मूल `रामायण’ और `महाभारत’ के तथ्य और उसमें प्रविष्ट अतथ्य

लाउड माउथ: सौरभ शाह

(`संदेश’, `अर्धसाप्ताहिक’पूर्ति, बुधवार, १५ अप्रैल २०२०)

लॉकडाउन के दौरान दूरदर्शन पर प्रतिदिन दो दो बार `रामायण’ और `महाभारत’ के एपिसोड्स देखनेवाले करोडों दर्शकों में आपका ये विश्वासपात्र भी है. इसके अलावा `चाणक्य’ और `बुनियाद’ जैसे सीरियल्स भी हैं. जीवन में कभ कल्पना भी नहीं की थी कि ऐसे लॉकडाउन जैसे दिन भी आएंगे. और कभी कल्पना नहीं की थी कि एक ही दिन में इतनी सारी सीरियल्स एक साथ दूरदर्शन पर देखने का आनंद मिलिेगा.

टीवी सीरियल का `रामायण’ और टीवी सीरियल का `महाभारत’ मूल ग्रंथों से कहीं कहीं अलग हैं. सीरियल निर्माताओं की सीमित समझ और कमर्शियल मजबूरी हो सकती है. मूल रामायण वाल्मीकि ने लिखा है और उसके बाद दर्जनों महापुरुषों ने इस महान ग्रंथ में अपनी समझ और कल्पना लगाकर उसका रिमिक्स वर्जन बनाया. गोस्वामी तुलसीदास रचित `रामचरितमानस’ ऐसा ही एक अद्भुत, भावप्रवण और सृजनात्म रिमिक्स्ड वर्जन है. तुलसीदास तो संत थे. उनकी निष्ठा और आध्यात्मिक ऊंचाई सर्वोच्च स्तर की थी. और इसीलिए रामचरित मानस पांच सौ साल बाद भी जनमानस के हृदय में बसा हुआ है.

`रामायण’ में सीता त्याग का प्रसंग आता है जो `उत्तरकांड’ में है. इसे बाद में जोडा गया है. मूल में नहीं है. शबरी के बेर वाला प्रसंग मूल `रामायण’ में नहीं है. रावण के अंतिम समय में राम ने लक्ष्मण को उसके पास ज्ञान लेने के लिए भेजा था, ऐसी कोई बात न तो वाल्मीकि रामायण में है न ही तुलसी के रामचरित मानस में है. उसी प्रकार से ओरिजिनल `महाभारत’ में भगवान श्रीकृष्ण की बाललीलाओं के प्रसंग नहीं हैं. न तो राधा हैं, न कालिया नाग का दमन है. ये सारा तो `महाभारत’ की रचना के हजारों वर्ष बाद सृजित `श्रीमद्भागवत’ नामक पुराण के कारण जनमानस तक पहुंचा है. `महाभारत’ सीरियल में ये सारा मिश्रण देखने को मिलता है जिसे मनोरंजन मानकर आनंद लेना चाहिए.

जिस जमाने में प्रिंटिंग की सुविधा नहीं थी उस जमाने में मूल पवित्र ग्रंथों में घालमेल करने काम उस समय के वामपंथियों द्वारा किया गया. जैसे कि मूल `महाभारत’ में `नरो वा कुंजरो वा’ वाला श्लोक है ही नहीं. मूल `महाभारत’ में कुंती माता कहीं ऐसा नहीं कहती हैं कि:`पुत्रों, तुम जो लाए हो उसे पांचों बांट लो.’ हम लोग ये पढ-सुनकर बडे हुए हैं कि अर्जुन अपने चार भाइयों के साथ दौपदी स्वयंवर में तराजू पर घडे होकर मछली का प्रतिबिंब देखकर मत्स्यवेध करके जब आया तब उसने कुटिया के बाहर से मां को पुकार कर कहा कि मां, देखो मैं क्या लाया हूं. और मां कहती है कि: पांचों भाई बांट लो. और तब द्रौपदी पांचों भाइयों की पत्नी बन गई.

ये सारी मनगढंत कथाएं `महाभारत’ में उस जमाने के विघ्नसंतोषी और विभाजनकारी वामपंथियों ने डाली है.

