`कश्मीर फाइल्स’: हर समझदार राष्ट्रप्रेमी के लिए दो बार थिएटर में देखने योग्य फिल्म: सौरभ शाह

(गुड मॉर्निंग: फाल्गुन, शुक्ल द्वादशी, विक्रम संवत २०७८, मंगलवार, १५ मार्च २०२२)

तीन दिन में दो बार देखी `कश्मीर फाइल्स’. पहली बार देखकर आप स्तब्ध हो जाते हैं, अवाक्‌ हो जाते हैं, मस्तिष्क सुन्न हो जाता है. दूसरी बार फिल्म पूरी होती है और आप थिएटर की सीट से खड़े होने जाते हैं लेकिन डगमगा जाते हैं, अचानक आंख में आंसू छलक पड़ते हैं, गला रूंध जाता है और रो पड़ते हैं.

कश्मीर के हिंदुओं पर १९९० में नेहरू और कॉन्ग्रेस सरकार में फले फूले शेख अब्दुल्ला और उनके वारिसों की सांठगांठ से वहां के पाकिस्तान परस्त मुसलमान आंतकवादियों ने जो कहर ढाया, जिस तरह से हजारों हिंदुओं का कत्लेआम किया और करीब पांच लाख हिंदुओं को अपना घर जो भी कुछ शरीर पर था उसी के साथ छोड़ना पड़ा, वह इतिहास इतने हार्ड हिटिंग तरीके से हमें किसी ने भी नहीं बताया है.

ये बात बत्तीस वर्ष पहले की है. देश के जिस मीडिया के कुकर्मों की कलीई खोलते खोलते मैं अपनी बिरादरी में अप्रिय (अनपॉपलुलर ही नहीं उनके धिक्कार का पात्र भी) बना हूँ, उस मेन स्ट्रीम मीडिया ने १९ जनवरी १९९० को और उसके बाद कश्मीर में क्या घटित हुआ, वह सच्चाई आप तक पहुंचने ही नहीं दी.

फिल्म में एक संवाद है:`झूठी खबर देने से भी अधिक बड़ा पाप है सच्ची खबर को छिपाना.’ देश की सेकुलर मीडिया ने बार-बार यही पाप किया है. झूठी खबरें दी और सच्ची खबरों को दबाया. फिल्म के एक अन्य प्रसंग में कश्मीर में डीजीपी की भूमिका निभाने वाले पुनीत इस्सर कहते हैं:`न्यूज ही अगर फेक होगी तो हिस्ट्री में कहां से सच लिखा जाएगा?’

१९९० के कश्मीर जेनोसाइड (नर संहार, जो हिटलर ने जर्मनी में यहूदियों के साथ किया था) की खबर न तो देश-दुनिया तक पहुंचाई गई, न ही काली करतूतों को कभी इतिहास में ही वर्णित किया गया.

`कश्मीर फाइल्स’ में उस घटना का और साथ उसके बाद के दिनों-वर्षों के बारे में संशोधन करके इतनी सुव्यवस्थित रूप में आप तक पहुंचाया गया है कि आपके रोंगटे खड़े हो जाते हैं. स्थानीय अखबारों में तस्वीरों के साथ छपी, कहीं फुटकर जगहों पर उल्लिखित, तो कुछ पुराने रेकॉर्ड्स में दबी पड़ी रही तथा साथ ही जिन्होंने स्वयं भुगता है-जिन्होंने अपनी आंखों से उन घटनाओं को देखा है, उनसे मिलकर- उन तमाम कहानियों को `कश्मीर फाइल्स’ द्वारा पहली बार सारे देश और सारी दुनिया के सामने पहुंचाया जा रहा है.

आतंकवादियों की गोलियों से बेमौत मरनेवाले जवान पति के खून में भीगे चावल एक ही मिनट पहले विधवा हुई नारी को जबरन खिलाया जाना. लकडी की बखार में चलती बिजली की आरी से स्त्री को कटते देखना, अत्यंत मासूम नन्हें बच्चे सहित दो दर्जन स्त्री-पुरुषों को कतार में खड़ा करके उन्हें गोली मारना और सीधे उनकी लाशों का कब्र में गिरना और दफना दिया जाना (हिंदू संस्कार के अनुसार अंतिम विधि भी उनके भाग्य में नहीं आई). ऐसे दृश्यों को फिल्म के पर्दे पर दिखाने के लिए फिल्मकार और उसे देखने के लिए दर्शकों का कलेजा सख्त होना चाहिए. ये तमाम किस्से सत्य हैं, इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है.

…ऐसे दृश्यों को फिल्म के पर्दे पर दिखाने के लिए फिल्मकार और उसे देखने के लिए दर्शकों का कलेजा सख्त होना चाहिए. ये तमाम किस्से सत्य हैं, इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है.

जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) नामक आतंकवादी संगठन के मुखिया यासीन मलिक को उपरोक्त अपराधों के लिए गिरफ्तार किया जाता और कुछ समय बाद छोड भी दिया जाता. उसने एयरफोर्स के चार अफसरों को दिनदहाडे खुलेआम सडक पर गोली मारी थी. इस यासीन मलिक को कसाब और अफजल गुरु की तरह कब का फांसी पर लटका दिया जाना चाहिए था, लेकिन कांग्रेस के शासन में सोनिया की कठपुतली बने प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह के साथ उसे मिलने के लिए बुलाया जाता है, उसकी खातिरदारी की जाती है- उस समय की तस्वीरें उस समय सभी प्रमुख समाचार माध्यमों द्वारा भारत की जनता तक पहुंची थीं. ये सारी सच्चाई `कश्मीर फाइल्स’ में दिखाई गई है. हमेशा कानून के हाथों से दूर आजाद घूमते रहे यासीन को २०१४ में मोदी सरकार के आने के बाद तिहार में डाला गया. कई वॉटरटाइट केस हैं इस आतंकवादी पर. लेकिन विकीपीडिया में लेफ्टिस्टों ने लिखा है कि: `१९९४ में मलिक ने हिंसा का त्याग (रिनाउंस्ड वॉयलेंस) किया और कश्मीर विवाद के समाधान हेतु शांतिपूर्ण नीतियां अपनाईं.’

रिनाउंस्ड वॉयलेंस.

माय फुट.

विकीपीडिया ने ऐसी कई सारी बदमाशियां की हैं.

`कश्मीर फाइल्स’ में यासीन मलिक के पात्र का नाम, स्वाभाविक रूप से बदला गया है- फारुक मलिक बिट्टा. यासीन मलिक को देश की मेन स्ट्रीम मीडिया का और उस समय के शासक दलों का- केंद्र में कॉन्ग्रेस का तथा राज्य में नेशनल कॉन्फ्रेंस का सक्रिय समर्थन था, ऐसा अप्रत्यक्ष उल्लेख फिल्म में है. `ऑपइंडिया’ ने तो यह खुलकर लिखा है कि यासीन मलिक को इंडिया टुडे, रवीश कुमार (एनडीटीवी वाला, कई लोग इस टीवी चैनल के चार अक्षरों से पहले R लिखते हैं- R फॉर? आप जानते हैं कि इस प्रकार के मीडिया को प्रेस्टीट्यूट (प्रेस+प्रोस्टीट्यूट) क्यों कहा जाता है. बस R का मतलब वही है!) तथा कॉन्ग्रेस और अब्दुल्लाज़ (फारुख और उसका बेटा ओमर जो कि दोनों ही सी.एम. पद पर रह चुके हैं) की ओर से प्लेटफॉर्म दिया गया था.

`कश्मीर फाइल्स’ सिर्फ कश्मीरी हिंदुओं के जेनोसाइड का दस्तावेज ही नहीं है बल्कि इसके अलावा यह एक अत्यंत सुगठित, स्वच्छ निर्देशन, स्क्रीनप्ले, सिनेमेटोग्राफी तथा अभिनय से समृद्ध परिपूर्ण फिल्म है. स्टीवन स्पीलबर्ग द्वारा `शिंडलर्स लिस्ट’ बनवाने के लिए स्वाभाविक रूप से हॉलिवुड में अरबों रुपए हैं इसीलिए उनका प्रोडक्शन अधिक चकाचौंध से भरा होता है, फिल्म के हर विभाग के लिए वे लोग टॉपमोस्ट महंगे महंगे कलाकारों-विशेषज्ञों को ले सकते हैं. यहां नमन है उस निर्माता-निर्देशक-लेखक विवेक रंजन अग्निहोत्री को जिन्होंने बहुत ही कम बजट में इस तरह से जकड कर रखनेवाली फिल्म बनाई है कि ऑडिएंस उसमें ओतप्रोत हो जाती है. दोनों बार थिएटर के अंधकार में कई बार अलग अलग दिशाओं से सिसकियां और चीत्कार सुनाई देती रही.

पुष्करनाथ पंडित की मुख्य भूमिका निभाने वाले अनुपम खेर का काम नि:संदेह इस वर्ष के अभिनय से जुड़े तमाम अवॉर्ड पाने के योग्य है. नेशनल अवॉर्ड तो मिलता ही है, `फिल्मफेयर’ अवॉर्ड वाले भी दिखावे की खातिर ही सही किंतु तटस्थता प्रकट करने का मौका नहीं छोड़ेंगे.

