(न्यूज़ व्यूज़: शुक्रवार, २४ अप्रैल २०२०)
पिछले तीन-तीन वर्ष से एक बडी खबर की ओर किसी का ध्यान ही नहीं गया. टीवी पर जिसके बारे में हर एक चैनल को प्राइम टाइम में चर्चाएं करनी चाहिए और अंग्रेजी सहित हर भाषा के अखबारों में जो समाचार फ्रंट पेज पर आठ कॉलम के बैनर के साथ छपनी चाहिए, वह समाचार है कि हिंदुओं की जनसंख्या का प्रतिशत घट रहा है.
पूर्व गृह राज्यमंत्री हंसराज अहिर ने आज से तीन साल पहले लोकसभा में दी गई लिखित जानकारी के अनुसार १९७१ में भारत में ८२.७ प्रतिशत जनसंख्या हिंदुओं की थी जो चालीस वर्षों में घटकर २०११ में ७९.८ प्रतिशत हो गई है.
हिंदू विधर्मियों को अपने धर्म में कन्वर्ट नहीं करते और विधर्मी (अधिकतर मुसलमान ही नहीं, ईसाई भी) परिवार नियोजन अपनाने के बजाय बेतहाशा बच्चे पैदा करते ही रहते हैं. इन दो कारणों से हिंदुओं की जनसंख्या का प्रतिशत घट रहा है.
१९७१ में भारत में ४५.३३ करोड हिंदू थे जो चालीस साल में बढकर २०११ में ९६.६२ करोड हो गए, ये आंकडे विश्वसनीय नहीं हैं, क्योंकि जनसंख्या के आंकडों की धर्मानुसार गिनती का वास्तविक अनुमान तो प्रतिशत से ही लग सकता है, कुल संख्या से नहीं.
चालीस साल में ऑलमोस्ट तीन प्रतिशत हिंदू जनसंख्या घट गई. आगामी वर्षों में ये प्रतिशत और घटती जाएगी. हिंदुओं का प्रतिशत न घटने पाए, इसके लिए न तो हिंदुओं को खुद अधिक पैदा करने का विकल्प है न ही हमारे पास दूसरों को धर्मांतरित करने का धंधा शुरू करने का विकल्प है. इस समस्या का समाधान केवल इतना ही है कि जो संप्रदाय अपने अनुयायियों को दनादन बच्चे पैदा करने की प्रेरणा और सुविधा (चार विवाहों की) देते हैं, उस पर अंकुश लगाया जाय. स्वैच्छिक रूप से आए तो अच्छा ही है और नहीं तो सरकारी स्तर पर आना चाहिए. दो या तीन से अधिक संतान वालों को तथा एक से अधिक पत्नीवालों को कई देशों कई देशों में (जिसमें कुछ प्रोग्रेसिव इस्लामिक देशों का भी समावेश है) कुछ सरकारी अधिकारों से वंचित रहना पड़ता है. आनेवाले दिनों में भारत में भी ऐसा ही करना पडेगा.
दूसरी बात, भारत में उचित तरीके से ही धर्मांतरण पर अंकुश लग रहा है, लेकिन इसके बावजूद जो प्रभावी कदम उठाए जाने चाहिए, और नहीं उठा पा रहे हैं, उन्हें उठाना चाहिए.
तीसरी बात, पडोसी देशों से घुसपैठ करनेवाले विधर्मियों को मतदाता पहचानपत्र, राशनकार्ड, आधार कार्ड इत्यादि देकर वोट बैंक बढाने की प्रादेशिक राजनीति के खिलाफ अब केंद्र को कडे कदम उठाने चाहिए. पहले की (या अभी अनेक राज्यों की) सेकुलर सरकारों द्वारा ऐसे लोगों को गैरकानूनी तरीके से दिए गए नागरिक अधिकार छीन लिए जाने चाहिए और उन्हें अपने देश वापस भेज देना चाहिए. इतना होने से कम से कम नए आनेवालों पर तो रोक लग जाएगी.
हिंदुओं की जनसंख्या जब ८३ प्रतिशत या उससे अधिक थी तब कांग्रेस सहित कई राजनीतिक दलों ने सेकुलरिज्म के नाम पर मुसलमानों तथा इसाइयों का तुष्टिकरण किया ये हम सभी जानते हैं. (जब इस देश के अल्पसंख्यकों की बात की जाती है तब सिख या जैन या बौद्ध धर्म के बारे में हम बात नहीं करते, क्योंकि वे तीनों ही अप्रत्यक्ष रूप से अपनी सनातन परंपरा की, हिंदू धर्म की ही शाखाएं हैं जो हम सभी के लिए गर्व की बात है. रही बात पारसियों की तो उनकी जनसंख्या सारे विश्व में एक लाख के आस पास है और पारसी इस देश की प्रगति में योगदान देने के लिए हिंदुओं के साथ खडे रहे हैं, इतना ही नहीं, कभी कभी तो सवाया हिंदू बनकर उन्होंने मुस्लिमों का विरोध किया है. इसीलिए फॉल ऑल प्रैक्टिकल पर्पज़ हमारी बातचीत में अल्पसंख्यक का अर्थ मुस्लिम तथा ईसाई है).
