राजा खुद द्वार पर आकर वोट की याचना करता है तब

गुड मॉर्निंगसौरभ शाह

भारत के लोकसभा चुनावों में सबसे बडे अपसेट कौन से माने जाएंगे? मेरे हिसाब से पांच सबसे शॉकिंग रिजल्ट्स हैं.

सबसे पहला अपसेट हुआ भारत के सबसे पहले आम चुनावों में १९५२ में. उत्तर मुंबई की लोकसभा सीट में गोरेगांव, मालाड, कांदिवली, बोरीवली, चारकोप, दहिसर, मागोठाणे (ठाणे का पिछला हिस्सा, नेशनल पार्क के इस तरफ का) और वसई – विरार तथा पालघर का समावेश होता है. इस बॉम्बे नॉर्थ की लोकसभा सीट से डॉ.बाबासाहब आंबेडकर खडे हुए थे. संविधान निर्माता के रूप में देशभर में लोकप्रिय हो चुके बाबासाहेब इस सीट से चुनाव हार गया थे, इतना ही नहीं वे चौथे क्रमांक पर थे. साम्यवादी श्रीपाद डांगे बाबासाहब आंबेडकर को हराकर १९५२ में यहां से चुनकर लोकसभा में गए थे. इस सीट से भविष्य में वी.के. कृष्णमेनन, मृणाल गोरे, राम नाइक, गोविंदा, संजय निरूपम तथा गोपाल शेट्टी जीतनेवाले थे.

दूसरा शॉकिंग डिफीट का किस्सा १९७७ में यूपी की रायबरेली सीट पर हुआ. कभी किसी ने कल्पना तक नहीं की होगी कि इंदिरा गांधी चुनाव हार जाएंगी. अपनी राजनीतिक विदूषकी के लिए बदनाम रहे राजनारायण को इंदिरा के खिलाफ जीत मिली थी.

तीसरा किस्सा उससे पहले गुजरात में हुआ था. स्वतंत्र पार्टी के अग्रणी नेता (जो बाद में स्वेच्छा मृत्यु-युथेनेशिया के संघर्ष के लिए पहचाने गए) और लोकप्रिय राजनीतिज्ञ मीनू मसानी १९६५ के उपचुनाव में तथा १९५७ में राजकोट की लोकसभा सीट से जीतकर जनता के लाडले बन चुके थे. १९७१ में किसी ने कल्पना तक नहीं की थी कि वे हार जाएंगे, लेकिन कांग्रेस के उम्मीदवार घनश्याम ओझा ने उन्हें हरा दिया. घनश्यामजी १९७२-७३ में सवा वर्ष के लिए गुजरात के मुख्यमंत्री बने थे.

चौथे किस्से की बात विस्तार से करनी होगी. पांचवां किस्सा तो अभी घटित हुआ है. २०१४ में मोदी की लहर कैसी थी, इस बारे में हम सभी जानते हैं. अमृतसर की लोकसभा सीट से अरुण जेटली भाजपा के उम्मीदवार थे जिन्हें कांग्रेस के कैप्टन अमरिंदर सिंह ने एक लाख से अधिक वोटों से हरा दिया. अरुण जेटली को राज्यसभा में भेजकर उन्हें वित्त मंत्री बनाया गया. कैप्टन अमरिंदर सिंह २०१७ में प्रकाश सिंह बादल की सरकार के चुनाव हार जाने के बाद फिर एक बार पंजाब के मुख्यमंत्री बन गए.

