कर्तव्य पथ पर जो भी मिले, ये भी सही, वो भी सही

गुड मॉर्निंगसौरभ शाह

३१ अक्टूबर १९८४ को सुबह प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के घर में उन्हीं के अंगरक्षकों ने उनकी हत्या कर दी. राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह (जिन्होंने ये कहकर अपनी वफादारी प्रकट की थी कि `इंदिराजी कहें तो मैं झाडू लगाने के लिए तैयार हूँ’) उसी दिन कुछ ही घंटों में इंदिराजी के ४० वर्षीय पुत्र राजीव गांधी को भारत का नया प्रधानमंत्री बना देते हैं.

इंडियन एयरलाइन्स में पायलट के रूप में नौकरी करनेवाले राजीव गांधी को न तो राजनीति में रुचि थी, न ही ऐसा कोई शौक था. उनके छोटे भाई संजय गांधी इन सभी बातों में उस्ताद थे. चालबाज संजय गांधी अपनी डिक्टेटर मिजाजवाली माताजी का उत्तराधिकारी बनेंगे यह बात इमरजेंसी के वर्षों (१९७५-१९७७) के दौरान ध्यान में आ गई थी. इंदिराजी के दुर्भाग्य से उनका वारिस बननेवाला पुत्र २३ जून १९८० के दिन छोटा प्रायवेट प्लेन उडाते समय दुर्घटना में चल बसा. उस समय गुजराती पत्रकारिता के भीष्म पितामह हसमुख गांधी ने भविष्यवाणी की थी कि इंदिरा गांधी अब अपने बडे बेटे राजीव गांधी को अपना वारिस बनाएंगी और ये सुनकर गांधीभाई के पत्रकार साथी उनकी हंसी उडाते थे, लेकिन गांधीभाई की भविष्यवाणी सच साबित हुई. राजीव गांधी के राजनीति में प्रवेश करने की तैयारी के रूप में उन्हें कांग्रेस अध्यक्ष बनाया गया. उस समय `इंडिया टुडे’ ने सिर पर गांधी टोपी लगा रहे राजीव गांधी की तस्वीर वाला कवर पेज छापकर शीर्षक दिया था: विल द कैप फिट? अगस्त १९८१ में उन्हें संजय की खाली हुई अमेठी की सीट से चुनाव लडाकर लोकसभा में भेजा गया.

१९९१ में जब राजीव गांधी की हत्या हुई तब हसमुख गांधी ने फिर एक बार भविष्यवाणी की थी कि राजीवजी की विधवा सोनिया गांधी अब पॉलिटिक्स में आएंगी और फिर एक बार गांधीभाई के पत्रकार साथियों ने उन्हें सिनिक कहा था.

इंदिरा गांधी की हत्या के शोक में सारा देश डूबा था. नवंबर में जनरल इलेक्शन्स की घोषणा हुई. ५ अप्रैल १९८० को जन्मी भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार के रूप में अटल बिहारी वाजपेयी को फिर एक बार ग्वालियर से लडाने का निर्णय किया गया. भाजपा यूं तो जनसंघ का ही नया अवतार है यह देश के लिए गौरव की बात है (सेकुलर और लेफ्टिस्ट चाहे जो कहे, पेड मीडिया भी जो चाहे कहे). और जनसंघ की जडें आरएसएस जैसे राष्ट्रवादी संगठन में हैं जो कि अधिक गौरव की बात है. वाजपेयी के राष्ट्रवाद का आर.एस.एस. ने ही तराशा और सॅंवारा है. १९७७ में जयप्रकाश नारायण और मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी का गठन हुआ जिसमें पांच दलों का विलीनीकरण हुआ, जनसंघ भी उन्हीं में से एक था. उस समय वाजपेयी ने कहा था,`सवेरा हो गया है, अब दीपक की कोई जरूरत नहीं.’ जनसंघ का चुनाव चिन्ह दीपक था.

