लोग जब आपको `गैरजिम्मेदार` कहकर ताने मारते हैं तब

लाउड माउथ- सौरभ शाह

(बुधवार, ४ जुलाई २०१९, अर्धसाप्ताहिक पूर्ति, `संदेश’)

बेटा या बेटी जब टीनेज में कदम रखती है कि तुरंत माता-पिता उन्हें टोकना शुरू कर देते हैं: अब बडे हो गए हो गए तुम लोग. जिम्मेदारी उठाना सीखो. बी रिस्पॉन्सिबल.

ऐसा कब कहा जाता है? जब टीन एजर संतान अपने मन का काम करती है तब, अपनी मनमर्जी का आचरण करती है तब. जब माता-पिता का कहना नहीं मानती है तब. पैरेंट्स की इच्छा के अनुसार आचरण नहीं करती है तब.

किशोरावस्था से ही हमारे भीतर ये संस्कार दृढ हो जाते हैं कि हम अपनी मर्जी से बर्ताव करते हैं, अपना मनचाहा करते हैं तो गैरजिम्मेदार कहलाते हैं. अन्य लोग हमारे आचरण पर जो मुहर लगा दें, उसी को रिस्पॉन्सिबल आचरण कहा जाता है.

ये संस्कार इतने दृढ हो जाते हैं कि करीब पच्चीस साल का होने तक हम भूल जाते हैं कि हमारी मर्जी क्या है, हमें किस तरह से जीना है, अपने जीवन को हम कहां, किस दिशा में ले जाना चाहते हैं.

पच्चीस वर्ष की उम्र तक हम जी तोड मेहनत करके अपनी छाती पर `रिस्पॉन्सिबल’ व्यक्ति का लेबल लगाने के लिए जीने लगते हैं. आखिर कोई हमें गैरजिम्मेदार कह कर चला जाए, ये हम कैसे सह सकते हैं? अब तो बडे हो गए हैं, जिम्मेदारी उठाना सीख गए हैं.

जिम्मेदार होना यानी स्वयं के प्रति जिम्मेदार होना. जब हम खुद से प्यार करते हैं और तब कोई सवाल करता है तो हम उसे जवाब देते हैं, टालते नहीं हैं. हमारे किसी भी बर्ताव के लिए, अपने किसी विचार के लिए, अपने उद्देश्यों और दूसरों के प्रति राय के लिए, अपनी साहसिकता- अपनी नादानियों के लिए और अपने जीवन के लक्ष्यों के लिए जब कोई भी हमसे सवाल करता है तब हम जितना भी हमसे बन पडता है उतना. पर हम उसे जवाब देना जरूर सीखते हैं. इसी का नाम है जिम्मेदारी.

हमें सीखना है कि जवाब किसे देना है और किसे नहीं और अगली पीढी को भी यही सिखाना है. लोगों की नजर में `गैरजिम्मेदार’ दिखनेवाले किंतु खुद को निरंतर जवाब देनेवाले, अपने प्रति वफादार रहनेवाले व्यक्तियों ने ही समाज का भला किया है, वे लोग ही दुनिया को दो कदम आगे ले गए हैं. दूसरों को जवाब दे दे कर `जिम्मेदार’ बन जानेवाले लोग भले ही समाज में `रिस्पॉन्सिबल’ आदमी के रूप में आदर पाते हों, कभी कभी पूजे भी जाते हों, लेकिन ऐसे `जिम्मेदार’ लोग दुनिया की प्रगति में आडे आते हैं जिसका ध्यान उन्हें  खुद भी नहीं रहता.

