. अनेक नए सामयिक पत्र प्रकाशित होने लगे. कई दैनिक समाचारपत्र भी शुरु हुए थे. पुराने मीडिया हाउसेस का दबदबा बढ गया. `हमारे अखबार में छपनेवाले संपादकीय पढकर प्रधान मंत्री अपनी नीतियां बनाते हैं’, ऐसा दैनिकों के संपादक माना करते थे और दिलीप पाडगांवकर जैसे तो सार्वजनिक रूप से कहते भी थे कि मेरी नौकरी का महत्व इस देश में सेकंड हाइएस्ट है. सबसे ऊपर प्राइम मिनिस्टर के बाद मैं….पाडगांवकर टाइम्स ऑफ इंडिया में नौकरी करते थे. सतही राजनीतिक विश्लेषण और फूड के बारे में इन डेप्थ लेखों के लिए वे जाने जाते थे. करीब चार वर्ष पहले उनका देहांत हुआ. टाइम्स ऑफ इंडिया के मालिकों की नई पीढी आई. अखबार संपादक नहीं अखबार का मार्केटिंग मैनेजर चलाए ऐसी प्रथा भारत में शुरू करने का श्रेय टाइम्स ग्रुप को जाता है. मुंबई संस्करण, अहमदाबाद संस्करण लिखने के बजाय वे मुंबई मार्केट, अहमदाबाद मार्केट लिखने लगे. अखबार का एक एक एडिशन बाजार बनता गया. किसी ज़मानेमें जिन्हे लोकशाही का चौथा स्तंभ माना जाता वही अखबार बाजारू हो गए, बिकाउ बन गए. इसी देखादेखी में दिल्ली का `हिंदुस्तान टाइम्स’, चेन्नई का `द हिंदू’, कलकत्ता का `द स्टेट्समैन’ भी संपादक की जिम्मेदारी मार्केटिंग मैनेजर बनने की हैसियत वाले पत्रकारों को देने लगे. बाद में यह रुझान हिंदी, गुजराती, भारत की सभी भाषाओं को ग्रस्त कर गया. टाइम्स के मालिक तो सार्वजनिक रूप से बोलने लगे कि `अखबार का संपादक कौन है इसकी पाठकों को कोई चिंता नहीं होती. मैं कलकत्ता से मुंबई फ्लाइट पडता हूं तब विमान का पायलट कौन है ये जानने की मुझे कोई जरूरत नहीं रहती.’

ये वह टाइम्स ग्रुप था जहां किसी जमाने में वरिष्ठों ने प्रथा डाल रखी थी कि बडे से बडा मैनेजर हो या मालिक- यदि उसे संपादक से मिलना है तो उसे संपादक की केबिन में जाना पडता था, संपादक को अपने पास नहीं बुला सकता था. संपादक का इतना आदर था. यह बात मुझे पत्रकार शिरोमणि नगेंद्र विजय ने कही थी. नगेंद्र भाई नाइन्टीज के दौर में अहमदाबाद से शुरू हुई टाइम्स के गुजराती संस्करण के संपादक थे.

मार्केटिंग मैनेजर अखबारों को साबुन की टिकिया की तरह बेचने लगे. टाइम्स के मैनेजर खुलेआम कहने लगे कि, ‘पी.आर. का काम करनेवाले आज तक अपने क्लाइंट से जुडे समाचार मुफ्त में छपा लेते थे. पर अब हमने क्लाइंट और हमारे बीच के दलालों को निकाल दिया है. अब हम ही सीधे पैसे लेकर क्लाइंट की मर्जी के अनुसार समाचार छापते हैं.’ टाइम्स सहित प्रमुख मीडिया हाउसेस के लिए पेड न्यूज कोई उपेक्षा का विषय नहीं रहा.

