क्या खोया, क्या पाया जग में

गुड मॉर्निंग- सौरभ शाह

अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी. भारत की राष्ट्रवादी राजनीति के दो आधारस्तंभ. लगभग ६५ वर्ष की अवधि में वे एक दूसरे के साथ रहे, साथ रहकर काम किया, कई मुद्दों पर एक दूसरे के साथ असहमति होने के बावजूद एक दूसरे के विचार को स्वीकार किया, बहुमत के विचार को सिर माथे लगाया. डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी तथा पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने जनसंघ द्वारा स्थापित उज्ज्वल परंपरा को वाजपेयी – आडवाणी ने भारतीय जनता पार्टी के जरिए आगे बढाया. ये चारों महापुरुष जिस वैचारिक जमीन पर जन्मे, पले – बढे और पुष्पित-पल्लवित हुए वह जमीन १९२५ में डॉ. हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा तैयार की थी. इन पांच महानुभावों से मिली विरासत यदि नरेंद्र मोदी के पास न होती तो वे नरेंद्र मोदी न बने होते. आज वे जिस ऊँचाई पर काम कर रहे हैं उसमें उनकी खुद की प्रतिभा, मेहनत और निष्ठा तो ही ही, साथ ही साथ इन पांचों महानुभावों द्वारा तैयार किए गए वातावरण का भी योगदान है और बेशक संघ के गुरु गोलवलकर से लेकर मोहन भागवत तक के सरसंघचालकों, अभी तक संघ तथा संघ परिवार की अन्य संस्थाओं में तन मन धन से कम कर चुगे करोडो स्वयंसेवकों, कार्यकर्ताओं का भी अपनी क्षमता के अनुसार इस वातावरण को निर्मित करने में योगदान रहा है और जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय नेताओं, स्थानीय नेताओं और कार्यकर्ताओं का भी उतना ही बडो योगदान है. इसके अलावा देश में ऐसी अनेक संस्थाएं और ऐसे अनेक व्यक्ति हैं जिन्होंने पूरी लगन से यह वातावरण बनाने के लिए आहुति दी है. राजीव मलहोत्रा जैसे विद्वान इसमें कई दशकों से जुडे रहे हैं. बीते वर्षों में ऐसे अनेक विचारक और प्रहरी जुडते चले गए. ऐसे गिनने जाएंगे तो वेदों के रचयिता ऋषि मुनियों से लेकर आदि शंकराचार्य तथा स्वामी विवेकानंद तक सभी महापुरुषों ने इस भूमि में तप करके भारत के सांस्कृतिक धरातल और उसकी परंपरा को सहेजने में, उसे आगे ले जाने के लिए परिश्रम किया है.

भारत इस देश का असली नाम है. राजा भरत का यह देश है. राजा भरत का नाम भरत किस तरह से पडा? `भरणात्‌ रक्षणात्‌ च’ अर्थात भरण -पोषण और रक्षण जो करता है वह भरत है. यह देश हमारा भरण पोषण करता है और हमें सुरक्षा भी प्रदान करता है. हम यानी दो हाथ पैर सिर वाले सवा सौ करोड लोग ही नहीं हैं, हम यानी हमारी संस्कृति, हमारी परंपरा, हमारी विचारधारा, हमारी विरासत और हमारे वातावरण का भरण और रक्षण भारत करता है.

पिछले करीब सौ वर्ष के इतिहास में डॉ. हेडगेवार, डॉ. श्यामाप्रसाद, दीनदयालजी तथा वाजपेयी-आडवाणी सहित तमाम महानुभावों – कार्यकर्ताओं ने जिन चुनौतिंयों का सामना किया, जो संघर्ष किया उसका फल आज हम चख रहे हैं. कॉन्ग्रेसी, सेकुलर तथा साम्यवादियों की लाख कोशिशों के बावजूद इस देश में भगवा ध्वज का महत्व रहा है. त्याग और बलिदान का प्रतीक यह भगवा ध्वज जब लहराता है तब उसे दो त्रिकोणीय सिरे यज्ञ की पावन ज्वाला की दो शिखाओं का आभास हमें कराते हैं.

वाजपेयी के बारे में चल रही श्रृंखला में आधे पर आकर इतनी लंबी प्रस्तावना लिखने का कारण ये है कि अब एक नया मोड ये श्रृंखला ले रही है- वाजपेयी और आडवाणी के संबंधों की बात होने जा रही है, उनकी मित्रता तथा दोनों के बीच कभी  उभरे मतभेदों की बात होने जा रही है. गलतफहमियां पनपने की पूरी संभावना है. इसीलिए इतनी पृष्ठभूमि रखना जरूरी है.

साथ काम करते करते मतभेद तो उभरते हैं लेकिन उसके कारण कोई एक-दूसरे का विरोधी नहीं बन जाता, दुश्मन तो बिलकुल नहीं.