जिम्मेदारीपूर्वक जीने के लिए दूसरों की नहीं, खुद की बात सुननी चाहिए. खुद की बात कैसे सुनाई देती है? जब बाहर का कोलाहल कम होता है तब. हमारे आस पास का हर व्यक्ति हमें रिस्पॉन्सिबल बनाने के लिए जीतोड मेहनत करता है. माता पिता, पत्नी, बच्चे, प्रेमी-प्रेमिका, पडोसी, परिवारजन, मित्र, ऑफिस के कलीग्स- सभी को शौक होता है हमें जिम्मेदारी का एहसास दिलाने का. मोटे तौर पर वे लोग ऐसा करके हमसे अपना काम निकाल लेते हैं. और हम मासूम, हम मूर्खों के सरताज, हमें पता ही नहीं होता कि उनसे `रिस्पॉन्सिबल’ बनने का सर्टिफिकेट पाने के जोश में उनकी सुविधाओं के लिए हम खुद को घिस रहे होते हैं.

अपने उत्साह से हम दूसरों का भला करते हैं, उनके काम आते हैं, उनकी परेशानियों को दूर करते हैं जो कि अच्छी बात है. ये सब करना भी चाहिए. हमारे लिए भी कई लोगों ने ऐसा किया है जिसके कारण अभी जहां हैं वहां तक पहुंचने में कम कठिनाइयों को झेला है. दूसरों ने यदि हमारे लिए ये काम न किया होता तो जीवन के चढाव का रास्ता अधिक कठिन, अधिक संघर्षपूर्ण बन गया होता.

तो हम भी खुशी से दूसरों के लिए उपयोगी बने, दूसरों की कठिनाइयों को दूर करने के लिए हमसे जो बन पडे वह करें. लेकिन अपनी समझ से, अपनी मर्जी से करें. दूसरे लोग हमें इमोशनली ब्लैकमेल करके काम निकालना चाहते हों तो ऐसे समय में सतर्क हो जाना चाहिए. गैर-जिम्मेदार होने का ताना सुनना पडे तो कोई बात नहीं लेकिन चालबाजियों का शिकार होने से पहले समय पर सचेत हो जाना चाहिए.

वर्ना, होगा ये कि सारी जिंदगी हम `जिम्मेदारी’ निभाते रहेंगे. मरने के बाद हमारे अंतिम संस्कार के समय `बहुत ही रिस्पॉन्सिबल’ आदमी थे, की भुनभुनाहट होगी और बादवाले दिनों में हम भुला दिए जाएंगे. वही लोग हमें भूल जाएंगे जिन्होंने हमें `रिस्पॉन्सिबल’ बनाया, जिनके लिए `जिम्मेदारी’ से प्रेरित होकर जीवन के बडे हिस्से के कीमती पलों को हमने खर्च कर दिया, बर्बाद कर दिया ताकि हम उनकी जिंदगी संवार सकें, बेहतर बना सकें.

`गैर जिम्मेदार’ बनकर जीना सीखें. `बेफिक्री’ से जीना सीखें. जिम्मेदारी अपने लिए हो, फिक्र खुद की हो. अपने हर आचरण, विचार के लिए मैं ही जिम्मेदार हूं और मेरे हर कृत्य, सोच के लिए मुझे खुद को जवाब देना है. हमें बस इतना ही करना है. इसके लिए बहुत बडा विद्रोही बनने की जरूरत नहीं है. बगावत का झंडा उठाकर सारे गांव में आंदोलन करने की जरूरत नहीं है. असल में, इन विचारों को वाणी द्वारा प्रकट करने भी जरूरत नहीं है. पहले हम इन विचारों को अपनी भीतर प्रस्फुटित होने दें, उसके बाद स्थिर होने दें, फिर विकसित होने दें. और जब ऐसा प्रतीत हो कि उसकी जडें जमने लगी हैं तब उसके अनुसार आचरण करना शुरू कर देना चाहिए. तब मजा देखिए. जिंदगी में आषाढी दूज का नया पावन वर्ष ही नहीं, सारी जिंदगी नए सिरे से शुरू हो रही है, ऐसा लगेगा.

साइलेंस प्लीज!

निर्मल मिले आनंद, भले रोज ना देना;
पर तुच्छ खुशी का कभी तुम बोझ ना देना.
वह नीचता नहीं चाहिए, मुझे हे प्रभो;
दुश्मन की निराशा में मुझे मौज ना देना.
– `मरीज’
 

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