गुलजार का विवेक, गुलजार की तहजीब

गुड मॉर्निंग – सौरभ शाह

(मुंबई समाचार, शनिवार- २३ मार्च २०१९)

बात निकलती है ए.आर. रहमान को मिले ऑस्कर अवॉर्ड की. ‘स्लमडॉग मिलियोनेर’ नामक भारत की बदनामी करनेवाली ब्रिटिश निर्देशक की इस फिल्म को ऑस्करवालों ने एक जमाने में झोला भर के पुरस्कार दिए थे. वैसे, अब बात और है. ऑस्करवाले तो क्या उनके बाप भी भारत को बदनाम करनेवाली फिल्म को अवॉर्ड करने का साहस नहीं करेंगे. देशी ब्राउन साहबों की बात अलग है. वे तो पचास साल बाद भी कम्युनिस्टों की बनाई फिल्मों, उनके साहित्य को सम्मानित करते रहेंगे. लेकिन ऐसे लोगों की संख्या अब इतनी कम हो जाएगी कि भविष्य में डायनासौर के कंकालों की तरह ही इन लेफ्टिस्टों के कंकाल भी म्यूजियम की कॉंच की आलमारियों में लटकते दिखेंगे.

गुलजार साहब को भी ‘जय हो’ गीत लिखने के लिए ऑस्कर मिला लेकिन वे लेने नहीं गए थे. तब उन्होंने बहाना बनाया था कि टेनिस एलबो के कारण तेज दर्द होने के कारण वे नहीं जा सके. नसरीन मुन्नी कबीर कहती हैं,‘उस समय आपने मुझसे ये कहा था कि आपके पास अवॉर्ड सेरेमनी में पहनने के लिए काली जैकेट नहीं थी, इसीलिए आप नहीं गए थे.’ यह सुनते ही गुलजार हंस पडे, और नसरीन भी.

सच्चाई ये है कि गुलजार में अतुलनीय विवेक है. ए.आर. रहमान को इस फिल्म की बैकग्राउंड म्यूजिक के लिए एक ऑस्कर मिला था और ऑस्करवाले फिल्म के गीत की धुन के लिए अलग कैटेगरी रखते हैं, इसीलिए ‘जय हो’ गीत के लिए दूसरा अवॉर्ड मिला. ऑस्कर में सामान्य रूप से जो गीत कंपोज करता है, वही उस गीत का लेखक होता है और न हो तो गीत के कंपोजिशन के लिए अवॉर्ड दिए जाने पर गीतकार को भी देना पडता है. बेस्ट लिरिसिस्ट या श्रेष्ठ गीतकार का कोई अवॉर्ड ऑस्कर में नहीं होता. और वैसे भी ‘जय हो’ गीत न तो हिंदी फिल्म संगीत जगत में अपने शब्दों के कारण फेमस हुआ है, न ही गुलजार के श्रेष्ठ सौ गीतों में उसका कोई स्थान है. इसे गुलजार ने लिखा है इसीलिए हम थोडे सौम्य तरीके से उसकी आलोचना करते हैं और कहते हैं कि ये एक एवरेज गीत है. (और किसी का होता तो कहा दिया होता कि फालतू गीत है!) गुलजार खुद भी जानते होंगे कि उन्होंने ये गीत लिखकर कोई बडा तीर नहीं चलाया है और ऑस्कर तो बाय डिफॉल्ट मिल गया है. जीत के संगीतकार को सम्मानित किया जा रहा था इसीलिए गीतकार को भी सम्मानित करना पडा. (पर, मां कसम उस साल ‘लगान’ आई होती है और वह भी मूलत: अंग्रेजी में बनी होती तथा उसमें ‘जय हो’ गीत होता तो इस कंपोजिशन के लिए रहमान को सौ प्रतिशत, एक सौ दस प्रतिशत कोई ऑस्कर-वॉस्कर नहीं मिला होता).

