जब संघ ने वाजपेयी के स्थान पर आडवाणी को प्रधान मंत्री बनने का ऑफर दिया

गुड मॉर्निंग- सौरभ शाह

(मुंबई समाचार, शनिवार – १ सितंबर २०१८)

वाजपेयी के साथ मतभेदों के बारे में बात करने से पहले आडवाणी ने एक किस्सा लिखा है. इस किस्से में वे बिटवीन द लाइन्स क्या कहना चाहते हैं उसे आप समझ जाएंगे.

किस्सा २००२ के आरंभ का है. भाजपा और उसके सहयोगी दलों के बीच चर्चा-मंत्रणा हो रही थी कि जुलाई में के. आर. नारायणन के निवृत्त होने के बाद नया राष्ट्रपति किसे बनाया जाए. भाजपा ने तय किया कि राष्ट्रपति किसी उदार व्यक्तित्व वाले को बनाया जाना चाहिए और दूसरा, वह व्यक्ति भाजपा से बाहर का होना चाहिए जिससे सारे देश में यह संदेश जाएगा कि  भाजपा सभी को साथ लेकर चलने में विश्वास रखती है.

खोजते खोजते भाजपा ने एक ऐसा नाम निश्चित किया जिसका भाजपा के साथ कोई लेना देना नहीं था, उनके कांग्रेस के दो प्रधान मंत्रियों के साथ गहरे संबंध थे. इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के करीबी रहे महाराष्ट्र के गवर्नर डॉ. पी.सी. अलेक्जेंडर का नाम राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के रूप में सूचित करने की बात आडवाणी को सूझी थी. उन्होंने वाजपेयी और एनडीए के अन्य नेताओं को यह नाम सुझाया. आडवाणी का सुझाव सभी को अच्छा लगा, लेकिन जानते हैं आपत्ति किसने जताई? खुद कॉन्ग्रेस ने!

अलेक्जेंडर के बदले ए.पी.जे. अब्दुल कलाम को राष्ट्रपति बनाना तय किया गया. उस दौरान आडवाणी ने `माय कंट्री माय लाइफ’ शीर्षक से युक्त आत्मकथा में लिखा है कि एक दिन तत्कालीन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक प्रो. राजेंद्र सिंह (रज्जू भैया) का फोन आया. एक महत्वपूर्ण मुद्दे पर वे मिलना चाहते थे. आडवाणी ने उन्हें अगले दिन सुबह ब्रेकफास्ट पर अपने निवास स्थान पर बुलाया. नाश्ता करते करते रज्जू भैया ने अगली रात को वाजपेयी के साथ हुई मीटिंग के बारे में बात की:`मैने प्राइम मिनिस्टर से कहा कि आप खुद (वाजपेयी खुद) राष्ट्रपति क्यों नहीं बन जाते? मैंने इस सुझाव के पीछे अपना कारण समझाते हुए उनसे कहा कि आपको घुटने की तकलीफ है तो राष्ट्रपति के नाते जिम्मेदारी में अधिक भाग दौड नहीं करनी पडती है तो थोडी राहत रहेगी. इसके अलावा आपका व्यक्तित्व तथा अनुभव की दृष्टि से सभी (सभी दलों को) आपको राष्ट्रपति के रूप में स्वीकार करेंगे.’

आडवाणी ने रज्जूभैया से पूछा: `अटलजी ने क्या कहा?’

रज्जूभैया का जवाब था: `अटलजी चुप रहे. न तो उन्होंने हां कही, न ही ना कही. कुछ नहीं बोले यानी मैं मानता हूं कि मेरे सुझाव को उन्होंने अस्वीकार नहीं किया है.’

अब आडवाणी ने रज्जूभैया को बताया कि राष्ट्रपति का नाम तय करने के लिए तीन दिन पहले मीटिंग हो चुकी है और एनडीए के सभी नेताओं ने सर्वसम्मति से तय किया है कि `प्रधान मंत्री जो नाम तय करेंगे, वह नाम सभी को स्वीकार्य होगा.’

आडवाणी ने यह किस्सा यहीं पर पूरा कर दिया है. अब आपने उसमें बिटवीन द लाइन्स क्या पढा? तबीयत या घुटने का बहाना सामने रखकर आरएसएस वाजपेयी की जगह आडवाणी को प्रधान मंत्री बनाना चाहता था. आडवाणी को उसी साल (६ फरवरी को गृह मंत्री के अलावा उपप्रधान मंत्री बनाया गया था.) स्वाभाविक था कि यदि वाजपेयी प्रधान मंत्री के पद से हटकर राष्ट्रपति का पद संभाल लेते हैं तो उनके उप प्रधान मंत्री को ही प्रधान मंत्री बनना होगा.

आडवाणी को कई लोगों ने प्रधान मंत्री पर की रेस के उम्मीदवार के रूप में सत्ता के लालची के रूप में वर्णित किया है. आडवाणी चाहते तो रज्जूभैया के इस प्रपोजल को स्वीकार करके संघ के समर्थन से प्रधान मंत्री बन गए होते, लेकिन जिस प्रकार वाजपेयी अलग मिट्टी से बने हैं, उसी प्रकार आडवाणी ने भी साबित किया कि वे खुद भी अलग मिट्टी के इंसान हैं. उन्होंने हाथ आया प्रधान मंत्री का पद जाने दिया, लेकिन वाजपेयी से विश्वासघात नहीं किया. ऐसे समझदारी वाले दो साथियों के बीच मतभेद पैदा होते हैं तो मतभेदों की गरिमा भी कितनी ऊंची होती है यह कल जानेंगे.

आज का विचार

मैने जन्म नहीं मांगा था,

किंतु मरण की मांग करूंगा

जाने कितनी बार जिया हूं

जाने कितनी बार मरा हूं

जन्म मरण के फेरे से मैं

इतना पहले नहीं डरा हूं

अंतहीन अंधियार ज्योति की

कब तक और तलाश करूंगा?

मैने जन्म नहीं मांगा था

किंतु मरण की मांग करूंगा

बचपन, यौवन और बुढापा

कुछ दशकों में खत्म कहानी

फिर-फिर जीना, फिर -फिर मरना

यह मजबूरी या मनमानी?

पूर्व जन्म के पूर्व बसी

दुनिया का द्वाराचार करूंगा

मैने जन्म नहीं मांगा था

किंतु मरण की मांग करूंगा

-अटल बिहारी वाजपेयी

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