चौथा किस्सा १९८४ में ग्वालियर की लोकसभा सीट का है. अटल बिहरी वाजपेयी पिछली दो बार नई दिल्ली से चुनाव लडकर सांसद बने थे और तीसरी बार भी वे दिल्ली से ही खडे रहेंगे ये स्वाभाविक ही था. लेकिन उनके ही शब्दों में: `यह धारणा सही नहीं है कि मैं सुरक्षित सीट की तलाश में ग्वालियर गया था. सच्चाई यह है कि पार्टी के दायित्व के कारण मुझे नई दिल्ली के चुनाव की और जितना ध्यान देना चाहिए था, मैं नहीं दे सका था. मतदाताओं से संपर्क टूट गया था. संगठनात्मक दृष्टि से नई दिल्ली के कुछ क्षेत्र हमेशा से दुर्बल रहे हैं. नई दिल्ली सीट को जीतने के लिए कठोर परिश्रम करने और अधिक समय देने की आवश्यकता थी. सारे देश में चुनाव अभियान के दायित्व को भलीभांति निभाते हुए नई दिल्ली में अधिक समय देना और अधिक श्रम करना संभव नहीं था. अत: ग्वालियर जाने का सुझाव आया.’

वाजपेयी पहले भी ग्वालियर से चुनकर आए थे. ग्वालियर सीट वाजपेयी के लिए एकदम सेफ थी. ग्वालियर का शाही घराना जनसंघ को आर्थिक सहायता देता था. उस जमाने में भारत के उद्योगपति कांग्रेस को चुनावी चंदा देने के लिए लालायित रहते थे लेकिन जनसंघ से दूर रहते थे, लेकिन ग्वालियर का शाही परिवार सुखद अपवाद था, जिसका मुख्य कारण राजमाता विजया राजे सिंधिया थीं. शुरू में कांग्रेस से जुडी रहीं ग्वालियर की राजमाता जनसंघ और बाद में भाजपा में खूब सक्रिय रहीं. बीच में इमरजेंसी के दौरान इंदिरा गांधी ने राजमाता को भी जेल में डाल दिया था, यह बात आप कल जान चुके हैं.

ग्वालियर लोकसभा सीट से १९५२ में यानी कि देश के प्रथम चुनाव में कौन जीता था पता है? विष्णु घनश्याम देशपांडे. विष्णुजी अखिल भारतीय हिंदू महासभा के जनरल सेक्रेटरी थे. पंडित मदनमोहन मालवीय जैसे प्रखर राष्ट्रवादी और हिंदूवादी नेता द्वारा १९१५ में स्थापित महासभा, १९०५ में बनी ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के जवाब में बनी थी. वीर विनायक दामोदर सावरकर और केशव बलिराम हेडगेवार जैसे अनेक राष्ट्रपुरुष इस महासभा के सदस्य रह चुके हैं. हेडगेवारजी ने इस संगठन को छोडकर १९२५ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का बीज बोया जो आज वट वृक्ष बन चुका है और देश के साम्यवादियों के आक्रामक रवैए के खिलाफ ढाल बनकर खडा है.

गांधीजी की हत्या के बाद नेहरू और कांग्रेस ने हिंदू महासभा और आर.एस.एस. पर बंदी लाकर दोनों राष्ट्रवादी संगठनों को बदनाम करके अपने इस कांटे को निकालने की साजिश रची जो अंतत: नाकाम रही. विष्णुजी देशपांडे १९३९ में हैदराबाद के निजाम के अत्याचारों के खिलाफ संघर्ष में भाग ले चुके थे. गांधीजी की हत्या के तीन दिन बाद विष्णुजी की गिरफ्तारी हुई थी.

विष्णुजी पहले लोकसभा चुनाव में अखिल भारतीय हिंदू महासभा की ओर से दो सीटों से लडे थे- ग्वालियर और गुना तथा दोनों सीटों से पचास-पचास हजार से अधिक वोटों से जीते थे. विष्णुजी आगे चलकर जनसंघ से जुड गए थे. १९६४ में विश्व हिंदू परिषद की स्थापना करने में भी उनका योगदान था.

इस तरफ राजमाता की तरह ही उनके एकमात्र पुत्र ने भी खुद को चुनावी राजनीति में झोंक दिया. १९७१ में माधवराव सिंधिया २६ वर्ष की आयु में जनसंघ के टिकट पर गुना लोकसभा सीट से चुनाव लडकर सांसद बने थे. १९७७ में इमरजेंसी खत्म हाने के बाद जो चुनाव हुआ उसमें माधवराव गुना से निर्दलीय खडे हुए और फिर जीत गए. १९८० में माधवराव ने पलटी मारकर कांग्रेस के टिकट पर गुना से जीतकर आना पसंद किया. मां-बेटा सरेआम विरोधी दलों मे आ गए. दोनों के बीच अरबों की संपत्ति को लेकर झगडा तो था ही.