प्रेस और प्रोस्टीट्यूट के बीच साम्यता बढती चली गई, इसीलिए किसी शरारती द्वारा गढा गया `प्रेस्टीट्यूट’ शब्द पाठकों को पसंद आ गया. किसी जमाने में फ्रंट पेज सबसे महत्वपूर्ण समाचारों की जगह माना जाता था. हसमुख गांधी ने `समकालीन’ शुरू करते समय रामनाथ गोयनका के सामने एक शर्त रखी थी कि फ्रंट पेज पर २५ बाय ४ (पाव पेज) से बडा विज्ञापन नहीं चाहिए. इतना ही नहीं `समकालीन’ के लोगो के दाएं-बाएं तरफ इयर पैनल्स पर भी विज्ञापन नहीं होंगे. न्यूज की दृष्टि से महत्वपूर्ण दिन हो तब पच्चीस बाय चार वाली जगह भी गांधीभाई न्यूज के लिए उपयोग कर लेते थे. बीस वर्ष पहले नेसकैफे की कंपनी नेस्ले ने अखबारों को फ्रंट पेज पर फुल पेज ऐड छापने के लिए ललचाया. फ्रंट पेज पाठकों के लिए है विज्ञापनदाताओं के लिए नहीं, ऐसा तर्क देकर एक अखबार के संपादक ने इस्तीफा देने की तैयारी दर्शाई थी. मालिक ने संपादक का आदर करते हुए फुल पेज की ऐड को पहले पेज पर छापकर मिलनेवाली दुगुनी आय को त्याग कर पत्रकारिता के आदर्शों का मान रखा था- वैसे अब तो फ्रंट पेज पर विज्ञापन नहीं लगानेवाले संपादकों का गला पकडा जाता है- आपको अखबार चलाना नहीं आता. अखबार एक नहीं दो नहीं – पांच पांच फ्रंट पेज क्रिएट करके पांचों विज्ञापनदाताओं को खुश करके टकसाल की तरह पैसे छापने लगे. लेकिन कोरोना ने आकर प्रिंट मीडिया का बंटाढार कर दिया.

तहसील या जिला स्तर का छोटा अखबार लोकल व्यापारीयों को, तंत्र के छोटे अधिकारियों को धमकाता है, ब्लैक मेल करता है और बडा मीडिया हाउस दिल्ली में बैठे राजनेताओं को डरा-धमकाकर अपना काम निकलवाता है. देश का सबसे बडा मीडिया हाउस विज्ञापन देने की इच्छुक कंपनियों के शेयर शेयर्स प्राप्त करके उसके बदले में न्यूज के नाम पर उनकी पब्लिसिटी करके पाठकों के भोलेपन का लाभ उठाता था.. कई अखबार तो प्रशासन से जमीन के प्लॉट हासिल करने के लिए और अन्य फाइलें यहां से वहां करने के लिए सौदे करते हैं. अन्य कई तो राजनेताओं को धमकाकर जितना हो सके उतने अनैतिक धंधे करते हैं. मीडिया आपके हाथ में हो तो उसकी आड में आप सब कुछ कर सकते हैं. एक तरफ अखबारी स्वतंत्रता की बातें करो और दूसरी तरफ इस स्वतंत्रता को बेचकर नकद कमा लो.

प्रिंट मीडियम का नैतिक पतन शुरू हुआ और वहीं टीवी की सैटेलाइट चैनल्स का उदय हुआ. प्रिंट मीडियम अधमरा हो गया. चौबीस घंटे में एक बार समाचार देनेवाला माध्यम हर सेकंड के समाचारों का लाइव प्रसारण करनेवाले माध्यम के सामने हांफने लगा. केवल एक जगह शेष थी. न्यूज में भले पिछडा हो लेकिन व्यूज के मामले में प्रिंट मीडिया की जरूरत थी. लेकिन विजयगुप्त मौर्य, वासुदेव मेहता और हसमुख गांधी जैसे अनेक दर्जनों आला दर्जे के राजनीतिक विश्लेषक एक के बाद एक दुनिया को छोडकर जाते रहे. उनकी जगह पर अभी चड्डी छोडकर पैंट पहनना सीखनेवाले गुड्डा-गुड्डियां आ गए. आज तो पत्रकारिता का `प’ तक नहीं जाना है ऐसे लोग अनैलिसिस का `ए’ लिखने लगे हैं- अंग्रेजी मीडिया में तो खासतौर पर.

प्रिंट मीडिया का महत्व प्रिंट मीडिया के पाप से ही घटता गया. अखबारों का सर्कुलेशन टूटता गया. मैगजीन्स मानो मरने के कगार पर जी रही थी. हर भाषा में कई मैगजीनों को खूब कमाने के बाद भी दुकानों के शटर बंद करने पडे. अगले दो-तीन दशकों में टाइम्स ग्रुप ने `धर्मयुग’, `माधुरी’, और `द इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया’ को दनादन बंद कर दिया. क्योंकि विज्ञापनों का रेवेन्यू गिर चुका था.

टीवी पर हर विज्ञापनदाता की नजर टिक गई. दस दस सेकंड की कीमत लाखों रूपए थी. लेकिन वह चार दिन की चांदनी, इंटरनेट के कारण, पूर्णिमा उदय होने से पहले ही अमावस्या में बदल गई.

टीवी न्यूज चैनल्स ने प्रिंट मीडिया से बेवकूफी, लापरवाही और बदमाशी के पाठ सीख कर अपना एक अनूठा स्थान बनाने की कोशिश की लेकिन अभी उसमें थोडी बहुत ही कामयाबी मिल ही पाई थी कि इंटरनेट का विस्फोट हुआ. डिजिटल मीडिया आ गया. सोशल मीडिया आ गया.