लेकिन वाजपेयी-आडवाणी के बीच वैचारिक मतभेदों को दो प्रकार के लोग अपने क्षुद्र स्वार्थ के लिए खूब उडाते रहे. वाजपेयी तो भाजपा का `मुखौटा’ हैं और असली चेहरा तो आडवाणी हैं, ऐसा कहते हुए भाजपा को एक सांप्रदायिक दल के रूप में रंगने की खूब कोशिशें की गईं. मुस्लिम वोट बैंक बनाकर और हिंदू-मुस्लिम के बीच फूट डालकर कमाई करना जिनके खून में है ऐसे कांग्रेसी, सेकुलर, साम्यवादी तथा कई कट्टर मुस्लिम नेताओं ने ऐसा प्रचार किया जिसे पेड मीडिया हाथोंहाथ लेती रही. कई तरह के गप्पे लगाए और उस जमाने में चौकस रहने के साधन सीमित होने के कारण वर्षों तक ऐसी झूठी बातें हवा में तैरती रहीं. आर.एस.एस., जनसंघ, भाजपा और उनके नेता-कार्यकर्ताओं को सांप्रदायिक कहकर बार-बार अपमानित किया जाता है. अपनी मुस्लिम तुष्टिकरण की चाल को कारगर करने के लिए विरोधी ऐसे लांछन लगाते रहते हैं और यह तो बहुत पुरानी ट्रिक है. आपको अपना भ्रष्टाचार छिपाना हो या उसे न्यायसंगत ठहराना हो तो आप क्या करेंगे? दूसरे पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाइए और यह खेल खेलने में राहुल गांधी से लेकर अरविंद केजरीवाल जैसे लोग माहिर हैं. आपको अपने चरित्र की हीनता को ढंकना हो तो दूसरे की ओर इशारा करके बताइए कि वह चरित्रहीन है. आपको अपनी सांप्रदायिक सोच छिपानी हो तो आप दूसरे को कहिए कि तुम सांप्रदायिक हो. आप खुद कुएं के मेंढक हों तो दूसरे को संकुचित मानसिकता का बताएं. आपमें सहनशीलता की कमी हो तो आप दूसरे को असहनशील बताएँ.

भाजपा के साथ और आडवाणी के साथ कुछ ऐसा ही हुआ है. आडवाणी को सांप्रदायिक के रूप में चित्रित करनेवाले विरोधी वाजपेयी को `सेकुलर’ बनाते गए. एक को मुखौटा तो दूसरे को असली चेहरा बताते रहे.

पार्टी के ही अन्य कई लोग विरोधियों की बातों में आकर वाजपेयी या आडवाणी के गुट में चले गए, एक दूसरे के खिलाफ कान भरने लगे. पार्टी के ही ऐसे कई लोग इस बात को समझ नहीं सके कि वे खुद विरोधियों के हाथों में खेल रहे हैं. वे समझ नहीं सके कि किसी भी राजनीतिक दल में किन्हीं मुद्दों पर मतभेद पैदा हों तो उसका अर्थ ये नहीं है कि पार्टी अपनी मूल विचारधारा से डगमगा रही है. व्यक्ति के खुद के अंदर भी विरोधाभास क्या नहीं होते? दो लोगों के बीच ऐसा होना तो स्वाभाविक ही है. इसके बावजूद हम अपने भीतर रहे विरोधाभासों के साथ जी लेते हैं. और यदि यह दूसरों में दिखता है तो हम उसे स्वीकार नहीं करते हैं.

लेकिन बडे लोग तभी बडे बनते हैं जब उनका मन बडा होता है, जब उनकी देखने की दृष्टि विशाल होती है, जब उनका फलक विस्तृत होता है. वाजपेयी और आडवाणी दोनों बडे व्यक्तित्व हैं. दोनों ने अपने अपने मत-आग्रहों को व्यक्त होने दिया है और कभी उन्हें जनहित में छोड दिया है तो कभी उस पर अडिग रहे हैं.

भारतीय राजनीति के इतिहास की यह दुर्लभ मित्रता है, एक बेमिसाल जोडी है. ९० वर्ष की उम्र में अपने ९३ वर्ष के मित्र को खोना, जिसके साथ ६५ वर्ष से निरंतर मित्रता हो ऐसे मित्र को विदाई देना, उस दर्द को शायद ही कोई समझ सकता है, हम तो इसकी कल्पना मात्र कर सकते हैं. इस वर्ष ८ नवंबर को आडवाणी ९१ वर्ष पूर्ण करेंगे. वाजपेयी इस वर्ष २५ दिसंबर को ९४ पार कर चुके होते.

अटल बिहारी वाजपेयी के निधन के बाद यदि लालकृष्ण आडवाणी के साथ उनकी मैत्री यात्रा के अनगिन पडावों में से कुछ प्रमुख माइलस्टोन्स की बात न करें तो वाजपेयी को दी जा रही यह श्रद्धांजलि अधूरी ही रहेगी. कल से आपको जो भी गीत याद आए वह फिल्मी गीत गाइएगा:सलामत रहे दोस्ताना हमारा, तेरे जैसा यार कहां, ये दोस्ती हम नहीं छोडेंगे, तेरी दोस्ती मेरा प्यार इत्यादि.. और हम आपको लिए चलेंगे भारत के जनजीवन के लिए, राजनीति के लिए, हिंदुत्व की विचारधारा के लिए बहुमूल्य और बेमिसाल साबित हुए इस मैत्री भाव के निर्झर से बहते पवित्र प्रवाह में निमज्जन करने.

टिप्पणी: निमज्जन शब्द का अर्थ हमें भी १८ वर्ष की उम्र में पता चला जब १९७८ में `ग्रंथ’ नामक पुस्तक की समीक्षा के मासिक के कवरपेज पर उत्पल भायाणी नामक एक युवा गुजराती कथाकार की इस शीर्षक से कथा संग्रह की तस्वीर देखी. उसकी शीर्षक कथा पढने के बाद ध्यान में आया कि निमज्जन यानी डुबकी होती है. और नीचे की काव्य पंक्ति में `मग’ यानी `मार्ग’.

आज का विचार

क्या खोया, क्या पाया जग में,

मिलते और बिछडते मग में,

मुझे किसी से नहीं शिकायत,

यद्यपि छला गया पग-पग में,

एक दृष्टि बीती पर डालें,

यादों की पोटली टटोलें.

– अटल बिहारी वाजपेयी

(मुंबई समाचार, सोमवार – २७ अगस्त २०१८)

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