वॉट्सएप पर घूमने वाली सारी कविताएँ गुलजार साहब की होती हैं?

गुड मॉर्निंग – सौरभ शाह

(मुंबई समाचार, शुक्रवार- २२ मार्च २०१९)

गुलजार साहब के गीतों में नसरीन मुन्नी कबीर द्वारा किए जा रहे अनुवाद की बात करते करते नसरीन उनसे पूछती है: नेट पर, खासकर यूट्यूब पर आपके गीतों के विचित्र विचित्र से अनुवाद देखने को मिलते हैं. वह पढकर आपको तकलीफ नहीं होती?

गुलजार साहब उदारता से कहते हैं: करने दो भई. अपना क्या जाता है इसमें? मेरे पास इतना फालतू समय नहीं है कि मैं अपने गीतों का अनुवाद करने बैठूँ. हर कोई अपनी अपनी समझ के अनुसार अनुवाद करे तो करने दो.

अब नसरीन एक ऐसा मुद्दा उछालती है कि जिससे इसे लिखनेवाला खुद भी व्यथित है और पर्सनल व्हॉट्सएप ग्रुप में जब जब ये बात आती है तब गुलजार साहब के अवैतनिक चौकीदार के रूप में उनकी क्रिएटिविटी की रक्षा करने का कर्तव्य यथाशक्ति निभाया है.

नसरीन मुन्नी कबीर पूछती है: बहुत सारे लोग नेट पर, फेसबुक पर अपनी कविता को आपके नाम पर वायरल करते हैं, है ना?

गुलजार: फेसबुक पर ही नहीं, व्हॉट्सएप पर भी. खूब सारी फेक कविताएँ आपको देखने को मिल जाएंगी. कई बार तो लोग ऐसी फेक कविता मुझे भी फॉरवर्ड करते हैं. एक मित्र तो जब भी ऐसी फेक कविता कहीं पढते हैं तो तुरंत मुझे फॉरवर्ड करके बधाई देते हैं. कई मित्रों को नेट पर ब्राउजिंग करते समय ऐसी फेक रचनाएँ दिखती हैं तो तुरंत मुझे ईमेल करते हैं. इनमें से ९० प्रतिशत कविताएँ मेरी होती ही नहीं. लोग ऐसा करते हैं तो मुझे दुख होता है. मेरी कविता से कुछ शब्द उठाकर उसके इर्दगिर्द अपनी कविता बुन लेते हैं जिसे मैं कविता नहीं मानता, ये इतनी खराब तरीके से लिखी होती हैं. मेरा इतना ही निवेदन है कि प्लीज उस कविता के नीचे आप अपना नाम लिखिए और मुझ पर चारी का लेबल मत लगने दीजिए! मेरा मित्र सलीम आरिफ, मेरे नाम का फेसबुक पेज चलाता है जिसमें मेरी ओरिजिनल कविताएँ पोस्ट होती हैं, हर दिन एक. उस पेज के लिए वह कहता है: डोन्ट गो बाय द लुक, गो बाय द बुक! सलीम का मानना है कि मेरे नाम पर फेक कविता लिखनेवालों ने सिर्फ मेरी कविता के बारे में सुना होता है, कभी पढा नहीं होता. पर यदि उन्होंने मेरी कविताएँ पढी ही नहीं हैं तो उस कविता के शब्द या कोई पंक्ति उन्हें मिली कहां से? उन लोगों से कहना चाहिए कि यह विशिष्ट पंक्ति (या शब्द समूह) उन्हें किसकी कविता से मिले हैं. उसके बजाय वे सारा का सारा कचरा कविता के नाम पर मेरे माथे पर मढ देते हैं. एक दिन दो लडकियां मेरे बंगले के झरोखे पर आईं और कविता तथा केक चौकीदार को देकर गईं. केक इसीलिए कि मेरी एक कविता के वॉट्सएप पर वायरल हुए एक साल पूरा हो चुका था लेकिन वह कविता तो मेरी थी ही नहीं! मैने वह कविता पवन झा को भेजी. पवन भी मेरे एक फेसबुक पेज तथा मेरी वेबसाइट गुलजारऑनलाइन डॉट कॉम के एडि्मन हैं. अब जब भी ऐसी कोई फेक कविता उनके हाथों में आती है तो वे नीचे जोड देते हैं: ‘एनजीबी’, नॉट बाय गुलजार. बाय द वे, पवन ने जब उन दो लडकियों द्वारा दी गई कविता को फेसबुक पर (‘एनजीबी’ करके) पोस्ट किया तब एक लेडी ने मुझसे संपर्क करके मुझसे कहा कि ये कविता तो मैने लिखी है लेकिन गुलजार साहब के नाम से प्रचलित हो गई. इसीलिए लोग मानने को तैयार ही नहीं हैं कि वह रचना मेरी है.’ पवन ने उससे पूछा कि: तो आप यही बात सबके सामने जोर से चिल्लाकर कहती क्यों नहीं?