ये बात सिद्ध हुई है कि द्रौपदी को `बांट’ लेनेवाला मूल प्रसंग `महाभारत’ में है ही नहीं. लेकिन हमारे यहां पर ये इतना लोकप्रिय हुआ कि उसके बारे में मजाक हुए, वल्गर कल्पनाएं की गईं, द्रौपदी की `वेदना’ के बारे में लंबे लंबे उपन्यास कई भाषाओं में लिखे गए और अनूदित हुए, कवियों ने भी योगदान दिया.

c कुंती माता को पता था कि अर्जु अपने भाइयों को लेकर द्रौपदी के स्वयंवर में जा रहा है. इसीलिए पांचों भाई लौटने पर भिक्षा लेकर आ रहे हैं, ऐसा माता का मान लेना स्वाभाविक नहीं है. इस बनावटी प्रसंग को रचकर `महाभारत’ में घुसेडने की धृष्टता करनेवाले उस जमाने के वामपंथी एक अन्य बात भी चूक गए. माता कुंती कभी भिक्षा लानेवाले पुत्रों से नहीं कहती थीं कि:`पांचों समान भाग में बांट लो.’ भिक्षा बांटने का सिस्टम कुंतीमाता ने बुद्धिपूर्वक अमल में लाना शुरू कर दिया था. प्रतिदिन माता को सूचना देने की जरूरत नहीं पडती थी. माता कुंती की योजना के अनुसार पांचों भाई जो भिक्षा लेकर आते थे उस भोजन को एकत्रित करके उसका बराबर भाग किया जाता था. एक भाग भीम को मिलता था और दूसरे भाग में पांच हिस्से बनते थे, जिसमें से एक माता के लिए और अन्य चार भाग चारों भाइयों को मिलते थे. इसीलिए माता की आज्ञा को माथे चढाकर पांचों भाइयो ने द्रौपदी को `समान भाग में’ बांट लिया ऐसी कल्पना करनेवालों और ऐसी कल्पना के आधार पर द्रोपदी की `वेदना’ के बारे में लिखनेवाले तथा पढनेवाले अपनी पोर्नोग्राफिक जरूरतों को संतुष्ट कर रहे हैं, न कि इस महान ग्रंथ `महाभारत’ का पारायण कर रहे हैं.

वाल्मीकि `रामायण’ के बारे में खूब अध्ययन करने का दावा करने वाले कहते हैं कि उसमें लिखा है कि राम तो मांसाहारी थे- ऐसा कहकर वे मूल श्लोकों का उल्लेख भी करते हैं. खुद को बुद्धिजीवी मनवाने के शौक में ये तथाकथित विद्वान भूल जाते हैं कि वाल्मीकि ने एक से अधिक बार `मांस’ शब्द का उपयोग फल के गूदे के लिए किया है, न कि पशु-पक्षी के शरीर के किसी हिस्से के रूप में. राम फलाहार करते थे, मांस नहीं खाते थे. इस संबंध में गहन अध्ययन हो चुका है. जिन्हें रुचि हो वे संस्कृत की अच्छी जानकारी रखनेवाले प्रामाणिक विद्वान के साथ बैठ कर ऋषि वाल्मीकि रचित रामायण के मूल ग्रंथ का अध्ययन करें.

