कोरोना के कारण कलियुग खत्म होगा, सतयुग लौटेगा

तडक भडक : सौरभ शाह

(newspremi.com, बुधवार, २२ अप्रैल २०२०; `संदेश’ – `अर्धसाप्ताहिक’ पूर्ति)

किसी स्वजन के अंतिम संस्कार के समय जीवन के बारे में, जीवन की क्षणभंगुरता के बारे में हमारे मन में जो कुछ भी त्याग-संयम-वैराग्य के विचार आते हैं उसे स्मशान वैराग्य कहते हैं. घर लौटते ही उन सारी बातों को हम भूल जाते हैं, जीवन पूर्ववत्‌ शुरू हो जाता है.

लॉकडाउन के दौरान आनेवाले ये विचार भी स्मशान वैराग्य जैसे ही हो सकते हैं. और शायद न भी हों. लॉकडाउन का अनुभव दो-चार घंटे तक ही सीमित नहीं है. तीन मई को ४० दिन पूरे हो जाएंगे और बाद में चार मई जीवन तुरंत ही सरपट दौडने नहीं वाला. घर से बाहर निकलने की सशर्त छूट मिलेगी लेकिन निजी जीवन, सामाजिक जीवन, व्यक्तिगत आर्थिक परिस्थिति तथा देश की अर्थव्यवस्था- ये सारा कुछ पूर्ववत्‌ होने में महीनों लग जाएंगे, शायद वर्षों भी. और उसके बाद भी कुछ बातें हमेशा के लिए बदल गई होंगी. कौन सी?

चैती नवरात्रि के पहले दिन से लॉकडाउन का आरंभ हुआ. उसी दिन से जीवन बदलता गया. रोजाना एक बार खाकर उपवास शुरू किया और शरीर-मन दोनों की परिस्थितियों बदलाव आने लगा. घर में- रसोई में भी काफी कुछ बदल गया. चालीस दिनों में अभी बहुत कुछ बदलेगा और अगर ये स्मशान वैराग्य नहीं होगा तो उसके बाद भी बहुत कुछ बदल चुका होगा- शायद जीवन भर के लिए. चलो देखेंगे. लेकिन इस एक ही बात के कारण, रोजाना केवल एक ही समय भोजन करने के कारण, यदि शारीरिक लाभ के अलावा मानसिकता में भी बदलाव आ रहा हो, अन्य भौतिक पहलुओं में भी बडा परिवर्तन आ रहा हो तो इतना बडा पॉजिटिव चेंज सारे जीवन के लिए क्यों नहीं अपनाना चाहिए, ऐसे विचार लगातार आते रहते हैं.

वॉट्सऐप पर चतुराई, बेकार, बेपरवाह और फालतू मैसेजेस से आपको जितनी तकलीफ होती होगी, उतनी ही हमें भी होती है. ऐसे एक लाख फॉरवर्ड्स में से शायद एकाध काम का होता है. एक मित्र ने सवा दो मिनट की क्लिप भेजी जिसे मैने काफी लोगों को फॉरवर्ड किया- खास तौर से देखने का आग्रह किया. लाखों में एक ये क्लिप आपने भी देखी होगी. नहीं देखी होगी तो भी जान लीजिए कि उसमें क्या है? लॉकडाउन के दौरान लिखे गए मेरे तकरीबन आधा दर्जन लेखों में ये बात इतनी प्रभावी ढंग से कहीं भी नहीं कही गई है. जिसने भी ये क्लिप बनाई है उसकी सूझबूझ की जितनी भी प्रशंसा की जाय कम है.