पुष्करनाथ पंडित की मुख्य भूमिका निभाने वाले अनुपम खेर का काम नि:संदेह इस वर्ष के अभिनय से जुड़े तमाम अवॉर्ड पाने के योग्य है. नेशनल अवॉर्ड तो मिलता ही है, `फिल्मफेयर’ अवॉर्ड वाले भी दिखावे की खातिर ही सही किंतु तटस्थता प्रकट करने का मौका नहीं छोड़ेंगे. अपनी आंखों के सामने मार दिए गए बेटे के शरीर से बहते लहू में भीगे चावल खाने के लिए मजबूर होने वाली पुत्रवधू के पास बैठे पुष्करनाथ के चेहरे पर उतरी असहायता, उनकी सायलन्ट चीख- अनुपम खेर देश के कितने बड़े अभिनेता हैं, यह साबित करने के लिए `कश्मीर फाइल्स’ का यही एक दृश्य पर्याप्त है. बेटा गंवाने के बाद पुष्करनाथ खुद को मिलनेवाली पेंशन की राशि से विधवा पुत्रवधू और दो छोटे पोतों सहित अपने परिवार का भरण पोषण और पढ़ाई की जिम्मेदारी उठा सकें इसीलिए मोतियाबिंदु के ऑपरेशन में डॉक्टर महंगा नहीं बल्कि सस्तावाला लेन्स लगाने को कहते हैं- डॉक्टर द्वारा उनकी तबीयत को ध्यान में रखकर चेतावनी देने के बावजूद. इतना ही नहीं पुष्करनाथ ने रात का भोजन छोडकर सुबह एक ही वक्त का भोजन जारी रखा है. कश्मीर से निकाले जाने के बाद जम्मू में रिफ्यूजी कैंप में तंबू के बाहर बिच्छु का डर होने के बावजूद अंदर नहीं सोते थे. क्यों? रात को जब खूब भूख लगती, तब पुष्करनाथ छोटे स्टील के डिब्बे में रखा पार्ले-जी का एक बिस्किट चाटकर (खाकर या काटकर नहीं-चाट कर) मुंह से निकलती लार को संतुष्ट कर देते हैं. बिस्किट डिब्बे में फिर से रखने के बाद पुष्करनाथ की आंखों में पढ़ी जा सकनेवाली वेदना और उनके मुंह से निकल कर होंठों से होकर टपकती लार देखकर आपको लगता है कि किसके बारे में सोचें -निर्देशक, अभिनेता, स्क्रिप्ट राइटर या फिर अपने ही देश में निर्वासितों का जीवन व्यतीत करने की मजबूरी जिन्होंने उनके भाग्य में लिखी उस विधाता के.

पुष्करनाथ को अपने गांव का घर याद आता है, यह दिखाने के लिए एक जबरदस्त सीन `कश्मीर फाइल्स’ में है. असह्य गर्मी में रहने के बावजूद पुष्करनाथ को कंपकंपी छूटती है, दांत कटकटाते हैं, वतन में बर्फबारी हो रही होगी, मुझे कंबल चाहिए, मुझे कांगड़ी दो कोई… ऐसा भ्रम हो रहा है. बेवतन हुए कश्मीरियों की लाचारी दर्शाता, यह प्रतीकात्मक दृश्य फिल्म को एक गजब की ऊंचाई पर पहुंचाता है.

इस फिल्म को ऊंचाई प्रदान करनेवाली दूसरी बात ये है कि निर्देशक ने कहीं भी, बॉलिवुड में तथा वेब सिरीज़ में अनिवार्य बन चुके रेप सीन्स तथा स्त्री (या पुरुष) के साथ अप्राकृतिक संबंधों के दृश्य फिल्म में रखे क्या, उसे लकडी से छुआ तक नहीं है. असल में उस महिला के साथ ऐसे सारे कृत्य किए गए थे जिसे आरा मशीन पर चीर दिया गया था. लेकिन हिंदुत्व के संस्कार आप देखें- कि निर्देशक /लेखक ने उस संबंध में कोई इशारा तक नहीं किया है. बॉलिवुडिया लोग कब सीखेंगे ऐसा संयम? वेबसिरीज़ वालों के लिए तो यह सब कुछ एक चटपटा मसाला बन चुका है.

डिविजनल कमिश्नर की भूमिका निभा रहे आई.ए.एस. अधिकारी मिथुन चक्रवर्ती तथा उनके तीन मित्रों के पात्र फिल्म के कथानक का क्रमश: विकास करते हैं और पुष्करनाथ का पौत्र कृष्णा उस कथानक को क्लाइमेक्स पर पहुंचाता है. इन सभी के बारे में विस्तृत बातें बाद के लेखों में करूंगा.

लेकिन आज की बात खत्म करने से पहले दो बातें.

