अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रहरियों ने जब पुस्तक देखे बिना ही बैन कर दी

संडे मॉर्निंग – सौरभ शाह

(मुंबई समाचार, रविवार- २४ मार्च २०१९)

अंत में ११ जनवरी १९०९ के दिन भारतीय पोस्ट ऑफिस ऐक्ट की धारा २६ के तहत वीर सावरकर की पुस्तक पर प्रतिबंध लगाने के आदेश में इस पुस्तक का गोल गोल परिचय देते हुए लिखा गया: ‘भारतीय विद्रोह के नाता वी.डी. सावरकर द्वारा मराठी में लिखित किसी भी पुस्तक या चार पृष्ठों के पत्रक को हमारी जानकारी के अनुसार जर्मनी में छापा गया है’ उस पर प्रतिबंध लगाया जाता है. इसे कहते हैं अंधेरे में तीर चलाना! भारतीय पोस्ट ऑफिस के डायरेक्टर जनरल ने सवाल खडा किया यदि ये पुस्तक मराठी में तो उसे मुंबई, मध्य प्रांत तथा राजपुताना सर्कल की पोस्ट ऑफिसों में ही रोका जा सकता है, क्योंकि अन्य प्रांतों में मराठी भाषी कर्मचारी उपलब्ध नहीं हैं. दो जनवरी १९०९ के दिन नई समस्या पैदा हुई. ये मराठी पुस्तक यदि जर्मनी में छपकर भारत आ रही है तो उसे सी मेल में रोक लेना चाहिए; लेकिन खूब चर्चा मंत्रणा करने के बाद इस पुस्तक को पोस्ट ऑफिस ऐक्ट तहत ही बैन करने का निर्णय लेना पडा, क्योंकि समुद्री कस्टम्स ऐक्ट के तहत जो भी आदेश जारी किया जात था उसकी जानकारी इंग्लैंड तथा बाकी के यूरोप में भी प्रसारित करना पडता था, लेकिन यदि ऐसा करने का प्रयास होता तो भारतीय क्रांतिकारी सतर्क हो जाते.

२० जुलाई १९०९ को भयभीत हो चुकी मुंबई की राज्य सरकार ने भारतीय सरकार को तार करके सूचित किया कि इस पुस्तक की सारी प्रतियॉं किसी भी समय भारत में प्रवेश कर सकती हैं और उसका वितरण रोकना अत्यंत जरूरी है. इसीलिए हम भारत सरकार से विनम्र निवेदन करते हैं कि पल भर की भी देर किए बिना समुद्री कस्टम्स ऐक्ट की धारा १९ के तहत पुस्तक भारत में प्रवेश पर प्रतिबंध लगाई जाए. पुस्तक के बारे में हमें इतना ही पता है कि उसका भारत का विद्रो है तथा उसके लेखक हैं विनायक दामोदर सावरकर.

२१ जुलाई १९०९ को भारत सरकार के अफसर एच.ए. स्टुअर्ट ने इस तार पर टिप्पणी लिखी कि पुस्तक मराठी भाषा में छपी होने के कारण मुंबई सरकार अत्यंत भयभीत है. इसीलिए यूरोप के भारतीय क्रांतिकारी सतर्क हो जाएंगे इसकी चिंता किए बिना समुद्री कस्टम्स ऐक्ट के तहत प्रतिबंध का आदेश जारी करना ही उचित होगा, लेकिन मेरे पास ये जानकारी है कि इस पुस्तक की अंग्रेजी तथा मराठी दोनों ही भाषा की आवृत्तियॉं छप चुकी हैं. अंग्रेजी आवृत्ति लंदन में ए. बॉनेर ने छापी है. पोस्ट ऑफिस ऐक्ट के तहत जारी किया गया आदेश केवल मराठी आवृत्ति के लिए ही लागू है, इसीलिए आदेश में दोनों भाषाओं का उल्लेख करने के लिए संशोधन करना आवश्यक है.

उसी दिन, २१ जुलाई को क्रिमिनल इंटेलिजेंस विभाग के डिप्टी डायरेक्टर ए.बी. बनार्ड ने लिखित सूचना दी कि हमारी जानकारी के अनुसार सावरकर की पुस्तक की केवल अंग्रेजी आवृत्ति ही छपी है और उसका शीर्षक ‘१८५७ की क्रांति का इतिहास’ या ‘१८५७ का इतिहास’ रखा गया है. पुस्तक के प्रकाशन का काम २४ जून तक पूरा होना था. इसीलिए उसकी प्रतियॉं, इसके बाद आनेवाले समुद्री डाक में यहां पहुँचने की पूरी संभावना है. इसका अर्थ ये हुआ कि उसकी प्रतियॉं रवाना हो चुकी हैं और आधे रास्ते में हैं. ऐसे तो प्रतिबंध के आदेश का तार इंग्लैंड भेजा भी जाता है तो भी जहाज में उसकी प्रतियॉं नहीं लदने देने की व्यवस्था नहीं हो सकेगी.