शोक संदेश पढने के लिए अखबार अनिवार्य माने जाते थे. अब तो आपकी जाति की ऐप आपको मुफ्त में फोन पर व्हॉट्ऐप में सूचना देने का काम कर देता है. नाटकों और मनोरंजन के विज्ञापन के लिए अखबार अनिवार्य माने जाते थे. बुक माय शो ने अब इस फील्ड पर भी कब्जा जमा लिया. प्रिंट मीडिया का रहा सहा जमाना भी बीत गया.

`न्यूजवीक’ तो कब का बंद हो चुका है. `टाइम’ बडी मुश्किल से चल रहा है. अमेरिका और ब्रिटेन के विशाल फैलाव रखनेवाले कई अखबारों की प्रिंट एडिशन केवल प्रतीकात्मक रूप से छपती है.- हर कोई डिजिटल फॉर्मेट में सेट होने के लिए जद्दोजहद कर रहा है. वहां भी सभी लोग सफल नहीं होते. क्योंकि समाचार अब समाचार पत्र ही दें, ऐसी दुनिया तो रही नहीं. सोशल मीडिया और कई छोटी बडी वेबसाइट्स न्यूज तथा व्यूज की आपकी भूख का शमन करती हैं.

कोरोना ने देश की न्यूज पेपर इंडस्ट्री को ठप कर दिया. विक्रेताओं ने अखबार उठाना बंद कर दिया और पाठकों ने वायरस का संक्रमण होने के डर से अखबार घर में नहीं लाने की सावधानी बरतनी शुरू कर दी.

पाठक हमारा भगवान है, ऐसी केवल शाब्दिक बातें करनेवाले अखबारों ने हमेशा पाठकों से ज्यादा महत्व विज्ञापन को देनेवालों को और खुद को संभालनेवाले सत्ताधीशों को दिया. पाठकों का महत्व तो पायदान जितना माना. हमें जिस राजनेता का पलाडा भारी करना होगा उसके गुणगान हम करेंगे और जिस राजनेता से करोडो पाठक अपार प्रेम करते हैं, उन सभी के कपडे हम खींचेंगे. विज्ञापनदाता हमारे मां बाप हैं, न कि पाठक. ऐसी मानसिकता रखनेवाले प्रिंट मीडिया के लिए अब कोरोना के कारण रोने की नौबत आ गई है. वे खुद ही अपनी अवनति का कारण बने हैं. अपने ताबूत में आखिरी कील भी वे खुद ही अपने कर कमलों से ठोंकेंगे.

प्रिंट मीडिया को आई.सी.यू. में वेंटिलेटर पर देखकर निजी तौर पर दुख होता है. पिछले ४०-४२ सालों में जो कुछ भी लिखा वह सब प्रिंट मीडिया के कारण ही लिखा है. मैं जो कुछ हूं प्रिंट मीडिया के कारण हूं. प्रिंट मीडिया ने मुझे सब कुछ दिया है. प्रिंट मीडिया ने ही मुझे सब कुछ दिया है.

इस राष्ट्रव्यापी मीडिया में नेशनल लेवल पर काम करनेवाले पत्रकार मेरे जातभाई हैं और उनमें से कई कमजात भाई हैं. १९९२ में बाबरी के समय और २००२ में गोधरा के समय इन कमजात भाइयों की नीच से नीच हरकतों का मैं गवाह रहा हूं. पत्रकारिता के अति पवित्र व्यवसाय को दूषित करनेवाले इन कमजातभाइयों का नाम देकर उनकी कलई खोलने वाले दस्तावेजी लेख भी खूब लिखे हैं, पुस्तकबद्ध किए हैं. प्रिंट मीडिया की अवनति में जर्नलिज्म के अंडरवर्ल्ड गैंग के इन वामपंथी-लिब्रांडू कमजात भाइयों का काफी बडा योगदान है. पाठकों के साथ उन्होंने विश्वासघात किया. पाठकों का उन से, और वे जहां जहां छपा करते थे उन तमाम अखबारों-पत्रिकाओं से विश्वास उठ गया. प्रिंट मीडिया की विश्वसनीयता बिलकुल घट गई.

