सचमुच में टफ टाइम किसे कहते हैं इसकी तो हमें कल्पना भी नहीं है

न्यूजव्यूज: सौरभ शाह

(newspremi.com, शुक्रवार, २७ मार्च २०२०)

टफ टाइम असल में कहते किसे हैं इसकी तो हमें कल्पना ही नहीं है. कोरोना के संकट की ये घडियां कठिन हैं और २१ दिन के लॉकडाउन की अवधि खत्म होने के बाद भी महीनों तक आर्थिक तथा अन्य क्षेत्रों में कठिनाइयां भुगतनी होंगी. भगवान का शुक्र मनाना चाहिए कि नरेंद्र मोदी के प्रधान मंत्री रहते देश पर ये विपत्ति आई है, वर्ना सोनिया-मनमोहन जैसों के शासन में ऐसा कुछ हुआ होता तो कांग्रेसी इस देश को नाइजीरिया बनाकर छोडते. भारत को एक शताब्दी पीछे ले जाते.

युद्ध की भयानक विषम परिस्थितियां दुनिया के कई देशों ने जितनी देखी है, उसका दस प्रतिशत भी हमने अनुभव नहीं किया है. अभी तीन सप्ताह तक घर बैठकर खा पीकर आराम करने में हमें परेशानी हो रही है, जरा सोचिए कि दूसरे विश्व युद्ध के समय अमेरिका-ब्रिटेन जैसे समृद्ध देशों में भी हर सक्षम युवा के लिए कंपल्सरी ड्राफ्टिंग थी- सेना में जुडना अनिवार्य था- यदि ऐसा फरमान आज की तारीख में भारत में जारी किया जाय तो? इजराइल की तारीफ करते हुए हम थकते नहीं हैं. चारों तरफ कट्टर दुश्मन के रूप में मुस्लिम देशों से घिरे हुए छोटे से इजराइलियों की बहादुरी और उनके देशप्रेम की सराहना करते हुए हमारी जबान नहीं थकती. लेकिन इजराइल की तरह हर नागरिक को पढाई पूर्ण करने के बाद कुछ वर्षों तक देश की सुरक्षा के लिए सेना में शामिल होना ही पडता है, ऐसा कानून अगर अपने यहां आए तो कितने लोग मोदी को सपोर्ट करेंगे.

बाकी दुनिया जो आपदाएं देख चुकी है, जिन संकटों का सामना कर चुकी है, उसकी बराबरी में ये २१ दिन का लॉकडाउन तो बच्चों का खेल है. ज्यादा बेचैन न हों. २१ दिन बाद क्या होगा और क्या नहीं, ये सोचकर मन को मत जलाइए. सारा देश जब कठिन परिस्थितियों से गुजर रहा है तब मेरा क्या होगा- मेरा क्या होगा का रोना मत रोइए. यहां सब साथ हैं. सभी का हिस्सा है, हर किसी की जिम्मेदारी है, हर किसी की साझेदारी है. समृद्धि के समय में अपने भाग्य में आए ऐश्वर्य का आनंद मैने लिया है. विपत्ति के समय अपने ऊपर आनेवाली आपदाओं को भी मुझे ही सहना है. ऐसे समय में देश की सरकार का साथ देना ही सच्चा देशप्रेम है. बेकार में बातें करने, सलाहें देने या चिल्लपों मचाने का कोई मतलब नहीं है. मोदी की तुलना में आपके अंदर ज्यादा समझदारी है, देश को चलाने की अधिक समझ है या काम करने की क्षमता आपमें अधिक है, अगर ऐसा लगता है तो २०२४ के लोकसभा चुनाव में चुनकर आइए, अन्य सांसदों को साथ लेकर मोदी का तख्तापलट करके प्रधान मंत्री बन जाइए- कौन रोक रहा है आपको. लेकिन तब तक कृपा करके जिला प्रशासन को, स्थानीय कॉर्पोरेशन को, राज्य सरकार को, केंद्र सरकार को घर बैठे बैठे सासू मां की तरह ताने मारना बंद करो.