यहॉं गुलजार की रईसी देखिए साहब. खुद जानते हैं कि वे खुद अवॉर्ड के लिए योग्य व्यक्ति नहीं हैं, बल्कि रहमान के कारण नियमानुसार उन्हें देना पडा है. दूसरी बात, इस गीत का दर्जा भी कोई इतना ऊँचा नहीं है. गुलजार को बडी शेखी मारनी होती तो वे इस अवॉर्ड के लिए केवल रहमान को ही लायक बताकर खुद उसे अस्वीकार करने की घोषणा कर देते. (ऐसे भी पुस्कार स्वीकार करते हैं तो लाख का और न स्वीकार करें तो सवा लाख का होता है, ऐसा तीन गुजराती कवियों ने साबित करके दुगुनी लोकप्रियता बटोरी है. इनमें से दो दिवंगत हो चुके हैं जो सचमुच अच्छा लिखते थे लेकिन एक अभी भी विद्यमान हैं और उनका बोलबाला अब भी चालू है).

गुलजार ने अवॉर्ड नहीं लौटाया और वे ये अवॉर्ड लेने भी नहीं गए. गुलजार का ये अदब, अपना आत्मसम्मान बचाने की उनकी इस तहजीब पर तो हम सब फिदा हैं. दूसरी ओर जिन्हें आधा तो क्या पाव अवॉर्ड भी नहीं मिला है, वह वन टूका फोर ऐक्टर ऑस्कर समारोह के रेड कार्पेट पर माय नेम इज लखन, माय नेम इज लखन करते हुए नाच कूद कर रहमान की रिफ्लेक्टेड ग्लोरी में चमक कर आया है.

गुलजार ऊँचे दर्जे के कवि, गीतकार और फिल्मकार तो हैं ही, उन्हें चाहने का दूसरा एक बडा कारण ये भी है. उनकी शालीनता. गत २५ वर्षों में गुलजार की अनेक किताबों (काव्य संग्रह, आत्मकथा के अंश समाविष्ट करनेवाली पुस्तकें तथा उनके बारे में उनकी बेटी द्वारा लिखी पुस्तक सहित अनेक लोगों द्वारा लिखी किताबें) के बारे में लिखा है. ‘फुर्सत के रात दिन’ जैसे उनके सदाबहार अलबम के बारे में, आर डी बर्मन को दी गई स्मरणांजलि के बारे में, टैगोर की कविताओं के अनुवाद के बारे में, उस अनुवाद का मुंबई के टाटा थिएटर में जया भादुरी के साथ किए गए पठन के बारे में, किस तरह से उस कार्यक्रम में मुझ अकेले को उनका हस्ताक्षर लेने का सौभाग्य मिला था इस बारे में- यानी ऐसा बहुत कुछ मैने तल्लीनता से लिखा है और अभी भी खूब सारा लिखना है.

आज अपनी बात पूरी करने से पहले उनकी तहजीब के बारे में कहना चाहता हूँ. मैने कई मित्रों से कहा भी है. शायद कहीं लिखा भी होगा.

बात उन दिनों की है जब अहमदाबाद में कुछ साल रहकर मैं मुंबई लौट आया था. जुहू का पृथ्वी थिएटर, पृथ्वी की कैफे, पृथ्वी का संपूर्ण वातावरण ही मिस करता था. इसीलिए जब भी मौका मिलता तब पवई से सीधे जुहू पहुंच जाया करते हैं. जो भी नाटक चल रहा हो उसकी टिकट पहले से बुक करा लेते हैं ताकि अंतिम क्षणों में निराश न होना पडे. पृथ्वी की क्षमता २२० की है और उसमें सीट नंबर नहीं दिया जाता. घंटे भर पहले से लाइन शुरू हो जाती हैै. हम कमोबेश शो से डेढ घंटा पहले पहुंच कर पृथ्वी की फेमस आयरिश कॉफी या सलेमान की चाय के साथ नाश्ता करके वहां की छोटी किंतु समृद्ध बुक शॉप में कुछ लेकर लाइन में खडे हो जाते हैं. अधिकतर हमारा पहला-दूसरा नंबर ही होता है.