कोरोना का जमाना बीतने के साथ ही प्रिंट मीडिया का जमाना भी लद जाएगा. लॉकडाउन के बाद हर अखबार-पत्रिका के सर्कुलेशन में दस से पचास प्रतिशत तक भारी कमी होनेवाली है, ऐसा क्षेत्र के जानकारों का मानना है. अखबार घर में आ रहा हो तो उसे बंद करने के लिए विक्रेता जब पहली तारीख को बिल लेकर आता है तभी उससे कहा जा सकता है. मोबाइल से पहले की ये आदत अभी भी पाठकों में जारी है. पहली तारीख को अखबार बंद करने के लिए कहना भूल जायं तो बात आगे बढ जाती है. और इस तरह से अखबार आता रहता है. कोरोना के खौफ से घर में आनेवाले हर पार्सल, गैस सिलिंडर, किराने का पैकेट, सब्जी-फल की थैलियों, दूध के पाउच-बोतल सभी कुछ संदेहास्पद हो गया है और जब किसी भी कीमत पर जोखिम नहीं उठाने की बात आती है तो इस बारे में अखबार भी अपवाद नहीं रहेंगे. दो दिन से अखबार फिर से छपने लगे हैं लेकिन हर स्थान पर नहीं पहुंच रहे. जहां पहुंचते हैं वहां भी पाठक वायरसग्रस्त होने के संदेह से उससे दूर रहने में ही अपनी और अपने परिवार की भलाई समझ रहे हैं.

समस्त प्रिंट मीडिया की काफी विशाल संस्था आई.एन.एस. (इंडियन न्यूजपेपर सोसायटी), के नाम से पहचानी जाती है, जिसके कई वामपंथी सदस्यों ने निर्लज्जता से वर्षों तक सीएम और पीएम मोदी की लिंचिंग की, वह संस्थान अब हाथों में कटोरा लेकर आंखों में मगरमच्छ के आंसू भरकर मोदी सरकार से मिन्नतें कर रही हैं कि `हम संकट में हैं, हमें उबारिए, दो साल तक टैक्स नहीं भरने की छूट दीजिए, न्यूजप्रिंट के इम्पोर्ट पर ड्यूटी शून्य कीजिए.’

प्रिंट मीडिया में जब विज्ञापनों की खूब आमदनी थी तब आप कौन सी देश सेवा करके लुट गए, ऐसा सवाल सरकार इन लोगों से पूछनेवाली है. न्यूजप्रिंट से आयात कर घटकर मामूली हो गया है. स्थानीय न्यूजप्रिंट अब `नेपा’ मिल की तरह खराब आनेवाली प्रिंट जैसी दयनीय नहीं है. दो साल तक टैक्स हॉलिडे सरकार यदि आपको देगी तो अन्य सभी लोग कटोरा लेकर लाइन में खडे हो जाएंगे. और तब सरकार को पर्सनल इनकम टैक्स में भी दो साल के लिए छूट देनी पडेगी. सरकार ऐसा करने जाएगी तो दो साल में खुद सरकार को ही पाकिस्तान की तरह कटोरा लेकर दुनिया में भीख मांगने के लिए निकलना पडेगा.

न्यूज के लिए अब न्यूज पेपर्स अनिवार्य नहीं रहे. छपे हुए अखबारों के बिना भी आराम से काम चलता है, ये अनुभव पाठकों ने लॉकडाउन के पहले चरण में ले लिया है. समाचार तथा अन्य पठनीय सामग्री पाने के लिए अन्य कई सशक्त, विश्वसनीय और आसान-सुविधाजनक माध्यम हैं. हां, दो बातों के लिए अखबारों की जरूरत अब भी पडेगी. मक्खी मारने के लिए और फाफडा के साथ पपीते की चटनी बांधने के लिए.

स्टॉप प्रेस: अभी अभी समाचार मिला है कि लंदन का `फायनांशियल टाइम्स’ कल (१५ अप्रैल) की एक रिपोर्ट में कहता है कि ब्रिटेन-अमेरिका में कोरोना के कारण अखबारों मैगजीनों को दुगुना झटका लगा है. एक तो सर्कुलेशन में भारी कमी आई है और जले पर नमक की तरह विज्ञापनों की आय घटकर शून्यवत हो गई है. बडे बडे मीडिया हाउसेसे अपने स्टाफ में पचास प्रतिशत कर्मचारियों को मुक्त कर रहे हैं. अमेरिका की एक प्रमुख प्रकाशन कंपनी का मार्केट वैल्युएशन पिछले साल की इस अवधि में १.४ बिलियन डॉलर था जो अब घटकर १०० मिलियन डॉयर हो गया है. १४० करोड डॉलर से १० करोड डॉलर. रूप‍ए १०,७०० करोड से ७६४ करोड से भी कम. लाख से बारह हजार तक घटने के बाद इस मीडिया कंपनी ने अपने २४,००० के स्टाफ से अधिकांश को बिना वेतन अनिवार्य रूप से छुट्टी दे दी है. अन्य दर्जनों प्रकाशनों ने विज्ञापन के अभाव में या तो पृष्ठ घटा दिए हैं, या प्रतियां कम छापने का निर्णय किया है, या फिर फिलहाल के लिए प्रकाशन बंद करने का निर्णय लिया है. सबके सर्कुलेशन में ३० से ५० प्रतिशत की दयनीय, जानलेवा और भारी कमी दर्ज हुई है.

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