`कश्मीर फाइल्स’ में मीडिया को खुलकर `टेररिस्टों की रखैल’ के रूप में चिन्हित किया गया है. मीडिया का यह रूप २००२ के गोधरा हिंदू हत्याकांड के समय भी देखने को मिला था. बार बार वह रूप दिखता ही रहा, `एक दिन ऐसा आएगा जब इन मीडिया वालों को लोग सडक पर घसीट घसीट कर मारेंगे’- फिल्म में जब यह संवाद बोला जाता है…

`कश्मीर फाइल्स’ में मीडिया को खुलकर `टेररिस्टों की रखैल’ के रूप में चिन्हित किया गया है. मीडिया का यह रूप २००२ के गोधरा हिंदू हत्याकांड के समय भी देखने को मिला था. बार बार वह रूप दिखता ही रहा, `एक दिन ऐसा आएगा जब इन मीडिया वालों को लोग सडक पर घसीट घसीट कर मारेंगे’- फिल्म में जब यह संवाद बोला जाता है तब पत्रकार (दूरदर्शन का) कहता है: `मेरे बारे में ऐसा मत बोलना, मुझे सरकार ने पद्मश्री का खिताब दिया है.’

उस पत्रकार से कहा जाता है:`पद्मश्री खामोश रहने के लिए दिया जाता है.’

वह जमाना ऐसा ही था. राजदीप सरदेसाई को सोनिया की सरकार ने पद्मश्री दिया था (२००८ में). बरखा दत्त और मरहूम विनोद दुआ को भी उसी वर्ष पद्मश्री दिया गया था. शेखर गुप्ता को बुरा न लगे और वह चिल्ल पों न मचाए, इसीलिए २००९ में पद्मभूषण थमा दिया गया. मीडियावालों को आतंकवादियों की रखैल बनने के लिए कांग्रेस की सरकार पुरस्कृत करती थी. २०१४ के बाद पद्म पुरस्कार का दुरुपयोग बंद हुआ.

दूसरी बात. हिंदुओं के विरुद्ध होनेवाले अत्याचारों को छिपाने के लिए, कॉन्ग्रेस और उसके पिट्ठू बनने वाले अन्य राजनीतिक दलों की देश विरोधी गतिविधियों को छिपाने के लिए और आतंकवादियों को न्यायपूर्ण ठहराने के लिए मीडिया के अलावा शिक्षा क्षेत्र में घुस चुके साम्यवादियों की आज भी एक बहुत बड़ी फौज काम कर रही है. `कश्मीर फाइल्स’ में धारा ३७० हटाने के बाद ए.एन.यू. (जिसका अनुप्रास जे.एन.यू. के साथ बैठता है!) की प्रोफेसर राधिका मेनन किस तरह से विद्यार्थियों का ब्रेन वॉश करती है, इसका सटीक चित्रण किया गया है. माथे पर बड़ी बिंदी, कान में झूलती लंबी बालियां, गाढी लिपस्टिक और काजल से भरी आंखें-टिपिकल एनजीओ की बहनजीयों में एक लगती प्रोफेसर मेनन का खलनायिका जैसी भूमिका विवेक अग्निहोत्री की पत्नी पल्लवी जोशी ने निभाई है, बडी खूबसूरती से निभाई है.

`कश्मीर फाइल्स’ एक बार देखने जैसी फिल्म नहीं है. दो बार देखेंगे तो इस देश में २०१४ से पहले के राजनेता-आतंकवादी-मीडिया और एजुकेशनिस्टों की चांडाल चौकडी कैसे कैसे कांड करती रही है, ये आप जिंदगी भर नहीं भूलेंगे.

`कश्मीर फाइल्स’ एक बार देखने जैसी फिल्म नहीं है. दो बार देखेंगे तो इस देश में २०१४ से पहले के राजनेता-आतंकवादी-मीडिया और एजुकेशनिस्टों की चांडाल चौकडी कैसे कैसे कांड करती रही है, ये आप जिंदगी भर नहीं भूलेंगे. देखते समय सिर्फ एक बात याद रखिएगा. `कश्मीर फाइल्स’ में आपको एक टिकट में दो फिल्में देखने को मिलती हैं. पौने दो घंटे लंबी इस फिल्म के इंटरवल तक के पूर्वार्ध में एक तराशी हुई फिल्म देखने को मिलती हैं. इंटरवल के बाद के उत्तरार्ध में जो शुरू होता है, उसे फिल्म के रूप में देखने के बजाय एक दस्तावेजी फिल्म, डॉक्युमेंट्री फिल्म के रूप में देखेंगे तो अधिक इनवॉल्व होकर देख सकेंगे. अधिक गहराई से समझ सकेंगे.

शेष बातें कल.

1 COMMENT

  1. जो जिससे मिला सिखा हमने,
    गैरों को भी अपनाया हमने;
    हम उस देश के वासी हैं,
    जिस देश में निर्दोषों के;
    खूनकी गंगा बेहती है … …

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