लेकिन चौधरी चरण सिंह सहित अन्य आधे-पौने दर्जन अक्षम, लालची और स्वार्थी नेताओं की खींचतान में जनता पार्टी टूट गई, मोरारजीभाई जैसे आदरणीय, दृढ और ईमानदार तथा स्वच्छ छवि वाले सीनियर मोस्ट राजनेता भी उसे नहीं बचा सके. जनता पार्टी के स्वार्थी नेताओं को जनसंघ से आए नेताओं की लोकप्रियता चुभती थी. खुद को सेकुलर बताते हुए कांग्रेस की मुस्लिम वोट बैंक पर कब्जा जमाने की इच्छा रखनेवाले उन नेताओं ने जनसंघ के वाजपेयी-आडवाणी इत्यादि नेताओं के सामने दोहरी सदस्यता का मुद्दा खडा किया. दोहरी सदस्यता यानी? यदि आप जनता पार्टी के सदस्य हैं तो आप आर.एस.एस. के सदस्य नहीं रह सकते. यह हवा में से खडा किया गया विवाद था. मूल जनसंघ के नेताओं को कमजोर करने की चाल थी. बाकी जनता पार्टी एक राजनीतिक दल और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक सामाजिक संगठन था- दोनों के बीच न तो कोई प्रतिस्पर्धा थी, न ही कोई साम्यता. ये `डुअल मेंबरशिप’ का विवाद तो उसी प्रकार से हास्यास्पद बात थी कि मानो आप अगर लॉयन्स क्लब के सदस्य हैं तो आप अपनी स्कूल के भूतपूर्व विद्यार्थियों के असोसिएशन का सदस्य नहीं बन सकते.

पूर्व जनसंघ के सदस्य समझ गए. कोई भी अपने मातृ तुल्य संगठन आरएसएस को छोडने के लिए तैयार नहीं था. सभी ने जनता पार्टी छोड दी. वैसे भी जनता पार्टी टूट ही रही थी. स्वार्थी नेताओं की भीड ने १९८० में हार कर इंदिरा गांधी को थाल में सजा कर सत्ता सौंप दी. उसी वर्ष वाजपेयी-आडवाणी के नेतृत्व में भाजपा की स्थापना हुई और वाजपेयी ने घोषणा की: कमल खिलेगा.

भाजपा को नए दल के लिए चुनाव चिन्ह की जरूरत थी, जिसे वे अपने झंडे में रख सकें. चुनाव आयोग ने कहा कि इस सारी प्रक्रिया में समय लगेगा. नए दल को तुरंत चिन्ह नहीं दिया जा सकता. आडवाणी प्रतिनिधि मंडल लेकर चुनाव आयुक्त से मिलने गए. आडवाणी से कहा गया कि निर्दलीय लोगों के लिए जो चिन्ह चुनाव आयोग ने रखे हैं उसमें से आप एक पसंद कर लीजिए. आपकी सुविधा के लिए वह प्रतीक हम किसी भी निर्दलीय को नहीं देंगे और देश भर के सिर्फ भाजपा उम्मीदवारों को ही वह चिन्ह आबंटित करेंगे, ऐसा आश्वासन देते हैं. आडवाणी ने छतरी से लेकर लालटेन तक अन्य कई चिन्ह देखे जो निर्दलीयों को आबंटित किए जाने थे, आडवाणी ने उन सभी को नकार दिया. फिर उनकी नजर कमल पर पडी. उन्होंने कहा कि हमें यह प्रतीक दे दीजिए. चुनाव आयोग ने हामी भर दी. आडवाणी ने कहा कि: लेकिन एक कठिनाई है. क्या? तो उन्होंने कहा: निर्दलियों के लिए जो चिन्ह हैं उनमें एक फूल भी है- गुलाब जिसका चित्र कमल से मिलता जुलता है जिससे मतदाताओं में गलतफहमी पैदा होने की संभावना है इसीलिए गुलाब का चिन्ह किसी को न दिया जाए, ऐसी प्रार्थना है. चुनाव आयोग ने उस निवेदन को मानते हुए गुलाब के फूल को प्रतीकों की सूची से ही हटा दिया.

१९८४ में भाजपा पहली बार लोकसभा चुनाव लडती है. भाजपा अध्यक्ष अटलबिहारी वाजपेयी पहले जनता पार्टी और साथ ही जनसंघ से चुनाव लडकर सांसद बन चुके थे और लोकप्रिय नेता थे.

१९५७ और १९६७ में बलरामपुर से तथा १९७७ और १९८० में नई दिल्ली से जीतकर सांसद बन चुके थे. १९७१ में वे ग्वालियर से चुने गए थे. इस बार ग्वालियर में कांग्रेस ने उनके सामने विद्या राजदान को खडा करने का फैसला किया था. वाजपेयी की जीत निश्चित थी लेकिन बिलकुल अंतिम क्षणों में बाजी पलट गई.

शेष कल.

आज का विचार

न हार में,
न जीत में,
किंचिंत नहीं भयभीत मैं,
कर्तव्य पथ पर जो भी मिले
ये भी सही, वो भी सही.

कवि शिव मंगल सिंह `सुमन’ (१९१५- २००२)

(मुंबई समाचार, बुधवार, २२ अगस्त २०१८)

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