हम इस भ्रम में थे कि हम इस पृथ्वी को बचा सकते हैं- यहां से क्लिप आरंभ होती है. `सेव द अर्थ’ कैंपेन पर व्यंग्य के बाद आगे बढती है. हमें लगता था कि हम प्रदूषण घटा सकते हैं. लेकिन अब हमें पता चल रहा है कि आदमी खुद अगर टांग न अडाए तो ये पृथ्वी अपने आप अपनी क्षतिपूर्ति बहुत ही तेजी से करने में सक्षम है. हम भ्रम में रहे कि बर्गर, फ्रेंस फ्राइज़, पिज्जा जैसे फास्ट फूड्स के बिना जिया नहीं जा सकता. सारी दुनिया में मैकडोनाल्ड्स, केएफसी, डोमिनोज, स्टार बक्स बंद हो गए. फिर भी दुनिया चल रही है. हम भ्रम में थे कि घर बैठकर कौन सा काम होता है, आफिस तो जाना ही पडेगा. हम भ्रम में थे कि हमारा मीडिया बहुत समझदार है. हम भ्रम में थे कि हमारे क्रिकेट स्टार्स-फिल्म स्टार्स रीयल हीरो हैं. पता चला कि ये लोग तो केवल मनोरंजन परोसते हैं. हम भ्रम में थे कि यूरोप-अमेरिका के लोग अधिक समझदार हैं, पढे लिखे और मॉडर्न हैं. हम भ्रम में थे कि पेट्रोल बहुत ही मूल्यवान है, पेट्रोल न हो तो दुनिया थम जाएगी. अब हमें पता चल रहा है कि हमारे बिना पेट्रोल की कोई कीमत नहीं. हम भ्रम में थे कि शॉपिंग मॉल्स बंद हो गए तो दुनिया थम जाएगी. शॉपिंग मॉल्स बंद हैं. फिर भी दुनिया चल रही है. ब्रांड्स नहीं थे तब भी दुनिया चल रही थी. हम वैकेशन में बाहर घूमने नहीं जा सकते फिर भी दुनिया चल रही है. देर रात तक चाय की केतली पर या शराब के बार में या कॉफी शॉप में बैठकर टाइप पास नहीं कर सकते. फिर भी दुनिया चल रही है. जो फर्क पडा है वह बनावटी, कृत्रिम, नकली, दिखावे से उपजी जिंदगी पर पडा है- असली जिंदगी में तो कोई फर्क नहीं आया. गलत खर्चे बंद हो गए हैं. परिवार के सदस्यों के साथ दो घडी बात करने की फुर्सत नहीं थी. बच्चे क्या पढते हैं, पत्नी किस तरह से घर चलाती है, पति के नौकरी व्यवसाय की क्या समस्याएं हैं- किसी को भी एक-दूसरे की खबर नहीं थी. लगता था कि परिवार में किसी को किसी की पडी नहीं है. लेकिन अब ध्यान में आ रहा है कि ऐसा नहीं था. हर किसी को एक दूसरे के जीवन की फिक्र थी लेकिन उसे व्यक्त करने के लिए मानसिक फुर्सत नहीं थी. रोजाना की भागदौड में इसके लिए समय भी नहीं था.

फॉरवर्ड की बात खत्म.

१९२९ की अमेरिकी आर्थिक मंदी के बाद अमेरिका ने ही नहीं बल्कि संपूर्ण दुनिया ने कई परिवर्तन देखे. दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान, उसके खत्म होने के बाद भी दुनिया में भारी फेरबदल हुए. अभी का संकट केवल अमेरिका या कुछ ही देशों तक सीमित नहीं है. विश्वव्यापी है. दुनिया के हर देश को स्पर्श कर रहा है. अब जो बदलाव आएंगे वे भी विश्वव्यापी होंगे, बडे पैमाने पर होंगे. घर से काम करके जीवन चलाया जा सकता है, ऐसे सुखी लोग काफी कम थे. उनमें से हम भी एक हैं. लेकिन अब ऐसे सुखी जनों की संख्या में भारी वृद्धि होनेवाली है. बडे बडे किरायों वाली आफिस की जगहों में कटौती करके कई कंपनियां अपने स्टाफ को घर बिठा कर काम करने के लिए कहेंगी. कर्मचारी भी कम वेतन के ऑफर को स्वीकार करेंगे. ऑफिस आने जाने में खर्च होने वाले समय-धन-शक्ति तीनों की बचत हो, ये किसे अच्छा नहीं लगेगा?

