ये सूचनाओं का युग है या अफवाहों का

संडे मॉर्निंग

सौरभ शाह

कहने के लिए तो ये जमाना सूचना क्रांति का युग है. यानी इन्फॉर्मेशन. पर कभी कभी तो लगता है कि यह मिसइन्फॉर्मेशन का युग है. यहां जानकारी के बजाय गलत जानकारियों की विपुलता है, स्पीड भी बहुत ज्यादा है. एक समय था जब अमेरिका से लिखा गया पत्र सी-मेल द्वारा डेढ-दो महीने में भारत पहुँचता था. अब अब तो पल भर में ही ईमेल या व्हॉट्सएप द्वारा सूचनाएं मिल जाती हैं. जानकारियां जितनी तेजी से फैलती हैं, उतनी ही तेजी से अफवाहों का भी प्रसार होता है. परेशानी का बात ये है कि जानकारी याद रहे या न रहे, दुष्प्रचार तुरंत दिमाग में घुस जाता है, हमेशा के लिए चिपक जाता है.

अफवाह फैलने के बाद आप चाहे जितना स्पष्टीकरण दें, वह जल्दी से मिटता नहीं. इसका कारण आखिर क्या है?

अफवाह मोटे तौर पर निंदारस से भरी होती है. और निंदारस केवल तभी निर्मित हो सकता है जब किसी को उसके कद की तुलना में छोटा बताने की कोशिश सफल होती है. राजनेता हो, फिल्म अभिनेता हो, क्रिकेटर हो, बिजनेसमैन हो, या फिर आपके ही क्षेत्र में आपका प्रतिस्पर्धी हो या आपका मित्र हो जिससे आप ईर्ष्या करते हों- आपको बस इतना ही करना है कि उसके बारे में कोई कपोलकल्पित बात फैला दीजिए – भला कौन जॉंच करने जा रहा है. उस व्यक्ति की आभा को, इमेज को तोडने के लिए कुछ ही शब्द काफी हैं क्यों कि आपकी तरह अनगिनत लोग आपके उन शब्दों पर विश्वास करने के लिए आतुर होंगे. वे आपके इस दुष्प्रचार की जॉंच पडताल किए बिना तुरंत आगे भेज देते हैं, आपको कहना भी नहीं पडता.

ऐसे दर्जन भर दुष्प्रचारों का हम शिकार बनते हैं. अफवाहें इसी तरह से फैलाई जाती हैं. बढाचढा कर ही नहीं, बल्कि बिलकुल गलत खबरें भी हम `शायद सच हो’ ऐसा सोचकर मान लेते हैं. किसी के बारे में सच्चाई मानने के बजाय उसके बारे में फैलाए झूठ को मान लेने की लालच प्रकृति ने हम सभी के अंदर ठूंस ठूंस कर भरी है. इसीलिए उन झूठ बातों के बारे में चाहे कितनी भी तेजी से और दमदार तरीके से स्पष्टीकरण दिया जाय पर हमारे मुंह में वही झूठ का स्वाद हमेशा बरकरार रहता है.

अफवाहों से बचने के लिए क्या करना चाहिए‍? मेरे पास इसका बिलकुल सरल और सटीक उपाय है. जानकारी से बचना, यानी जानकारी की धुंआधार बौछार से बचना. हमारे ऊपर दर्जनों सोर्स से जानकारियों का हमला होता रहता है. इनमें से ९९ प्रतिशत जानकारी हमारे लिए बेकार होती है. हमारे जीवन को स्पर्श नहीं करती है. थाईलैंड की गुफा में बच्चों के साथ हुई दुर्घटना होना दुखद और झकझोरने वाली है लेकिन उस घटना का आखिर यहॉं क्या लेना देना है? फॉर दैट मैटर एक जमाने में प्रिंस के गड्ढे में गिर जानेवाली खबर के साथ भी हमारा क्या लेना देना था? मैं अगर हमेशा प्लेन में सफर नहीं करता तो बारिश के कारण विमान सेवा बाधित होने की जानकारी से मेरा क्या काम? यदि मुझे इस अवधि में ट्रेन से मुंबई से बाहर न जाना हो और मेरे यहां भी कोई नहीं आने वाला हो तो नालासोपारा में अटकी शताब्दि एक्सप्रेस के दुर्भाग्यशाली यात्रियों की जेनुइन तकलीफें पढकर मुझे क्यों अपनी जान जलाना?

यदि मैं अपने लिए बेकार जानकारियों से दूर रहना सीखूंगा तो ही मैं अफवाहों से सुरक्षित अंतर रखना सीख सकूंगा. हमें मिल रही या हम तक पहुंच रही अफवाहों के पीछे किसी न किसी व्यक्ति की दुर्भावना हो सकती है. या फिर वह आपको भडकाना चाहता है, उत्तेजित करना चाहता है, आपके दृढ विश्वास को डिगाना चाहता है या फिर आपके मन में बसे किसी व्यक्ति/ प्रदेश/ कॉन्सेप्ट के बारे में अंकित छाप को धुंधली करना चाहता है. ऐसी अफवाहों के प्रकोप का ही एक स्वरूप है मिसइंटरप्रिटेशन. जानकारी सच हो तो भी उसे मूल संदर्भ से दूर ले जाकर उसका गलत विश्लेषण किया जाता है और तब मिसइंटरप्रिटेशन अत्यंत विश्वसनीयता का लबादा ओढकर हम तक पहुँच जाता है. आंकडों और सर्वेक्षणों के बारे में ऐसा होता रहता है. टीवी चालूकर, अखबार के पन्नों को उलट कर, सोशल मीडिया में ही जो लोग रचेबसे होते हैं, वे ही अफवाहों का सबसे आसानी शिकार होते हैं. असल में ये लोग बेकारी के बाजार में चक्कर लगाकर ग्राहकी बढानेवाले होते हैं. ऐसे लोगों पर किसी को दया नहीं करनी चाहिए. बस इतना ध्यान रखना चाहिए कि ऐसे लोगों में कहीं हमारा भी समावेश न हो जाए.

आज का विचार

इच्छाएँ
बडी बेवफा होती हैं.
कम्बख्त
पूरी होते ही
बदल जाती हैं…

– गुलझार

संडे ह्यूमर

बारिश की बरसती फुहारों के बीच शाम को पका ने बका को एक हृदयस्पर्शी, आत्मीय और मार्मिक व्हॉट्सएप भेजा:

`मैं सत्य की खोज में निकल पडा हूँ. तू मंचिंग की व्यवस्था करके रख….’

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