कोरोना के दिनों में मृत्यु के बारे में सोचना बंद करके सिर्फ जिएं: सौरभ शाह

(गुड मॉर्निंग क्लासिक्स, शुक्रवार, १७ अप्रैल २०२०)

जिसका आगमन अनिश्चित हो- कब आएगा या कब नहीं, ये तय नहीं हो और जो अनिवार्य भी हो तो उस पर सोचना नहीं चाहिए. जिससे जुड़े किसी भी मामले पर आपका नियंत्रण नहीं है उसके बारे में चिंतन करने का क्या अर्थ?

जीवन के कुछ पडाव पार करने के बाद मनुष्य को मृत्यु की चिंता होने लगती है. करीब चालीस साल तक अधिकतर लोगों को मृत्यु के बारे में जरा भी चिंता नहीं होती. पचास साल पूर्ण करने के बाद धीरे धीरे ये चिंता घर करने लगती है. साठ के करीब पहुंचने की जब तैयारी होती है तब चिंता बढती जाती है. पैंसठ, सत्तर या पचहत्तर साल बीतने पर `अब कितने साल’ यह सोचन लगते हैं. पंहत्तर- अस्सी के बाद ऐसा लगने लगता है कि अब किसी वर्ष, किसी भी महीने, किसी भी दिन या अभी मौत आ सकती है.

जब मृत्यु के बारे में सोचते हैं तब जीवन के साथ आपका नाता टूट जाता है. मृत्यू भले ही दो हाथ खोलकर मन ही मन स्वीकार कर लिया हो, लेकिन मृत्यु के विचार आपको जीवन से दूर ले जाते हैं. मृत्यु का भय सबकॉन्शस माइंड में घुसने के बाद आपको भविष्य के बारे में असुरक्षा का अनुभव होता है, भयभीत हो जाते हैं. मृत्यु को आगे धकेलने का उपाय खोजते हैं. मृत्यु जिस पल अभी तक नहीं आई है उसकी परछाईं आपके व्यवहार पर पडने लगती है और आप निश्चिंत और मुक्त रूप से जीना छोड देते हैं.

मनुष्य को अपनी मृत्यु की चिंता करनी चाहिए‍? नहीं. चिंता करके होगा क्या? इसके बावजूद अधिकांश लोग अपने मरने के बाद इसका क्या होगा, उसका क्या होगा, ऐसी चिंता करते हुए जिंदगी का आनंद उठाने के बजाय इन वर्षों को बर्बाद कर देते हैं. आपकी मृत्यु के बाद जिसका जो होना है हो, आपको क्या फर्क पडेगा? आपकी मृत्यु के बाद आपकी संतान बीएमडब्ल्यू में घूमें या फिर भीख मांगे, आपको मरने के बाद क्या फर्क पडता है? आपकी मृत्यु के बाद लोग आपकी प्रतिमा को हार चढाएं या आपके बारे में अनापशनाप बोलें, आप इस दुनिया में हैं ही नहीं तो आपको क्या फर्क पड़नेवाला है?

आप लाख प्रयास करके अपनी संतानों को सुखी करने के लिए अपार संपत्ति छोडकर जाएंगे तो भी अगर उनके कर्म वैसे होंगे तो वे भीख ही मांगेंगे और मान लीजिए अगर ऐसा न भी हुआ तो बीएमडब्ल्यू में बैठकर भी शायद आपको गाली देंगे. आपने निश्चित किया होगा कि मैं कुछ ऐसा काम करके जाऊं कि लोग मेरी वाह वाह करें, लेकिन संभव है कि आपने ही अपनी प्रतिमा को भव्य बनाया हो तो आपके साथ ऐसा भी हो सकता  है जैसे लोगों ने सद्दाम हुसैन की लार्जन दैन लाइफ प्रतिमा को रस्सियों से खींचकर उतार दिया था.

आपकी मृत्यु के बाद इस दुनिया के किसी भी मामले में आपकी एक नहीं चलनेवाली है तो फिर जीते जी इतनी गहराई तक जाने की क्या जरूरत है कि मरने के बाद लोग आपको याद रखें, मरने के बाद परिवारजन-समाज आपको मान-सम्मान दे.

पचास, साठ या पचहत्तर के बाद जब-जब आप अपनी मृत्यु के बारे में सोचते हैं तब जीवन से नाता कट जाता है और आप  उदासीन हो जाते हैं, आपका फोकस बिगड जाता है, आपकी गाडी पटरी से उतर जाती है. ६० साल में बुद्धि सठियाने की बात शायद इसीलिए कही गई है कि आप मौत के डर से वृद्ध हो जाते हैं, जीवन का रस पीने के बजाय उसे गिरा दे रहे हैं, उसमें बेवजह कमियां ढूंढने लगे.

