भाजपा को कुर्ता, विपक्ष को धोती

गुड मॉर्निंगसौरभ शाह

१९८४ में ग्वालियर का चुनाव हारने और भाजपा को पूरे देश में केवल दो सीटें मिलने के बाद अटल बिहारी वाजपेयी पार्टी के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना चाहते थे. लेकिन वाजपेयी की मांग को पार्टी ने स्वीकार नहीं किया. अंत में वाजपेयी ने १९८६ में भाजपा अध्यक्ष का पद लालकृष्ण आडवाणी को सौंप दिया. भाजपा को संसद में वाजपेयी की जरूरत थी. १९८५ में उन्हें मध्यप्रदेश से चुनकर राज्यसभा में भेजा गया.

१९८९ में राजीव गांधी सरकार को जनता ने दूसरा टर्म नहीं दिया. बोफोर्स और अन्य भ्रष्टाचारों से त्रस्त हो चुकी जनता को राजीव गांधी के किसी जमाने में निकट सहयोगी रह चुके और उनकी सरकार में वित्त मंत्री तथा रक्षा मंत्री रहे और बाद में उनसे मनमुटाव करके इस्तीफा दे चुके विश्वनाथ प्रताप सिंह से काफी आशाएँ थीं. १९८९ के चुनाव में वी.पी. सिंह की डगमग सरकार बनी. अवसरवादी और मौकापरस्त वी.पी. सिंह ने अपने शासन के दौरान देश का बडा नुकसान किया. वी.पी. सिंह की सरकार एक साल भी नहीं टिकी. उसे पलटकर उन्हीं की तरह अवसरवादी राजनेता चंद्रशेखर प्रधान मंत्री बने. उनकी सरकार भी सात-आठ महीने में धराशायी हो गई. दो साल में ही देश पर फिर से लोकसभा चुनाव की नौबत आ गई.

१९९१ में दसवीं लोकसभा के चुनाव घोषित हुए. वाजपेयी राज्यसभा में थे. वे ऐसी घोषणा कर चुके थे कि आगे से वे कभी लोकसभा का चुनाव नहीं लडेंगे. लेकिन भाजपा को उनकी जरूरत थी. लोकसभा के साथ ही उत्तर प्रदेश विधान सभा का चुनाव भी होना था. भाजपा यू.पी. में सरकार बनाने के लिए भरसक प्रयास कर रही थी. राज्य के चुनाव प्रचार को गति देने की क्षमता रखनेवाले नेता केवल वाजपेयी ही थे. डॉ. मुरली मनोहर जोशी उस समय पार्टी अध्यक्ष थे इसीलिए चुनाव नहीं लडनेवाले थे. राजमाता विजया राजे सिंधिया और लालकृष्ण आडवाणी अपनी अपनी सीटें संभालने में बिजी हो जानेवाले थे. वाजपेयी पहले लखनऊ से लोकसभा का चुनाव लड चुके थे. पार्टी ने उन्हें फिर से लखनऊ से चुनाव लडने की जिम्मेदारी सौंपी. उस दौरान तय हुआ कि आडवाणी दिल्ली के अलावा गांधीनगर की सीट से भी चुनाव लडेंगे. इसीलिए वाजपेयी को भी दो सीटों पर चुनाव लडाने का निश्चय किया गया- दूसरी सीट विदिशा की थी. वाजपेयी लखनऊ और विदिशा की दोनों सीटों से जीत गए और उसमें विदिशा की सीट छोड दी जिस पर शिवराज सिंह चौहान को लडाया गया. वे जीत गए. १९९६, १९९८, १९९९ और २००४ में भी शिवराज सिंह चौहान विदिशा से जीते. २००५ में उन्हें बाबूलाल गौर के स्थान पर मध्य प्रदेश का मुख्य मंत्री बनाया गया. आज भी वे उसी दायित्व का वहन कर रहे हैं. विदिशा से पिछली दो लोकसभा के चुनाव सुषमा स्वराज जीतती रही हैं.

वाजपेयी के सेंस ऑफ ह्यूमर के कई किस्से हैं. १९९१ में लोकसभा और यूपी की विधान सभा के चुनाव साथ होनेवाले थे इसीलिए प्रचार भी लोकसभा – विधानसभा के लिए एक ही साथ होना था. भाजपा को विश्वास था कि लखनऊ से वाजपेयी की जीत तय है, विरोधियों को भी पूरा विश्वास था कि लोकसभा का चुनाव वाजपेयी ही जीतनेवाले हैं. लखनऊ लोकसभा सीट में विधान सभा की पांच सीटें आती हैं: लखनऊ-वेस्ट, लखनऊ -नॉथ, लखनऊ-ईस्ट, लखनऊ-सेंट्रल और लखनऊ कैंटोन्मेंट.इन पांचों विधान सभा क्षेत्र के गैर भाजपाई उम्मीदवारों ने मान लिया था कि लोकसभा के लिए तो मतदाता वाजपेयी को ही वोट देंगे इसीलिए वे चुनाव प्रचार के समय अपील करते थे कि: आप ऊपर का वोट (यानी लोकसभा का वोट) भले ही वाजपेयी को दें लेकिन नीचे का वोट (यानी विधानसभा का वोट) हमें ही दीजिए. वाजपेयी के कान में यह बात पडी. एक आम सभा में उन्होंने इस बात का उल्लेख करते हुए मजाक में कहा: `आप अगर ऊपर का कुर्ता भाजपा को पहनाएंगे और नीचे की धोती अन्य किसी को दे आएंगे तो जरा सोचिए हमारी हालत कैसी होगी!’