सरकार युद्ध स्तर पर काम कर रही है. ब्यूरोक्रेसी को इतनी सक्षमता से काम करते हुए जनता ने पिछले ७० साल में पहले कभी नहीं देखा था. इक्का-दुक्का या फुटकर मामलों की माला बना कर गूंथनेवाले मीडिया हाउसेस देश के दुश्मन की कमी को पूरा कर रहे हैं- उनसे तो अच्छा पाकिस्तान है, अभी किसी प्रकार का उपद्रव नहीं कर रहा है. कल ही वित्त मंत्री ने १,८०,००० करोड रूपए के विशाल राहत पैकेज की घोषणा की है. देशभर के तमाम अखबारों में फ्रंटपेज पर आठ कॉलम में उसका शीर्षक होना चाहिए यह तो कोई बालमंदिर में पढनेवाला बच्चा भी अखबार के न्यूज एडिटर से कह सकता है. लेकिन इसके बजाय अनेक अखबारों ने फ्रंटपेज पर लीड पर कैसे समाचार रखते हैं? घाटकोपर में गटर का ढक्कन खुला रह गया. कर्नाटक के उंडूगुंडू गांव में कोरोना वायरस से पीडित चार बीमार मिले. चंडीगढ में सूर्यास्त के समय दो कोयलों ने कुहू कुहू की.

ऐसी ही हास्यास्पद, रिडिक्यूलस और इर्रिलेवेंट हेडलाइन्स आपको आज के कई अखबारों में पहले पृष्ठ पर आठ कॉलम में देखने को मिलेंगी. १,८०,००० करोड रूपए का राहत पैकेज तो मानो पांच रूपए के सींगचने की पुडिया है. धिक्कार है कोरोना की भट्ठी में अपनी मोदीद्वेषी रोटी सेंक रहे लोगों को.

२१ दिन तक घर बैठे रहने में जिन्हें जीवन संघर्षमय लग रहा हो उनसे इन दिनों में तीन फिल्में देखने का आग्रह है. तीनों फिल्में अंग्रेजी हैं. सबटाइटल्स के साथ देखेंगे तो ज्यादा मजा आएगा. मैं ऐसे ही देखता हूं. कुछ फिल्मों के डायलॉग्स तो जबान पर चढे हुए हैं (उदा. के लिए `गॉडफादर’ या `शॉशेंक रिडेम्पशन’) तो सब-टाइटल्स को ऑन रखकर ही देखनी चाहिए. भले ही कोई हमें गुजराती मीडियम वाला कहकर ताना मारे.

इन तीनों फिल्मों के बारे में २०१३ या २०१४ के आसपास विस्तार से लेख लिख चुका हूं. पिछले २४ घंटो से इन लेखों को खोजने की काफी कोशिश की लेकिन भाग्य साथ नहीं दे रहा. मिलने पर पूरे लेख आपके साथ साझा करूयंगा. ये तीनों फिल्में मुझे मेरी जिंदगी के कठिन समय में विश्वास देती रही हैं.

पहली फिल्म है `सिंड्रेला मैन’. रसेल क्रॉ ने उसमें जेम्स ब्रेडोक नामक बॉक्सर की भूमिका निभाई है. रीयल स्टोरी पर आधारित है. १९३० के दौरान अमेरिका की महामंदी का-ग्रेट डिप्रेशन की पृष्ठभूमि है.

सफलता से झूम रहा अमीर बॉक्सर इस महामंदी के कारण धरती पर आ गिरा. परिवार के लिए दो समय का खाना भी उसके लिए चिंता का विषय है. दूध की आधी बोतल में पानी भरकर बच्चों को पिला रहा है. एक जमाने के महान गुजराती उपन्यासकार हरकिसन मेहता की बेटी को खाली नारियल में सादा पानी भर कर पिलाने की बात कलाबेन मेहता ने एक साक्षात्कार में कही थी. संघर्ष के उन दिनों के बाद हरकिसनभाई ने जूहू के पॉश फिफ्थ रोड पर आलीशन फ्लैट लिया, वर्सोवा में बंगला लिया जिसे बाद में पडोसी सैफ अली खान को बेच दिया और पनवेल में फार्म हाउस भी लिया. इस सारी चमक दमक के बाद भी कलाबेन खाली नारियल में सादे पानी वाली बात करती हैं तो आंख में भी वही पानी आ जाता है.

