आप की जीत और अपनी हार के बारे में

न्यूज व्यूज- सौरभ शाह
(newspremi.com, गुरुवार १३ नवंबर २०२०)

ज़रा विचार करते हैं कि ऐसा क्यों हुआ.

दस मुद्दे

एक: सबसे पहले तो जब बीजेपी हारती है तब हमें जोरशोर से ये कहना चाहिए कि मोदी को फासिस्ट, तानाशाह, अत्याचारी, असहिष्णु कहनेवाले गलत साबित हुए. यदि मोदी सचमुच डिक्टेटर होते तो क्या इस देश में बीजेपी के अलावा अन्य किसी पार्टी को जीतने देते? मोदी को खराब नामों से संबोधित करना अब किसी भी लेफ्टिस्ट-सेकुलर को आज से बंद कर देना चाहिए.

दो: दिल्ली विधानसभा के चुनाव में बीजेपी के पास कोई सीएम का उम्मीदवार नहीं था इसीलिए लोगों ने केजरीवाली को पसंद किया, सच में? गलत. उत्तर प्रदेश में या महाराष्ट्र में २०१४ के चुनाव में बीजेपी ने योगी या फडनवीस का नाम भी नहीं लिया था. इसके बाद भी बीजेपी जीत गई. इतना ही नहीं, बल्कि इन दोनों अनजाने चेहरों ने अपनी क्षमता दिखाई और नाम भी कमाया.

तीन: केजरीवाल ने पानी, बिजली, सफर मुफ्त किया और शिक्षा सुविधाओं में बढ़ोतरी की इसीलिए ये पापी जीते, सच‍? बिलकुल गलत. दिल्ली में कई जगहों पर नलों में गंदा पानी आता है. लोगों को कुछ भी मुफ्त में नहीं मिलता. फिल्टरेशन प्लांट भी ठीक से नहीं हैं. बिजली की दरें कुछ जगहों पर विशिष्ट यूनिट से अधिक होता है तो वहां पर बिल अधिक आने लगा है. मुफ्त बिजली तो पांच साल पहले देनी थी जो कि तीन महीने पहले से ही मिलने लगी है और वह भी मामूली यूनिट के लिए इसके अलावा आज की तारीख में भी दिल्ली में चौबीस घंटे बिजली नहीं मिलनेवाले कई इलाके हैं, इसके बाद भी मीडिया झांसा देनेवाली इस हरकत को हम तक नहीं पहुंचा रहा है. दिल्ली ट्रांसपोर्ट की खस्ताहाल बसों को बदल कर नई बसें खरीदने के पैसों से महिलाओं को मुफ्त यात्रा कराने का खर्च निकाल रहे हैं आप वाले. दिल्ली ट्रांसपोर्ट कॉर्पोरेशन में हुए बड़े बड़े घोटालों के बारे में मीडिया चूं तक नहीं करती. डीटीसी की रेकॉर्ड आफिस में मतदान से कुछ दिन पहले भीषण आग लगी थी, सारे कागज, फाइलें, कंप्यूटर डाटा सबकुछ जलकर भस्म हो गया. मीडिया के छोटे से वर्ग ने इस पर ध्यान तो दिया लेकिन अधिकांश मीडिया चुप्पी साधे रहा. भाजपा का शासन होता तो मीडिया ने मोदी-शाहर को नोंच लिया होता लेकिन पाप का बिस्कुट मुंह में था इसीलिए काटना तो दूर भौंकना भी मुनासिब नहीं समझा मीडियावालों ने. दिल्ली की सैकड़ों सरकारी स्कूलों का बजट केवल पांच स्कूलों को नए सिरे से रंगाई करने, नया फर्नीचर लगाने, स्विमिंग पूल बनाने में खर्च कर दिया गया. बाकी स्कूलों में तो पर्याप्त वेतन के अभाव में शिक्षकों की संख्या भी काफी कम है.