२२ जुलाई को भारत सरकार के एक अन्य अधिकारी एम.एम.एस. गुब्बा ने आपत्ति जताई कि आदेश में पुस्तक का वर्णन करने के लिए जिस भाषा का उपयोग किया गया है, वह समुद्री कस्टम्स ऐक्ट की धारा १९ के लिए पर्याप्त नहीं है. इस कानूनी उलझन के कारण भारत सरकार के सामने एक और संकट खडा हो गया. क्या कानून के दायरे में रहने के लिए पुस्तक को प्रत्यक्ष नजर आने तक इंतजार करना चाहिए? इसका मतलब ये हुआ कि पुस्तक को भारत में प्रवेश करने देना चाहिए, उस पुस्तक को जिसे रोकने के लिए पिछले छह महीने से आकाश पाताल एक कर दिया गया है. इस तरफ मुंबई सरकार तुरंत आदेश पाने के लिए तडप रही थी. सारा दिन माथापच्ची करने के बाद २२ जुलाई १९०९ को कुछ बदलावों के साथ पुस्तक का वणॅन करने के लिए इन शब्दों का प्रयोग किया गया:‘भारतीय विद्रोह के बारे में वी.डी. सावरकर द्वारा मराठी में लिखी पुस्तक या चार पृष्ठोंवाला पत्रक जो जर्मनी में छपे होने की सूचना मिली है, उसे तथा उसके अंग्रेजी अनुवाद’. २३ जुलाई १९०९ को इन शब्दों के बदलावों के साथ समुद्री कस्टम्स ऐक्ट की धारा १९ के तहत पुस्तक पर प्रतिबंध लगाने का आदेश अंत में जारी कर दिया गया.

भारत के नेशनल आर्काइव्स में सुरक्षित सरकारी फाइलों में उपलब्ध वाइसरॉय के स्तर तक इस उच्च स्तरीय टिप्पणी के उल्लेख से स्पष्ट होता है कि ६ नवंबर १९०८ से २३ जुलाई १९०९ तक के नौ महीनों के दौरान ब्रिटिश गुप्तचर विभाग तथा भारत सरकार साथ मिलकर सारी दुनिया उलट पुलट कर दी फिर भी पुस्तक किस भाषा में लिखी गई है, उसका शीर्षक क्या है और वह किस देश में छपी है तथा उस पर लेखक का नाम किस तरह से छपा है, इस बारे में जानकारी नहीं मिल सकी और हर कोई अपनी अपनी तरह से अंधेरे में तीर चलाता रहा. पुस्तक का अभी तक प्रकाशन भी नहीं हुआ हो, इससे पहले ही, उसका कंटेंट पढे बिना ही, उस पर प्रतिबंध लगाने की छटपटाहट के कारण ब्रिटिश सरकार अत्यंत हास्यास्पद स्थिति में फंस गई थी. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बडी बडी बातें करनेवाली दुनिया भर में खुद ही एक वाणी स्वातंत्र्य की रक्षा करने वाले सबसे बडे प्रहरी की डींग हांकनेवाली ब्रिटिश सरकार की वकालत करनेवाले ब्रिटिश दैनिक- सामयिक तथा ब्रिटिश बुद्धिजीवी भी भौंचक्के थे. सावरकर ने उस समय के सबसे प्रतिष्ठित दैनिक ‘द लंदन टाइम्स’ में संपादक को पत्र लिखकर ब्रिटिश सरकार पर खूब व्यंग्य बाण चलाए थे: ‘ब्रिटिश अधिकारियों ने मान लिया है कि वे विश्‍वासपूर्वक नहीं कह सकते हैं कि वह पुस्तक अभी छपी है या नहीं, यदि ऐसी बात है तो सरकार ने कैसे जान लया कि ये पुस्तक भयानक रूप से राजद्रोह करनेवाली है? उसके मुद्रण या प्रकाशन से पहले क्यों उस प्रतिबंध लगाने के लिए भागदौड मची है? सरकार के पास या तो उस पुस्तक की हस्तलिखित प्रति है या फिर नहीं है. यदि है तो क्यों मुझ पर राजद्रोह का मुकदमा नहीं चलाया जाता, क्योंकि उनके पास यही एकमात्र कानूनी मार्ग खुला हुआ है. यदि उनके पास उसकी हस्तलिखित प्रति नहीं है तो जिस पुस्तक के बारे में वे निराधार अफवाहें फैलाने के अलावा कोई ठोस जानकारी नहीं रखते हैं, उसके खिलाफ राजद्रोह का आरोप लगाकर उस प्रतिबंध कैसे लगाया जा सकता है?’

‘द लंदन’ टाइम्स ने सावरकर का यह पूरा छापा. इतना ही नहीं, उस पत्र केनीचे संपादक की टिप्पणी भी डाली गई थी कि सरकार ने ऐसे सख्त और अभूतपूर्व कदम उठाया है जिसका अर्थ ये हुआ कि दाल में कुछ काला है. यदि भारत सरकार के किसी एच.ए. स्टुअर्ट नामक अधिकारी को २१ जुलाई को पता चल गया था कि पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद लंदन के बोनेर प्रकाशन गृह ने छापा है तो उस पर क्यों छापा नहीं मारा गया? क्यों २३ जुलाई १९०९ को उस पर प्रतिबंध लगाने के आदेश में पुस्तक का परिचय गोल गोल भाषा में दिया गया है?

खैर, अ ब शुरू हुआ पुस्तक वितरण कार्य. डिस्ट्रिब्यूशन की कहानी तो मुद्रण-प्रकाशन की कहानी से भी अधिक रोचक है. शेष अगले रविवार को.

आज का विचार

दंभी लोगों को सत्य नहीं पचता.

– अज्ञात

संडे ह्यूमर

पका: क्या लग रहा है. इस इलेक्शन में क्या होगा?

बका: होगा क्या? जिसके नाम पर आप वोट दोगे, उन जैसी ही संतान आपको मिलेगी, ऐसा लोग समझ लें तो रिजल्ट तय है!

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