भारत की वर्तमान पीढी को रियल क्राइसिस, तंगी, अभाव किसे कहा जाता है, इसका अनुभव नहीं है. नब्बे के आसपास के बुजुर्ग भी दूसरे विश्वयुद्ध के समय बहुत रहा हो तो अपनी टीनेज में रहे होंगे, युद्ध के समय संसार चलाने में कितनी कठिनाइयां आती हैं, इसका प्रत्यक्ष अनुभव उन्हें नहीं होगा. इसके अलावा दूसरे विश्वयुद्ध के प्रभाव अमेरिका-ब्रिटेन-जर्मनी-रूस या जापान की जनता ने जितना अनुभव किया उसका दस प्रतिशत ही भारतीय जनता ने अनुभव किया होगा. वर्तमान संकट के कारण दस-बारह साल के किशोरों से लेकर हर पीढी के व्यक्ति को कमोबेश आभास हो रहा होगा कि दो लोगों के साथ स्टारबक्स में जाकर पांच सौ रुपए की नोट उडाने का कोई अर्थ नहीं है. त्याग, संयम, काटकसर. ये तीनों ही भारीभरकम शब्द हैं लेकिन अब ये तीनों हम सभी के जीवन में समाविष्ट हो जाएंगे. हमारे यानी केवल भारतीयों ही नहीं, बल्कि उपभोक्तावाद की संस्कृति में पले बढे पश्चिम के देशों के जीवन में समाविष्ट होंगे. किसी भी पदार्थ को बर्बाद करने से पहले, वस्तुओं को खर्च करने से पहले दो बार विचार करेंगे. भारत में तो रिसायक्लिंग करना कोई नई बात नहीं है. रद्दी और भंगार से कितने पैसे निकलते हैं, ये हम जानते हैं. पश्चिमी देशा, अमीर माने जानेवाले देश भी अब झख मारकर रिसायक्लिंग की ओर मुडेंगे. केवल पर्यावरण बचाने के लिए ही नहीं, धन बचाने के हेतु से रिसायक्लिंग करने लगेंगे.

मनोरंजन पर खर्च होनेवाला समय और धन भी कम होगा. बाहर जाकर सिनेमा, नाटक, शोज देखने में, भीड में बठने में डर लगेगा. स्टेडियमों में लगनेवाली भारी भीड नदारद होगी. उसके उलट नेटफ्लिक्स या अमेजॉन प्राइम टाइम जैसे दर्जनों ओ.टी.टी (ओवर द टॉप) प्लेटफॉर्म्स का व्यावसाय बढ जाएगा. अखबार-किताबों के डिजिटल संस्करण, ई-बुक्स इत्यादि का कामकाज जोर पकडेगा. लॉकडाउन के समय में प्रार्थनासभाओं – शोकसभाओं पर पाबंदी है. स्मशान यात्रा में भी लिमिटेड संख्या में ही जाने की अनुमति है. लॉकडाउन खुलने के बाद काफी लोग सोचेंगे कि मृत्यु के समय सारे गांव को जुटाना जरूरी है क्या?‍ या फिर अमेरिका-ब्रिटेन में दशकों से जो प्रथा चली आ रही है उसे अपनाना है? विवाह समारोहों की तरह शोक के मौके पर भी जिन्हें आमंत्रण हो वे ही प्रत्यक्ष आकर मिलें. बाकी लोगों को दूर रहकर ईमेल, वॉट्सऐप इत्यादि पर संदेश भेज देना चाहिए. किसी भी जगह भीड जुटाने का कल्चर कम होता जाएगा. विदेशों में होनेवाले कॉन्सर्ट में स्टेडियम भीड से छलकने लगते थे, हमारे यहां क्रिकेट के मैचों में भारी भीड होती थी, चुनावी रैलियों में भीड जुटती, धार्मिक-सामाजिक आयोजन तो भीड से जगमगा उठते हैं, ऐसा माना जाता था. ये सब अब कम हो जाएगा. लाइव टीवी, यूट्यूब, फेसबुक लाइव, ज़ूम जैसी ऐप्स इत्यादि का उपयोग बढेगा.

जनता में काफी बडा आंतरिक बदलाव आएगा. लॉकडाउन के बाद सारा कुछ सामान्य हो जाने पर भी लोगों के पास पहले से ज्यादा समय होगा. अंदर झांकने का अवसर अधिक मिलेगा. आंखें बंद करके दौडते रहने की आदत से मुक्ति पाकर जीवन में सच क्या है, झूठ क्या है; क्या काम का है, क्या बेकार है, इस बारे में सोचने का मौका मिलेगा. किसी भी बाबागुरु या मोटिवेशनल स्पीकर्स/ लेखकों की मदद के बिना लोग अधिक मैच्योर्ड बनेंगे, अधिक आध्यात्मिक बनेंगे. कलियुग की चरमसीमा के रूप में कोरोना आया है. ये दौर खत्म होने के बाद सतयुग फिर आ रहा है. मजाक नहीं. अभी के संकट, अराजकता और भय की मन:स्थिति के बाद निरभ्र आकाश की तरह स्वच्छ सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और पारिवारिक वातावरण होगा जो कि युगप्रवर्तक होगा, कलियुग से निकलकर सतयुग की दिशा में प्रयाण होगा.

सायलेंस प्लीज़

पहले कहते थे कि निगेटिव लोगों से दूर रहें. और अब कहते हैं कि पॉजिटिव लोगों से दूर रहो!

– व्हॉट्सऐप पर पढा हुआ

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