सुखार्थी विद्यार्थी नहीं बन सकता, विद्यार्थी सुखार्थी नहीं हो सकता

गुड मॉर्निंग- सौरभ शाह

(मुंबई समाचार, मंगलवार – २६ फरवरी २०१९)

कल की बात को आज पूरा करते हैं. आज की तारीख में भी उपयोगी शिक्षा सूत्रों की बात हम कर रहे थे.

आपको विद्या कब प्राप्त होती है? याज्ञवल्क्य कहते हैं: सौ बार पुनरावर्तन करके और एक हजार बार फिर से स्मृतिबद्ध की गई विद्या जीभ पर इतनी सहजता से आ जाती है, जैसे पानी ढलान पर बह जाता है (आसानी से, बिना किसा प्रयास के). सौ बार पुनरावर्तन की गई विद्या प्राप्त होती है और हजार बार पुनरावर्तन करने के बाद वह स्थिर हो जाती है, जब कि एक लाख बार पुनरावर्तन करने से इस जन्म से अगले जन्म तक स्थिर हो जाती है.

`कुमार संभवम’ में कवि कालिदास ने इस तथ्य के समर्थन में पार्वती के अध्ययन का वर्णन करते हुए लिखा है: जैसे शरद ऋतु में हंसों का समूह स्वयं चलकर गंगा के पास आता है, महाऔषधियों में आत्मप्रभा रात के दौरान अपने आप प्रकट होती है, उसी प्रकार अध्ययन काल के दौरान पार्वती से पूर्व जन्म में प्राप्त की गई विद्या अपने आप प्रकट होती है. पार्वती को `थीरोपदेशा’ (स्थिर उपदेशा) कहा गया है. इसका भाव ये है कि पार्वती ने अगले जन्म में एक लाख बार पारायण करके पुनर्जन्म के समय याद रहे, इस प्रकार से विद्या प्राप्त की थी. इसीलिए पुनर्जन्म में अध्ययन करते समय पार्वती के चित्त में सहजता से विद्या का स्फुरण होता है.

याज्ञवल्क्य आगे कहते हैं: कोमल स्पर्शवाला जल कठोर स्पर्श वाले पत्थर को भी क्षीण करके चिकना बना देता है. इसीलिए ये कथन सत्य है. अभ्यास से (यानी कि बार-बार प्रैक्टिस करने से, लगातार रियाज करने से) क्या नहीं हो सकता?

इस तथ्य को ध्यान में रखकर विद्यार्थी को हमेशा अध्ययरत रहना चाहिए. ऐसा करने से चाहे कितना ही कठिन विषय हो, वह अत्यंत सरल बन जाता है.

याज्ञवल्क्य आगे कहते हैं: पिपीलिका (चींटी) धीरे धीरे काम करके मिट्टी का ढेर बना सकती है. इसमें उसकी शक्ति का सामर्थ्य नहीं है. बल्कि निरंतर उद्यमशीलता ही इसका कारण है.

उद्यमशीलता द्वारा अल्प सामर्थ्य रखनेवाला विद्यार्थी भी विद्या में पारंगत हो सकता है. प्रतिकूल परिस्थिति में भी थोडा थोडा समय निकालकर अभ्यास जारी रखना चाहिए. विद्या प्राप्ति में (और अन्य कई प्रवृत्तियों में) प्रति दिन समय निकालना जरूरी है. कभी संयोग न बैठे और पर्याप्त समय निकालना संभव न हो तो भी जितना हो सके उतना, कम हो तो कम, लेकिन समय तो निकालना ही चाहिए.

अंतिम श्लोक है: यदि किसी को सुख या ऐशोआराम की चाह है तो उसे विद्या प्राप्ति का लक्ष्य नहीं रखना चाहिए और जिसे विद्या प्राप्त करनी है उसे सुख- ऐशोआराम को त्यागने की तैयारी रखनी चाहिए. सुखार्थी को विद्या नहीं मिलती, विद्यार्थी को सुख नहीं मिलता.

भाव ये है कि विद्योपार्जन तपस्या द्वारा ही हो सकता है. इसीलिए विद्यार्थी को अधिक सुख की इच्छा नहीं रखनी चाहिए. तपोमय जीवन जीकर ही विद्या प्राप्ति का प्रयास करना चाहिए.

इस बात को लार्जर कॉन्टेक्स्ट में देखते हैं. अर्थोपार्जन और विद्योपार्जन दोनों अलग अलग और परस्पर विपरीत प्रवृत्तियां हैं. अर्थ द्वारा, धन द्वारा जो भी कोई सुख-सुविधा-ऐशोआराम – सिक्योरिटी मिलती है उसकी आशा विद्याभ्यासी नहीं रख सकता. यहां केवल विद्यार्थी को ही विद्याभ्यासी नहीं कहा जा रहा है. मां सरस्वती के आशीर्वाद से जो भी व्यक्ति इस क्षेत्र में हो, उन सभी पर ये बात लागू होती है. विद्यार्थी यदि सुखार्थी बनना चाहेगा तो वह दुखी तो होगा ही, बल्कि अपने विद्या प्राप्ति के मार्ग से भी विचलित हो जाएगा. न माया मिलेगी, न राम.

कभी यदि आप किसी को अपनी विद्या द्वारा खूब सारा धन कमाते देखें, तब ये निश्चित मान लें कि ये धन विद्या द्वारा नहीं आ रहा है, बल्कि विद्या के आडंबर में होने वाले अन्य व्यवहारों द्वारा आ रहा है.

हजारों वर्ष पहले ऋषि जो बात कहकर गए हैं, वह बात २०१९ में भी हंड्रेड परसेंट लागू होती है.

अस्तु.

आज का विचार

मोदी की ओर से ट्रंप बोलते हैं, इमरान की ओर से सुरजेवाला. औकात अपनी अपनी.

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बका: काश, मैं भी आर्मी में होता!

पडोसन: हटो जी, थर्ड फ्लोर वाले शर्माजी की तरह बॉर्डर क्रॉस करके सर्जिकल स्ट्राइक करना आपको कहां आता है?

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