वाजपेयी में जिस प्रकार से कॉलेज के समय से ही वाणी का कौशल निखर उठा था उसी प्रकार से चुनाव की व्यूह रचना करने का कौशल भी उन्होंने कॉलेज के समय से ही सीखा था. ग्वालियर में वे जिस कॉलेज में पढते थे उस विक्टोरिया कॉलेज में स्टूडेंट्स यूनियन का चुनाव था. विद्यार्थी वाजपेयी जनरल सेक्रेटरी पद के लिए खडे थे. उनके सामने चंद्रसेन कदम नामक विद्यार्थी था जो ग्वालियर रियासत के एक बडे धनवान सरदार का पुत्र था. चंद्रसेन ने पानी की तरह पैसे बहाए. विद्यार्थियों में लोकप्रियता के मामले में वाजपेयी बहुत आगे थे लेकिन धनवान चंद्रसेन के सामने धन से बिलकुल लाचार थे. चंद्रसेन ने चुनाव के दिन एक बडा सा मंडप बनाकर कॉलेज के सभी विद्यार्थियों के लिए चाय-नाश्ते की व्यवस्था की. चंद्रसेन के प्रचार के लिए कॉलेज की खूबसूरत लडकियों को काम पर लगाया गया था. वाजपेयी दुविधा में पड गए. अब क्या करें. उन्होंने एक पत्रक वितरित किया जिसमें लिखा था: `चांदी के चंद टुकडों के लिए अपना अमूल्य वोट मत बेचो…यदि मेरे विरोधी को मुझसे आधे वोट भी मिले तो मैं अपनी हार मान लूंगा और कभी चुनाव नहीं लडूंगा.’

टीनएजर अटलजी का यह कॉन्फिडेंस, उनकी यह स्ट्रैटेजी काम कर गई. चंद्रसेन से दुगुने नहीं, कई गुना ज्यादा वोट उन्हें मिले.

कवि अटल बिहारी वाजपेयी राजनीति में खुद को पहले से ही मिसफिट मानते रहे. राजनीति और सार्वजनिक जीवन में अपनी छाप छोडने के बाद भी उनकी यह फीलिंग थी और पहले से ही थी. मूलत: पत्रकारिता के जीव थे. `स्वदेश’ और `पांचजन्य’ सहित अखबारों- पत्रिकाओं का संपादन किया. `पांचजन्य’ में उनके लिए फिल्म समीक्षा कौन लिखता था? लालकृष्ण आडवाणी! वैसे लालकृष्ण आडवाणी को हॉलीवुड की फिल्में ज्यादा अच्छी लगती थीं, और वाजपेयी को हिंदी. दिल्ली में दोनों ने ही खूब सारी फिल्में साथ में देखीं. देव आनंद उनके फेवरिट हीरो थे. लाहौरवाली बस यात्रा में उन्हें साथ ले गए थे. देव आनंद के अलावा दिलीप कुमार और संजीव कुमार की फिल्में भी अच्छी लगती थीं. `हम दोनों’, `देवदास’ और `मौसम’ उनकी पसंदीदा फिल्में थीं. राज कपूर की `तीसरी कसम’ और अशोक कुमार की `बंदिनी’ के भी वे प्रशंसक थे. हिरोइनों में नूतन, सुचित्रा सेन और राखी फेवरिट थीं. राखी- अभिताभ बच्चन वाली `कभी कभी’ का टाइटल सॉन्ग उन्हें बहुत अच्छा लगता था. मुकेश और मोहम्मद रफी उनके फेवरिट गायक थे और गायिकाओं में लता मंगेशकर. लताजी ने उनकी कविताएं गाई हैं (जगतीत सिंह ने भी गाई हैं). एस. डी. बर्मन का संगीतबद्ध किया और गाया `ओ रे मांझी’ उन्हें अच्छा लगता था. शास्त्रीय संगीत में पंडित भीमसेन जोशी, सरोदवादक अमजद अली खान और पंडित हरिप्रसाद चौरसिया का बांसुरी वादन उन्हें अच्छा लगता था. पंडित भीमसेन जोशी उनके करीबी मित्रों में थे. ग्वालियर में जन्मे, पले बढे, इसीलिए मराठी भाषा पर भी अच्छा प्रभुत्व था. मराठी नाटक उन्हें काफी पसंद थे.

शेष कल.

आज का विचार

जो कल थे,
वे आज नहीं हैं.
जो आज हैं,
वे कल नहीं होंगे.
होने, न होन का क्रम
इसी तरह चलता रहेगा.
हम हैं, हम रहेंगे
यह भ्रम भी सदा पलता रहेगा.

अटल बिहारी वाजपेयी

(मुंबई समाचार, शुक्रवार, २४ अगस्त २०१८)

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