वाजपेयी लिखते हैं: `उस समय ग्वालियर की सीट से नारायण कृष्णराव शेजवलकर भारतीय लोकदल की ओर से चुनकर सांसद बने थे, लेकिन १९८४ में वे दोबारा चुनाव नहीं लडना चाहते थे. (ग्वालियर के) पूर्व महाराजा (माधवराव सिंधिया) गुना से चुने गए थे. मैने निर्णय करने से पहले एक दिन उनसे संसद की लॉबी में पूछा था कि: क्या आप ग्वालियर से लडने का विचार कर रहे हैं? तब उन्होंने इनकार कर दिया था.’

नामांकन पत्र भरने की आखिरी तारीख की अगली रात को ही वाजपेयी ग्वालियर पहुंच गए. नारायण शेजवलकर के घर पर वे ठहरे थे. सुबह लाल कृष्ण आडवाणी भी आ गए. आडवाणी ने वाजपेयी से ग्वालियर के अलावा कोटा से भी पर्चा भरने को कहा, तब वाजपेयी ने कहा,`लालजी मैं दो सीटों से चुनाव नहीं लडूंगा और चुनाव लडूंगा तो सिर्फ ग्वालियर से.’

आडवाणी ने कहा,`कल आप जब दिल्ली से ग्वालियर के लिए रवाना हुए तब मेरे पास एक गोपनीय सूचना आई. कांग्रेस बिलकुल ऐन समय पर माधवराव सिंत्रदया को गुना से हटाकर ग्वालियर से खडा करने की चाल चलनेवाली है.’

वाजपेयी ग्वालियर में चुनाव प्रचार के लिए बंध जाएं और देशभर में उनकी चुनावी यात्रा कम हो जाए इस उद्देश्य से कांग्रेस यह मास्टर स्ट्रोक खेलनेवाली थी, ऐसी गुप्त जानकारी थी. माधवराव सिंधिया गुना से ही चुनाव लडना चाहते थे क्योंकि उन्हें पता था कि वाजपेयी ग्वालियर से खडे होने वाले हैं. राजनीतिक क्षेत्र में परस्पर विरोधी पाले में होने के बावजूद परिवार के साथ उनका अत्यंत करीब का स्नेह भरा संबंध था. इसीलिए माधवराव सिंधिया वाजपेयी का आदर रखना चाहते थे लेकिन मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने प्रधानमंत्री राजीव गांधी को यह चाल सुझाई, ऐसी खबर थी.

ग्वालियर में आने से पहले दिल्ली में आडवाणी ने वाजपेयी के निकट के मित्र भैरोसिंह शेखावत तथा अन्य साथियों से चर्चा मंत्रणा की थी. भैरोसिंह अनुभवी राजनीतिक थे, बिलकुल मंजे हुए थे. (कुल तीन बार राजस्थान के मुख्यमंत्री बने और वाजपेयी सरकार में उपराष्ट्रपति के पद पर भी आसीन हुए). भैरोसिंह सहित सभी लोगों की सलाह थी कि वाजपेयी को कोटा से उम्मीदवारी दाखिल करनी चाहिए जिससे कि देशभर में आराम से प्रचार के लिए यात्रा करके वे भाजपा को जिता सकें.

वाजपेयी ने कहा: `मैं माधवरावजी को बता चुका हूं कि मैं ग्वालियर से खडा होने जा रहा हूं. उन्होंने मुझे शुभेच्छा भी दी है और खुद भी पिछली बार की तरह इस बार भी गुना से ही खडे होनेवाले हैं, ऐसा उन्होंने मझसे कहा है.’