चार: फ्री स्कीम्स का लाभ जितना मिल रहा है उससे अधिक उसका प्रचार किया जा रहा ताकि फ्री-फ्री के प्रचार में केजरीवोल की जीत का असली कारण छिपाया जा सके. असली कारण है वोटों का ध्रुवीकरण. आसान भाषा में कहें तो अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण और सीधी बात कहें तो मुसलमानों की चमचागिरी. दिल्ली में केजरीवाल ने पंद्रह सौ से अधिक मस्जिदों के इमामों को हर महीने बारह से अठारह हजार का वेतन तय किया है. वक्फ बोर्ड की मस्जिदों के इमामों को प्रति माह वेतन में भी डेढ गुना बढ़ोतरी की है. (मंदिर के पुजारी या चर्च के पादरियों को नहीं, माइंड वेल, यही सेकुलरिज्म है). इन इमामों का अपने इलाके की मुसलमान बस्तियों पर वर्चस्व होता है. आज के जमाने में बारह- पंद्रह हजार की कोई बिसात नहीं है लेकिन यह एक सांकेतिक जेश्चर है जो कहता है कि मुसलमानों आप हमारे साथ रहना, हमें हिंदुओं से अधिक आप प्यारे हो. आप जो काम कहेंगे वो करेंगे. मोदी पाकिस्तान पर हमला करके आतंकवादियों के कारनामों का बदला लें तब हम मोदी का विरोध करेंगे और बाटला हाउस की घटना को फेक एनकाउंटर कहकर बहादुर पुलिस अधिकारी के बलिदान का अपमान करेंगे और आपकी बस्तियों में छिपनेवाले आतंकवादियों का बचाव करेंगे. शाहीनबाग में बिरयानी पहुंचाएंगे.

पांच: मीडिया को पहले से ही मोदी फूटी आंखों नहीं सुहाते. हिंदुत्व के `ह’ के साथ इस वामपंथी मीडिया का ३६ का आंकडा है. १९९२ में बाबरी ढांचा जब टूटा तब और २००२ में मुसलमानों ने जब गोधरा कांड किया तब भी मीडिया ने हिंदुओं की खूब धुनाई करने की कोशिश की. फिर भी भगवा ध्वज का रंग तनिक भी फीका नहीं पड़ा और मीडिया इसे लेकर फ्रस्ट्रेट हो गई है. मोदी किस तरह से १३-१३ साल गुजरात में टिके रहे, यही नहीं, अधिक से अधिक बड़े होते गए, इसका मीडिया को आश्चर्य है. २०१४ के बाद तो ये मीडिया बावली हो गई, पगला गई. लिटरली. इसीलिए तो देखिए ना दिल्ली के रिजल्ट के बाद आज तक- इंडिया टुडे के चैनल पर लिबरांडू राजदीप सरदेसाई दो टांगों पर खडा होकर जिस तरह से कोई कुत्ता नाचता है उस तरह से हाथ में काजू कतली की प्लेट लेकर बेशर्मी से `बादशाह’ फिल्म के गीत पर नाच रहा था. ये भद्दा दृश्य यदि आपने नहीं देखा हो तो आप यूट्यूब पर सर्च करके देख सकते हैं. उबकाई आएगी आपको. केजरीवाल ने इसी मीडिया को अपनी तरफ करके उसे अपने पाप में भागीदार बनाया है- विज्ञापनों की भरमार तो प्रत्यक्ष रूप से रिश्वत ही है, अगर स्टिंग ऑपरेशन हो जाय तो लिब्रांडुओं के पोस्टर बॉय समान कई मीडिया के दलालों की कलई खुल जाएगी.

छह: ये पेड मीडिया हमें केजरीवाल के विकास कार्य तो दिखाता है लेकिन आप – पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (मुस्लिम `सिमी’ जैसी एक `सेवा संस्था’) तथा शाहीन बाग का जो नेक्सस है उसकी जांच नहीं करता है. इस चुनाव में सबसे अधिक मार्जिन से जीतनेवाले उम्मीदवारों में दूसरे नंबर पर रहे आपके मुस्लिम उम्मीदवार अमानतुल्ला खान ने प्रत्यक्ष रूप से शर्जिल इमाम के साथ सांठगांठ की है और शाहीन बाग का षड्यंत्र उसी के इशारे पर चला, इस बारे में कोई जॉंच नहीं हो रही.

सात: हां, दिल्ली चुनाव का रिजल्ट हिंदू-मुस्लिम मतदाताओं के बीच टकराव की आहट है, है, है. ऐतिहासिक कारणों से सदियों से, पीढी दर पीढी, दिल्ली में बसे मुसलमानों की मानसिकता भारत के अन्य इस्लाम धर्मियों की तुलना में काफी अलग- अधिक कट्टर है. भाजपा के हारे हुए उम्मीदवार कपिल मिश्रा ने पिछले सप्ताह सही कहा था कि ८ फरवरी को भारत-पाकिस्तान के बीच मैच होनेवाला है. दुर्भाग्य से हम वह मैच हार गए क्योंकि जिसे अंपायरिंग करनी थी, वह मीडिया चीटिंग करके पाकिस्तान की हर अपील पर भारत को एलबीडब्ल्यू करता रहा और दूसरी तरफ पाकिस्तान क्लीन बोल्ड होने के बाद भी हर बार नो बॉल कहता रहा.