मौत का विचार आपके भरपूर जीवन जीने की राह में रुकावट बन जाता है. जो लोग भरपूर जीवन जीते हैं वे जीवन के सौंदर्य भरे पहलुओं को सामने रखते हैं, मौत के नाम से डराते नहीं हैं. बाबा रामदेव या मोरारीबापू या नरेंद्र मोदी या मुकेश अंबानी या बच्चनजी या नाइन्टीज में प्रवेश कर चुकीं लता मंगेशकर को कभी मौत के बारे में बोलते हुए नहीं सुना. मैने तो शतायु के.का. शास्त्री का टीवी इंटरव्यू जब लिया तब भी उन्हें खूब मस्ती से जीवन जीते देखा, मौत की कोई छाया उनकी आंखों में नहीं थी. अभी सौ वर्ष के हो चुके नगीनदास संघवी साहब की निरामय जिंदगी ने मेरी दशकों पुरानी स्मोकिंग की बुरी आदत छुडवाकर सौ साल तक जीने की मेरी इच्छा को बढा दिया. ये सभी महानुभाव जीवन को जीने में बिजी हैं. उन्हें मृत्यु के बारे में सोचने में कोई रस नहीं है. आपको आपकी मौत से डराकर वे आपसे कुछ छीनना नहीं चाहते. इंश्योरेंस कंपनी वाले या स्वर्ग-मोक्ष की कंडक्टेड टूर का प्रॉमिस करनेवाले बाबा-गुरु आपको झकझोर लेना चाहते हैं. जिसके बारे में खुद को कुछ पता नहीं है ऐसी मृत्यु के बारे में आपको डराकर आपको और आपके धन को अपने वश में करने के लिए वे प्रपंच करते हैं.

कवियों को मौत के बारे में कविता करनी हो तो करते रहें. हमें बनावटी वाह वाह करके दाद देनी चाहिए. चिंतक और विद्वान मौत के बारे में कहते रहें, ज्यादा ध्यान देने की जरूरत नहीं है. हमें मौत के बारे में विचार करने की जरा भी जरूरत नहीं है. उसे आना होगा तो कल ही आ जाएगी और नहीं आना हो तो अगले ४० साल बाद भी नहीं आएगी. आप उसके बारे में कुछ नहीं कर सकते.

आज मैने एक निर्णय किया है. अपने शब्दकोष से मैं `मृत्यु’ शब्द को काट रहा हूं. इतना ही नहीं, उससे पहले ऑलरेडी जो शब्द आ चुका है उसे फिर एक बार इस आखिरी शब्द पर काट कर लिख रहा हूँ. वो शब्द है `जिंदगी’. कोई मुझे भले टोकेगा कि `पफबभम’ से पहले `कखगघचछज’ आता है तो भले आता हो. अब मेरे शब्दकोष में अगर जिंदगी शब्द दो बार आ रहा होगा तो इसमें किसी के बाप का क्या बिगडता है.

मुझे अब अपनी मृत्यु के बारे में नहीं सोचना है. मुझे अब मृत्यु के बारे में लिखना भी नहीं है. मेरा ध्यान जीवन से भटकने लगे ऐसा कुछ भी मुझे नहीं करना है.

मौत भले ही अनिश्चित और अनिवार्य हो लेकिन जिंदगी तो निश्चित है. मुझे पता है कि अभी वह मेरे पास है. मौत के बारे में सोचकर मुझे अपनी जिंदगी की अनिवार्यता को कम नहीं करना है, क्योंकि मेरे लिए मेरी जिंदगी और मेरी जिंदगी के लिए मैं- हम दोनों ही एक दूसरे के लिए अनिवार्य हैं.

आज का विचार
किताब पढी, परीक्षा दे दी और पढाई पूरी हो गई, ऐसा नहीं होता. सारा जीवन, जन्म से लेकर मृत्यु के क्षण तक, ज्ञान ग्रहण करने की प्रक्रिया चलती रहती है.
– जे. कृष्णमूर्ति

छोटी सी बात
लॉकडाउन में घर बैठकर एक साथ सारे कांड याद आ जाते हैं, जब घरवाली कहती है: `बैठिए, एक बात आपसे पूछनी है….’
 

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