उस दिन हमने गुलजार का लिखा और सलीम आरिफ द्वारा निर्देशित नाटक ‘अठन्नियॉं’ देखने गए थे. हिंदी फिल्मों में अच्छी अच्छी भूमिकाएँ निभा चुके यशपाल शर्मा भी उसमें थे. (‘अब तक छप्पन’ का ईर्ष्यालु सब-इंस्पेक्टर और ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में बुरे मौके पर बैंड बाजावालों के साथ माइक लेकर ‘तेडी मेहडबानियां….’ गानेवाले गायक).

नाटक का दूसरा ही शो था इसीलिए खूब भीड थी. नाटक शुरू होने में अभी अधे एक घंटे का समय था, तभी हमने गुलजार साहब को देखा. हमें लगा कि वे सीधे पीछेवाले दरवाजे से स्टेज को पार कर ऑडिटोरियम में जाकर बैठ जाएंगे. उन्हें ऐसा करने का पूरा अधिकार भी था. उन्हीं का नाटक था. उनका न भी होता तब भी वे गुलजार थे. कौन रोकनेवाला था उन्हें. बल्कि अन्य लोग उन्हें आग्रह करके जल्दी से अंदर ले जाते हैं. ताकि वे अपनी मनपसंद जगह पर बैठकर अपने नाटक का आनंद ले सकें.

एक-दो लोगों को हाय-हैलो करके गुलजार लाइन में लग गए. हमसे बीस या पच्चीसवें नंबर पर. हमें शर्म आ रही थी. लेकिन पृथ्वी की ये तहजीब है जिसका गुलजार साहब पालन कर रहे थे. इतना ही नहीं लाइन में खडे खडे उन्होंने अपने मित्र जावेद सिद्दीकी को देखा (जिन्होंने ‘तुम्हारी अमृता’ वाला नाटक अनूठे अंदाज में अंग्रेजी में रूपांतरित किया था और जिन्हें ‘बाजीगर’ के लिए बेस्ट स्कीनप्ले के लिए फिल्मफेयर तथा ‘डीडीएलजे’ के लिए बेस्ट डायलॉग राइटर का फिल्म फेयर मिला था और जिन्होंने सत्यजीत राय तथा श्याम बेनेगल के साथ काम किया है, ऐसे जावेद सिद्दीकी). हम लाइन में खडे खडे ही, अपने किसी पुराने दोस्त को पुकार कर बुलाते हैं, उस तरह से बुलाया: ‘अरे, सिद्दीकी साहब!’ दोनों मिले. थोडी बातें कीं. जावेद सिद्दीकी भी गुलजार के साथ लाइन में घुसने का मौका मिला है तो ले लेना चाहिए, ऐसे सोचे बिना लाइन के आखिर में जाकर खडे हो गए.

यही पृथ्वी की शान है. वर्षों से आयोजकों और दर्शकों ने जिस तरह का अनुशासनबद्ध वातावरण निर्मित किया है, उसका योगदान तो है ही. लेकिन गुलजार साहब की इस तहजीब, उनके इस विवेक का किस्सा बयॉं करने से मैं कभी हिचकिचाता नहीं. बडे लोगों से हमें कितना कुछ सीखने को मिलता है. और इसे छोडकर हममें से कई लोग अनिल कपूर जैसों को अपना गुरु मानकर चलते हैं. अब उन्हें क्या कहना.

आज का विचार

भीड उनको ही पसंद करती है, जो उनके जैसे हैं. अनूठे को नहीं.

– ओशो रजनीश

एक मिनट!

मोदी: क्यों भई, मणिशंकर अय्यर? २०१४ में ‘चायवाला’ और २०१७ में ‘नीच आदमी’ जैसे फुलटॉस आने दो जरा, इलेक्शन सिर पर है तो मुझे सिक्सर लगाने में मजा आएगी.

मणिशंकर: साहब मैडम ने मेरे मुँह पर ताला लगा दिया है, इसीलिए इस बार मेरा काम करने के लिए सैम पित्रोदा को कहा है. वे जरूर आपकी इच्छा पूरी करेंगे.

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