`सिंड्रेला मैन’ में किसी जमाने में शीर्ष बॉक्सर को घर की बिजली का बिल भरने के लिए उस क्लब में जाकर टोपी हाथ में लेकर भीख मांगनी पडती है जहां पर वह अपने पुराने साथियों के साथ मिला करते थे, ये दृश्य इतनी बार देखने के बाद आज भी आंखें नम हो जाती हैं. बिजली का बाकी बिल भरने पर कनेक्शन फिर से जुडे और तभी घर में हीटर चल सकता है और तभी हीटर के बिना घर में रहकर बीमार पडे बच्चों को मौसी के पास भेजना पडा है, उन्हें वापस बुलाया जा सकता है. इनमें से सबसे बडे दस-बारह साल के बेटे को बॉक्सर ने प्रॉमिस दिया है कि मैं तुझे कभी अपने से अलग करके किसी के पास रहने के लिए नहीं भेजूंगा. पिता यह वचन कब देता है? जब वह बेटा पास की दुकान से कुछ खाने की चीज चुरा कर लाता है और छोटी बहन पिता से शिकायत कर देती है. बाप बेटे को फिर से दुकान पर ले जाता है. दुकानदार के सामने शर्मिंदा होकर बेटे द्वारा चुराया गया खाना काउंटर पर वापस रखवाता है.

बाहर आकर फुटपाथ पर बाप-बेटे का संवाद है. हम चोर नहीं हैं, किसी भी परिस्थिति में चोरी नहीं करनी चाहिए, पिता कहता है. बेटा कहता है: मेरे दोस्त के घर में खाने पीने के लिए कुछ नहीं था तो उसके पिता ने उसे किसी रिश्तेदार के यहां भेज दिया. मुझे डर लगा कि हमारे यहां भी खाना नहीं है तो आप भी हमें किसी के पास भेज देंगे. मुझे आपसे दूर नहीं जाना है.

बाप भौंचक्का हो जाता है- बेटे की मजबूरी, बेटे के प्यार को महसूस करके. और फिर उससे वादा करता है कि मैं तुम लोगों को (उसकी तीन संतानें हैं) कभी खुद से अलग नहीं करूंगा. और रास्ते पर ही बाप बेटे आपस में लिपट जाते हैं.

इस प्रॉमिस का पालन करने के लिए बॉक्सर पिता को हाथ में कटोरे की तरह अपनी टोपी पकडकर क्लब में पुराने साथियों से भीख मांगनी पडती है. जो लोग इस फेमस बॉक्सर की स्पर्धाओं का आयोजन करके अपार धन कमा चुके हैं वे उस पर मानो उपकार के भाव से अपनी जेब से फुटकर निकालकर उसकी टोपी में डालते हैं. अंत में बॉक्सर टोपी में पडी राशि गिनता है. बिजली का मामूली बिल भरने के लिए अब काफी कम पैसे हैं. बॉक्सर का ट्रेनर मित्र दृढ साथी उसे बची हुई राशि देता है. बिजली वापस आती है और बच्चे भी. बॉक्सर का यही साथी-ट्रेनर मित्र भविष्य में अपने घर के सारे फर्नीचर बेचकर भी बॉक्सर की मदद करता है, ऐसा एक सीन आता है तब आपकी आंखें भीग जाती हैं.

`सिंड्रेला मैन’ की यह पूरी कहानी नहीं है. केवल छोटा सा ट्रेलर है. जरूर देखिएगा. बाकी की दो फिल्में हैं: विल स्मिथ की `द पर्सूट ऑफ हैप्पीनेस’ जो क्रिस गार्डनर नामक छोटे शेयर दलाल की रीयल लाइफ स्टोरी है.

दूसरी फिल्म है एंथनी हॉपकिन्स की `द वल्ड्स फास्टेस्ट इंडियन’. इंडियन एक मोटरसायकल का ब्रांड है. ये तीनों फिल्में १४ अप्रैल तक आराम से देख लीजिएगा. परिवार के साथ देखिएगा. मित्रों को भी रिकमेंड कीजिएगा. टफ टाइम किसे कहते हैं यह बात ठीक से समझ में आ जाएगी. इसमें से बाहर निकल कर फिर से जिंदगी के साथ जुडने की रीत भी सीखने को मिलेगी. अभी तक का संघर्षकाल तो बिलकुल हल्का फुल्का है, यह बात भी समझ में आएगी. कोरोना के कारण हम सभी के निजी जीवन में भी काफी बदलाव होनेवाला है. हम सभी इस गर्मी में तप कर अधिक शुद्ध, अधिक बुद्धिमान, अधिक सहनशील, अधिक अच्छे स्वभाव के, अधिक उदार, अधिक समझदार और अधिक वजनदार जीवन जीनेवाले बनेंगे.

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