जब हिंदू ८३ प्रतिशत थे तब कांग्रेस इत्यादि ने मुसलमानों- ईसाइयों का इतना तुष्टिकरण किया था तो फिर जरा कल्पना कीजिए कि यदि हिंदुओं की संख्या तीन प्रतिशत घट जाती है या फिर भविष्य में उससे भी अधिक घटती है तो कांग्रेस-साम्यवादी-समाजवादी लोग अल्पसंख्यकों को कितना सिर पर चढाएंगे. मनमोहन सिंह जब प्रधान मंत्री थे तब उनका दिया गया एक शर्मनाक बयान याद आता है:`इस देश के रिसोर्सेस पर सबसे पहला अधिकार मुसलमानों का है.’ हां, उन्होंने ऐसा कहा था. कांग्रेस जब सत्ता में थी तब वे भारतीय सैन्य बलों में कितने प्रतिशत मुसलमान हैं, ये सर्वेक्षण करवाना चाहते थे जिससे कि देश की जनसंख्या में जितने मुसलमान हैं उसी के अनुपात में थल सेना, नौसेना, वायु सेना में भी उन्हें स्थान मिले. ये तो अच्छा हुआ कि उस समय कांग्रेस के बुद्धिविहीन शासकों को ऐसी दुर्बुद्धि नहीं सूझी कि भारत की जेलों में पचास प्रतिशत से अधिक अपराधी मुसलमान हैं तो जनसंख्या के अनुपात में सरकार को जेलों में १५ प्रतिशत मुसलमानों को रखकर बाकी को छोड देना चाहिए और हिंदुओं को पकड कर जेल में डाल देना चाहिए, क्योंकि देश की जनसंख्या के अनुसार जेल में ८० प्रतिशत हिंदू ही होने चाहिए.
सत्तर साल तक पंडित नेहरू और उनके परिवार के लोगों ने इस देश की दुर्दशा की है, उसे हम सह रहे हैं. मुसलमान-ईसाइयों का तुष्टिकरण करके ही राज किया जा सकता है, ऐसा कल तक माना जाता था और हमने भी मान लिया था. चुनावों के आने पर रमजान के महीने में इफ्तार पार्टियों में हिंदू राजनेताओं को भी जाना पडता था और सिर पर जालीदार टोपी लगानी ही पडती थी, ऐसी दृढ मान्यता थी. खुद वाजपेयी जी ने भी २००४ के लोकसभा चुनाव के समय हरी कटोरीनुमा टोपी पहनकर फोटो खिंचवाई थी (और हार गए थे).
इसके विपरीत नरेंद्र दामोदरदास मोदी नाम का बहादुर व्यक्ति इस देश में है जो मुसलमान मतदाताओं से छलकते उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव के समय एक भी (फिर कहता हूं) सीट पर मुसलमान को टिकट नहीं देते हैं और कभी इफ्तार पार्टियों में नहीं जाते, जालीदार टोपी नहीं पहनते इतना ही नहीं न्यूज कैमरे के सामने (गुजरात में सद्भावना यात्रा के समय जब वे सीएम थे) कई मुसलमानों ने उन्हें कंधे पर इस्लामिक परंपरावाला गमछा ओढाने की जुर्रत की थी तब उन्होंने हंसते हंसते हुए लेकिन दृढता पूर्वक मना कर दिया था. मराठा पगडी, कच्छी पगडी, सिखों की पगडी, नॉर्थ-ईस्ट राज्यों की विभिन्न प्रकार की टोपियां पहनने वाले नरेंद्र मोदी ने मुसलमान मतदाताओं को रिझाने के लिए कभी जालीदार टोपी नहीं पहनी, इस पर हम सभी को गर्व होना चाहिए. भारत की हिंदू जनसंख्या पिछले चालीस साल में जो घटी सो घटी, अब से २०२१ या उसके बाद की जनगणना में ऐसे अशुभ आंकडे नहीं आएंगे इसका इलाज लेख के आरंभ में ही लिखा है लेकिन मेरे हिसाब से उसका इलाज दो ही शब्दों में लिखा जा सकता है! नरेंद्र मोदी.
शेष बाद में…
(यह लेख मार्च २०१७में लिखी गई श्रेणी में से है)