उस बहन ने कहा:‘इंटरनेट पर लोग बहुत एग्रेसिव होकर रिएक्ट करते हैं. इसके अलावा, ये कविता कम से कम सौ बार लोगों ने दूसरों को फॉरवर्ड की होगी. मैं क्या कर सकती हूँ?’

नसरीन: कम्युनिकेशन के इस नए माध्यम के कारण बहीत सारी इंटेलेक्चुअल डिसऑनेस्टी भी प्रवेश कर चुकी है. आपके मौलिक सृजन का इसमें अपमान होता है, क्या आपको ऐसा लगता है?

गुलजार: शर्म जैसा कुछ रहा ही नहीं है. किसी को यदि कवि बनना हो तो उसे एक से शुरू करके अपनी कविता लिखनी चाहिए, भले ही वह चाहे कितनी ही खराब क्यों न हो, लेकिन वह खुद की होनी चाहिए. आप दूसरे की नकल क्यों करते हैं? दूसरों को डिस्क्रेडिट क्यों करते हैं? कविता में जिस सादगी भरी भाषा का मैं प्रयोग करता हूँ, उसे देखकर लगता है कि ऐसा तो कोई भी लिख सकता है. तो लिखिए ना. रोक कौन रहा है आपको. लेकिन अपना खुद का लिखिए, अपने नाम से लिखिए.

नसरीन: आपकी सिंपल भाषा असल में सिंपल होती नहीं है. (उसमें अनेक निहितार्थ छिपे होते हैं) और यह बात अनुवाद करते समय मुझे समझ में आई. मुद्दा ये है कि आपकी रचना में आपकी एक अलग आवाज, आपका एक अलग मिजाज जो प्रकट होता है, वह ऐसे लोग देख नहीं पाते. जैसे कि कोई अपनी तरह से तुकबंदी करके गजल लिख ले और नीचे गालिक का नाम रख दे, ऐसा अनेक लोग करते हैं. आप जैसा व्यक्ति तो सपने में भी ऐसा सोच नहीं सकता.

गुलजार: मैं को कोई कबाड जैसी गजल लिखकर नीचे गालिब का नाम लिख दूँ और लोग उसकी प्रशंसा करें तो इसका मतलब ये हुआ कि उन्होंने गालिब को पढा ही नहीं है. उसी तरह से मेरे नाम पर घूमनेवाली कविता पढकर वे सोचते हैं कि क्या सचमुच ये मेरी है तो इसका अर्थ ये हुआ कि उन्हें ये पता ही नहीं है कि मैं क्या लिख गया हूँ, कैसा लिख गया हूँ. मैने एक बार एक कविता में एक पंक्ति लिखी थी: ‘आदतें भी अजीब होती हैं’ और किसी ने उसकी नकल करके अपनी कविता बना दी:‘औरतें भी अजीब होती हैं.’

नसरीन: भयानक है

गुलजार: बिलकुल

नसरीन: यह परिस्थिति रोचक है और काफी हद तक अंकंट्रोलेबल है. हम नया मुद्दा लेते हैं. आप मानते हैं कि हर कविता का अर्थ व्यक्ति अपनी तरह से निकाल सकता है, है ना.