महर्षि वेदव्यास रचित `महाभारत’ के साथ भी ऐसा ही हुआ है. व्यासजी बोलते जा रहे थे और गणेशजी अपने सुंदर मोती जैसे अक्षरों में लिखते जा रहे थे, ये कल्पना बाद में जोडी गई- `महाभारत’ की रचना के हजारों साल बाद पुराण लिखे गए उस समय. सुंदर कल्पना है लेकिन मूल `महाभारत’ के साथ इसका कोई लेना देना नहीं है क्योंकि उस जमाने में लिखने की किसी लिपि की खोज नहीं हुई थी. वेद व्यास और गणेशजी के बीच शर्त लगी वह एक सुंदर उपन्यास का हिस्सा बन सकती है- `महाभारत’ के इतिहास का नहीं. वेद व्यास ने गणेशजी को यह काम सौंपा तब गणेशजी ने लिखने का काम स्वीकारने से पहले कहा कि मेरे पास समय नहीं है. मैं बिजी हुं इसीलिए अगर आप एक बार लिखने का काम शरू करें तो फिर रुकें नहीं. अगर रुके तो मैं काम अधूरा छोडकर चला जाऊंगा. वेदव्यास ने मन में सोचा कि ये भारी पड जाएगा, महाभारत लिखना है- कोईसरकारी लेटर थोडे ही डिक्टेट करना है- प्रसंगों को याद करते हुए थोडा समय भी बीतता है. आप जो कुछ लिखते हैं उसे सोच समझ कर लिखते हैं. बिना समझे एक भी शब्द नहीं लिखना चाहिए. किसी श्लोक का अर्थ आपको समझ में नहीं आता है तो आपको पहले मन ही मन उसे समझने की कोशिश करनी चाहिए, बाद में उसे भोजपत्र लिखना चाहिए.

गणपति कहते हैं मंजूर है. फिर गणेशजी के लिखने की स्पीड के साथ व्यासजी गति नहीं मिला सकते थे तब वे एकाध ऐसा कठिन श्लोक रच देते कि गणपति को लिखते लिखते रुक जाना पडता था और गणपति को उन श्लोकों का अर्थ समझने के लिए माथापच्ची करनी पडती थी और उसी समय व्यासजी उस अवधि का लाभ लेकर आगे के अन्य श्लोक की रचना कर देते. कितनी सुंदर कल्पना है. लेकिन `महाभारत’ के रचना के हजारों साल बाद की गई ये कल्पना है.

`महाभारत’ की रचना जब हुई तब इसमें से कुछ भी नहीं लिखा गया था. केवल बोला गया था. वेद व्यास ने अपने शिष्यों को सुनाया था. श्रुति-स्मृति की परंपरा थी उस जमाने में. श्रुति यानी सुनना. स्मृति यानी याद रखना. गुरु जो रचना करते थे, वह बोलते जाते, इन बातों को शिष्य याद रखते. हजारों साल तक इसी तरह से हमारे महान ग्रंथों का संरक्षण हुआ. लिपि तो बाद में खोजी गई. लिखनेके लिए भोजपत्र इत्यादि का भी उपयोग बाद में आया. प्रिंटिंग टेक्नोलॉजी तो मानो अभी कल की ही बात है.

श्रुति-स्मृति के जमाने में और उसके बाद के काल में सभी स्वार्थी तत्वों ने हमारे मूल ग्रंथों के साथ छेडछाड करके उसमें कई सारी बातें घुसा दीं, जोड दी, जिसे क्षेपक कहा जाता है. ऐसे क्षेपकों को दूर करने के बाद ही मूल ग्रंथों को उनकी पवित्रता वापस मिलेगी.

पुणे की भांडारकर ओरिएंटल इंस्टीट्यूट ने पचास वर्ष तक कई विद्वानों का सहयोग लेने के बाद `महाभारत’ के तमाम संस्करणों का अध्ययन किया. पचास साल बाद १९६६ में `महाभारत’ का सर्वसामान्य संस्कृत वर्जन तैयार किया गया. इस फाइनल वर्जन के कई भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ है. गुजराती में भी अच्छा काम हुआ है- बीस ग्रंथों के रूप में इसका प्रकाशन हुआ है.

इतिहास अपनी जगह हैं और पुराण अपनी जगह.

वेद-उपनिषद तथा रामायण-महाभारत में पुराणों की कथाएं घुस जाती हैं तब मनोरंजन तो होता है लेकिन तथ्य के साथ समझौता हो जाता है. इतना ध्यान में रखकर टीवी सिरियल्स देखने चाहिए. नौ से दस का `रामायण’ खत्म हुआ. अब बारह बजे `महाभारत’ शुरू होने की तैयारी में है. इसीलिए अब पूरा करते हैं.

सायलेंस प्लीज

सोच रहा हूं कि लॉकडाउन आगे बढा है तो गर्मी की छुट्टियां बिताने दूसरे कमरे में चला जाऊँ.

– व्हॉट्सऐप पर पढा हुआ

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here