आठ: दिल्ली विधानसभा के चुनाव क्षेत्र की जनसंख्या मुंबई शहर जितनी ही है. पौने दो करोड के आस पास. मुंबई महानगर पालिका के चुनाव में जितने मतदाता और वॉर्ड हैं करीब उतने ही दिल्ली में भी मतदाता और निर्वाचन क्षेत्र हैं. बावजूद इसके मुंबई महानगरपालिका के चुनावों को नेशनल कवरेज नहीं मिलता. दिल्ली को मिलता है क्योंकि एक तो वहां विधान सभा है, मेयर नहीं- मुख्य मंत्री है. दूसरा, हमारे मन में `दिल्ली’ शब्द के साथ नेशनल लेवल की राजनीति जुड गई है. अब ये जो `दिल्ली’ है वह राजधानी वाला (नई दिल्ली) का इलाका है- संसद भवन, नॉर्थ ब्लॉक, सुप्रीम कोर्ट, राष्ट्रपति भवन, प्रधान मंत्री निवास- ये सभी सत्ता केंद्र हैं. नई दिल्ली की बस्ती तो अपने बोरीवली से भी आधी है. करीब ढाई लाख. `दिल्ली जीतना’ यानी स्कूल में इतिहास जब पढ़ते थे तब `देश पर कब्जा करना’ ऐसा अर्थ निकलता था. लेकिन दिल्ली विधानसभा का चुनाव जीतने से केजरीवाल ने `दिल्ली जीत ली’ ऐसा नहीं कहा जा सकता. मित्रो. केजरीवाल के लिए दिल्ली अभी दूर है, अभी नहीं, हमेशा के लिए दूर है. मंगल ग्रह पर लोग जब रहने जाएंगे तब भी आप वाले `दिल्ली पर शासन’ नहीं कर सकते, हनुमान चालीसा का अखंड पाठ करेंगे तब भी नहीं.

नौ: दिल्ली विधानसभा क्षेत्र में १३ प्रतिशत जितनी बस्ती मुसलमानों की है (ऑफिशियल आंकडा बारह पॉइंट के करीब है. कागज नहीं दिखाने के इच्छुक या दिखाने में असमर्थ मुसलमानों का इसमें समावेश नहीं है). एक एक मुस्लिम स्त्री-पुरुष मतदान करके आप को जिताने के लिए बाहर निकला है.

दिल्ली में सात लाख मतदाता सरकारी-अर्धसरकारी नौकरियों में आजीविका प्राप्त करते हैं. एक व्यक्ति का पांच का परिवार गिनें तो पैंतीस लाख लोगों का भरण पोषण इस नौकरी से होता है. पेंशनर्स अलग हैं. करीब पांचवें भाग की दिल्ली इसमें आ जाती है. इसमें से आधे से अधिक वोट देने की उम्र के होते हैं. सरकारी अफसरों – ऊपर से लेकर नीचे तक के लोगों को- ७० साल के कांग्रेसी कल्चर ने पाला पोसा है. भाजपा द्वारा नियुक्त या अभी ऊपरी तौर पर भाजपा की तरफ दिखनेवाले या झख मारकर जिन्हें मोदी मोदी करना पडता है ऐसे सरकारी कर्मचारी भी अंत में इसी ७० साल पुरानी, जड हो चुकी इको सिस्टम में रहकर काम कर रहे हैं. इनमें से कितने लोग भाजपा को वोट देंगे‍? हिंदू होंगे तब भी नहीं देंगे क्योंकि कांग्रेसी कल्चर का ब्लड उनकी रगों में दौड रहा है, कांग्रेस की ऐवज में आप द्वारा ट्रांसफ्यूजन किया गया रक्त दौड रहा है. ऐसे वातावरण में भाजपा के लिए सीटों और वोट शेयर में बढोतरी करने का काम एवरेस्ट चढने जैसा है जिसकी तरफ मीडिया हमारा ध्यान आकर्षित नहीं करता.

दस: कंपल्सरी वोटिंग का कानून लाकर मीडिया पर वर्चस्व बढाकर और असली हिंदुत्व क्यो है (उस बारे में कल) और जनता को समझाकर- इन तीन मुद्दों को लेकर आगे बढने की जरूरत है. दिल्ली तो क्या सारा भारत (बंगाल और केरल सहित पूरा भारत) भाजपा के साथ न हो जाय तो कहना.

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