गुलजार: ऐसा ही होना चाहिए. अन्यथा कविता लंबे समय तक जीवित कैसे रह सकती है, ताजा कैसे रहेगी? गालिब की गजलों का यदि एक ही अर्थ निकलेगा तो विद्वान और पंडित आज डेढ सौ साल बाद भी गालिब पर नए नए संशोधन कहां से करते हैं? अब शेक्सपियर का ही उदाहरण ले लीजिए. उनका नाटक सॉनेट आज ४०० साल बाद भी दुनिया भर के हजारों स्कॉलर्स को आकर्षिक करता है. कविता तराशे हुए हीरे की तरह होती है जिसे आप अलग अलग एंगल से देखेंगे तो आपको अलग रंग, अलग आकार नजर आएगा. एक मजे की बात बताता हूँ. डॉ. बशीर बद्र उर्दू के विद्वान शायर हैं. उन्होंने खुद एक बार ये बात कही थी. कॉलेज में जब वे पढ रहे थे तब परीक्षा में एक पेपर में उनकी अपनी ही कविता का अर्थ पूछा गया. पेपर जॉंचनेवाले अध्यापक ने उन्हें बुलाकर कहा:‘इस पंक्ति का भावार्थ ये नहीं है, आपका जवाब गलत है.’ बशीर बद्र ने कहा:‘सर, ये पंक्तियॉं मैने ही लिखी हैं.’ परीक्षक:‘नहीं, पर इसका अर्थ ये नहीं होगा, ये होगा…’ बद्र साहब के खुद के लिखे शेर का उनके नजरिए से किया गया भावार्थ स्वीकारने के लिए परीक्षक तैयार नहीं थे. क्या ऐसा हो सकता है?

आज की बात को विराम देने से पहले नसरीन मुन्नी के पूछे सवालों पर गुलजार के दिए जवाब को देखते हैं: पूछती है:‘हिंदी फिल्म म्यूजिक के खजाने से कोई एक मोती आपको निकालना हो तो आप कौन सा गीत पसंद करेंगे?’

गुलजार साहब ने तुरंत कहा: साहिर लुधियानवी का लिखा: ‘मन रे तू काहे न धीर धरे….’ केदार शर्मा की १९६४ में बनाई गई फिल्म ‘चित्रलेखा’ में ये गीत था. केदार शर्मा ने इसी नाम की फिल्म १९४१ में मेहताब और नंद्रेकर को लेकर बनाई थी और अपनी ही फिल्म का रीमेक उन्होंने किया था. रोशन ने संगीतबद्ध किया, मोहम्मद रफी का गाया ये शानदार गीत एक परफेक्ट उदाहरण है. इस गीत को मैं अत्यंत ऊँचे आसन पर रखता हूँ. उनके शब्द सहजता से प्रवाहित होते हैं, कहीं भी उपदेश देने या सीख देने की बाद नहीं है.

गुलजार साहब को शायद पता नहीं होगा कि जावेद अख्तर ने भी एक बार इसी गीत को अपना फेवरिट गीत बताया था. ग्रेट माइंड्स थिंक अलाइक (अब ये मत कहिएगा कि मेरा फेवरिट गीत भी यही है. बाय दे वे, मेरा तो है ही!).

मन रे तू काहे न धीर धरे

वो निर्मोही मोन न जाने, जिनका मोह करे

इस जीवन की चढती ढलती धूप को किसने बांधा

रंग पे किसने पहले डाले, रूप को किस ने बांधा

काहे ये जतन करे, मन रे…..

उतना ही उपकार समझ कोई जितना साथ निभा दे

जनम – मरण का मेल है सपना, ये सपना बिसरा दे

कोई न संग मरे,

मन रे तू काहे न धीर धरे

वो निर्मोही मोन न जाने, जिनका मोह करे

मन रे तू काहे न धीर धरे….

आज का विचार

मिलती होगी किसी की नाक इंदिरा से!

मोदीजी से तो हमारा दिल मिलता है.

– व्हॉट्सएप पर पढा हुआ.

एक मिनट:

पका: चौकीदार किसे कहते हैं, बका?

बका: जो श्रीमती वाड्रा को जीन्स के बदले साडी पहनने पर मजबूर करे, मिनरल वॉटर के बजाय गंगाजल पीने पर मजबूर करे और चर्च के बदले हनुमानजी के मंदिर जाने पर मजबूर करे, उसे चौकीदार कहते हैं, पका, समझा!

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