आडवाणी ने उन्हें समझाया कि,`हो सकता है लेकिन यदि राजीव गांधी कहेंगे तो सिंधिया को ग्वालियर से ही खडा होना पडेगा.’

यह सुनकर वाजपेयी ने जो तर्क दिया वह शांति से ध्यान देने, समझने योग्य है. उन्होंने कहा,`ऐसे संयोग में तो मैं सौ प्रतिशत ग्वालियर से ही चुनाव लडूंगा. क्योंकि आप लोगों की सलाह मानकर अगर मैं कोटा से खडा होता हूं और माधवरावजी ग्वालियर से लडनेवाले होंगे तो राजमाता खुद सौ प्रतिशत ग्वालियर से खडी होने की जिद पकड लेंगी और हम उन्हें ना नहीं कह सकते. लेकिन मैं किसी भी स्थिति में नहीं चाहूंगा कि मां-बेटे का आपसी झगडा खुली सडक पर आ जाए.

वह नामांकन दाखिल करने का आखिरी दिन था. वाजपेयी ने भाजपा की ओर से ग्वालियर सीट से पर्चा भर दिया और तुरंत ही माधवराव सिंधिया ने कांग्रेस की ओर से अपना नामांकन कलेक्टर को सौंप दिया. इस विश्वासघात के बाद वाजपेयी विदिशा जाकर उम्मीदवारी दाखिल करना चाहते थे. लेकिन ग्वालियर से विदिशा का पौने चार सौ किलोमीटर का सफर पूरा करने में पांच से सात घंटे का समय वाजपेयी के पास नहीं था. उस जमाने में हेलिकॉप्टर तो भाजपा वालों को कौन देता‍?

चुनाव हुआ वाजपेयी को दो लाख से अधिक वोटों से हरा कर माधवराव सिंधिया जीत गए. वाजपेयी इस परिणाम के बारे में लिखते हैं:

“बाद में जब कुछ मित्रों ने श्री माधवराव सिंधिया से पूछा कि वे मेरे खिलाफ क्यों खडे हुए तो उन्होंने यह उत्तर दिया कि: मैने पर्चा भरने के बाद उन्हें यह चुनौती दी कि वे मेरे खिलाफ चुनाव लड कर देख लें, उन्हें अपनी औकात का पता लग जाएगा.

वाजपेयी माधवराव के इन शब्दों के संदर्भ में कहते हैं: `यह बिलकुल मनगढंत कहानी है. राजनीतिक विरोधियों के प्रति अशिष्टता का व्यवहार करना मेरे स्वभाव में नहीं है. सिंधिया के प्रति तो मेरा सहज स्नेह और सम्मान का भाव रहा है. उन्हें जनसंघ का सदस्य भी मैने ही बनाया था. यह स्पष्ट है कि श्री सिंधिया पर ग्वालियर से लडने के लिए दबाव डाला गया और एक कांग्रेसजन के नाते उनके सम्मुख वहां से लडने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं था. ऐन वक्त पर नामजदगी पर्चा भरकर मेरे साथ जो व्यवहार किया उसे मैं वचनभंग की संज्ञा तो नहीं दूंगा, किंतु उस आचरण को पारस्परिक संबंधों की कसौटी पर कसने पर उचित भी नहीं ठहरा पाउंगा… यदि राजा द्वार पर आपकर वोट की याचना करे तो उसे ना कहना कठिन होता है. किंतु यदि इंदिरा लहर न होती तो राजा के प्रति के आदर और आत्मीयता की भावना रखते हुए भी भारतीय जनता पार्टी को व्यापक समर्थन मिलता. जम्मू में डॉ. कर्ण सिंह को, जो कांग्रेस के विरूद्ध खडे थे, उनका भूतपूर्व महाराजा होना विजयी नहीं बना सका.’

आज का विचार

बेनकाब चेहरे हैं,
दाग बडे गहरे हैं…

अटल बिहारी वाजपेयी

(मुंबई समाचार, गुरुवार, २३ अगस्त २०१८)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here