कुछ मतभेद: वाजपेयी और आडवाणी के बीच

संडे मॉर्निंग- सौरभ शाह

(मुंबई समाचार, रविवार – २ सितंबर २०१८)

अटल बिहारी वाजपेयी के साथ हुए दो प्रमुख मतभेदों का उल्लेख लालकृष्ण आडवाणी ने `माय कंट्री, माय लाइफ’ शीर्षक से लिखी अपनी आत्मकथा के उप अध्याय `कुछ मतभेद’ में किया है.

आडवाणी आरंभ में ही लिखते हैं: `मैं यहां दो उदाहरण देना चाहता हूं, जब अटलजी और मेरे बीच काफी मतभेद उत्पन्न हुए थे. अयोध्या आंदोलन के साथ भाजपा के सीधे जुडने के बारे में उन्हें आपत्ति थी. लेकिन धारणा और स्वभाव से लोकतांत्रिक होने के नाते तथा हमेशा साथियों के बीच सर्वसम्मति लाने के इच्छुक होने के कारण अटलजी ने पार्टी का सामूहिक निर्णय स्वीकार किया.’

मतभेद का यह मामला २००२ में हुआ. २७ फरवरी को कई मुस्लिमों ने पूर्व नियोजित षड्यंत्र के अनुसार ५६ कारसेवकों को ट्रेन में जिंदा जला दिया. इस निर्घृण घटना की तीव्र प्रतिक्रिया के रूप में गुजरात के कई स्थानों पर सांप्रदायिक दंगे भडक उठे जिसमें हिंदू-मुस्लिम दोनों मिलकर कुल हजार के आसपास लोगों की मृत्यु हुई. मारे गए लोगों में अधिकतर लोग दंगाई थे, पुलिस की गोलीबारी में मारे गए थे. लेकिन मीडिया ने ऐसी छाप बनाई कि गुजरात के हिंदुओं ने मुस्लिमों का सांप्रदायिक दमन किया है. इन दंगों के पीछे गोधरा हिंदू हत्याकांड की घृणित घटना को मीडिया ने बिलकुल भुला दिया और मुस्लिमों पर हुए अत्याचारों को बढा चढा कर दिन रात टीवी वालों ने निरंतर दिखाना शुरू किया. इस कारण से देश भर में और विदेश में भी एक झूठी छाप पैदा हुई कि गुजरात के हिंदू दबंग हैं- मुसलमान बेचारे हैं, हिंदू खूनी हैं मुसलमान चुपचाप मार खा रहे हैं. ऐसे परसेप्शन के कारण गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का जगह जगह विरोध होने लगा. विरोधी दल तो मोदी से इस्तीफे की मांग कर ही रहे थे, भाजपा-आरएसएस में भी कई तत्व ऐसे थे जिन्हें मोदी की ओनेस्टी तथा काम करने की नो-नॉन्सेंस शैली आंख में किरकिरी की तरह चुभती थी, क्योंकि उन्होंने मान लिया था कि जिस तरह से पहले कांग्रेसियों के गलत काम सरकार में हो जाते थे, और फिर केशूभाई के राज में केशुभाई की जीहुजूरी करने वालों की अनुचित फाइलें जिस प्रकार से तुरंत क्लियर हो जाती थीं, उसी तरह से मोदी सरकार में भी उसी परंपरा के अनुसार काम होगा. लेकिन मोदी अलग मिट्टी के निकले. जिनमें देश के लिए प्रतिबद्धता ठूंस-ठूंस कर भरी हो, जिपनमें सरकारी तंत्र का उचित उपयोग करने की लगन हो ऐसा नेता पहले शायद ही लोगों ने देखा था. और इसीलिए २००२ में दंगों को बहाने कॉन्ग्रेसियों- गैर कॉन्ग्रेसियों सभी ने मिलकर मोदी को हटाने के लिए पुरजोर कोशिश कर रहे थे.

आडवाणी का वाजपेयी के साथ दूसरी बार सबसे बडा मतभेद इन्हीं कारणों से पैदा हुआ.

आडवाणी लिखते हैं:`भाजपा तथा एनडीए गठबंधन में कई लोग मानते थे कि मोदी को अपना पद छोड देना चाहिए. लेकिन इस बारे में मेरा मत बिलकुल अलग था. गुजरात में समाज के विभिन्न वर्ग के लोगों के साथ विचार-विमर्श करने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि मोदी को टार्गेट नहीं किया जाना चाहिए. मेरा मानना था कि मोदी अपराधी नहीं हैं बल्कि वे खुद राजनीति का शिकार बन गए हैं.’

इस विषय में वाजपेयी की राय आडवाणी से बिलकुल अलग थी. वाजपेयी उस समय प्रधान मंत्री थे. भाजपा और एनडीए की छवि मोदी के कारण बिगड रही है ऐसा माननेवालों में वाजपेयी भी थे. सच्चाई को देखने के लिए कौई भी तैयार नहीं था. सेकुलर मीडिया के प्रचार की दुंदुभी के शोरगुल में कान लगाकर सच्चाई की बांसुरी सुनने में किसी को रुचि नहीं थी. ऐसी स्थिति में वाजपेयी ने तय कर लिया था कि मोदी को गुजरात के मुख्य मंत्री पद से हटा देना चाहिए जिससे कि भाजपा की इज्जत बची रहे.

ऐसे समय में आडवाणी वाजपेयी के सामने खडे हुए.

यह पूरी कथा खुद आडवाणी के मुख से सुनने जैसी है. शेष सोमवार को.

आज का विचार

चौराहे पर लुटता चीर

प्यादे से पिट गया वजीर

चलूं आखिरी चाल

कि बाजी छोड विरक्ति रचाऊं मैं?

राह कौन-सी जाऊं मैं?

सपना जन्मा और मर गया,

मधु ऋतु में ही बाग झर गया,

तिनके बिखरे हुए बटोरूं

या नव सृष्टि सजाऊं मैं

राह कौन सी जाऊं मैं?

दो दिन मिले उधार में,

घाटे के व्यापार में,

क्षण-क्षण का हिसाब जोडूं

या पूंजी शेष लुटाऊं मैं?

राह कौन सी जाऊं मैं?

अटल बिहारी वाजपेयी

 

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