`सफलता के मार्ग पर आनेवाले जोखिम कौन से है?’ गुरुदेव का उत्तर है:`जगह जगह प्रलोभनों की पार्किंग है’

गुड मॉर्निंग एक्सक्लुसिव – सौरभ शाह

(शुक्रवार – १२ अक्टूबर २०१८)

`जीवन की सबसे बडी दुर्घटना कौन सी है?’ अनेक महापुरुष अपनी अपनी तरह से चिंतन करके इन प्रश्नों का उत्तर दे सकते हैं. हम भी अपनी सीमित समझ के अनुसार उसका जवाब खोज सकते हैं लेकिन आचार्य विजयरत्नसुंदर सूरि महाराज साहेब की मौलिक दिव्य दृष्टि कुछ अलग ही देखती है जो हम नहीं देख सकते. देखने में हमें जो सफलता लग रही है उन मामलों को जीवन की दुर्घटना के रूप में कैसे देख सकते हैं. लेकिन महाराज साहेब देख सकते हैं. उनका जवाब है:`गलत कार्यों में मिलने वाली सफलता.’

लोग तो सिर्फ सफलता ही देखने वाले हैं. उसे किन कार्यों में सफलता मिली है यह नहीं दिखता. नाम और पैसा कमा लिया तो उसकी जयजयकार हो गई. वह सब किस तरह से कमाया गया है, कैसे कर्म करके, ये कोई पूछने नहीं जाएगा. कई लोग तो जानने के बाद भी चुप रहते हैं. जब गलत कार्यों से मिली सफलता की आरती उतारी जाती है तब समजा में गलत मानकों का निर्माण होता है. सबसे बडा नुकसान तो व्यक्ति को खुद को होता है. किसी गलत काम में सफलता मिलने के बाद वह अच्छा काम करने के लिए क्यों प्रेरित होगा? एक सफलता मिलने के बाद दूसरी प्राप्त करने के लिए वह दूसरा गलत काम करेगा और उसे गलत काम करने की आदत पड जाती है. वह सारी जिंदगी गलत काम करेगा. वह मान लेगा कि सफलता पानी हो तो गलत काम किए बिना कोई चारा नहीं है. एक छोटे से गलत काम को मिलनेवाली सफलता से जीवन में बडी दुर्घटनाएं हो सकती हैं. समझदार मनुष्य को तो ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए कि हे प्रभु, मैं अगर भूल से कोई गलत काम करूं तो मुझे उसमें सफलता मत दिलाना.

प्रश्न है:`ऐसी कौन सी जगह है जहां भीड देखने को नहीं मिलती?’

उत्तर है:`श्रेष्ठ बनने का मार्ग जहां इक्का दुक्का लोग ही मिलते हैं.’

गुरुदेव यहां श्रेष्ठ बनना चाहनेवाले व्यक्ति को गजब का उत्साह दिलाते हैं. जो भेड चाल में शामिल नहीं होना चाहते, उन्हें अकेले पड गए हैं, ऐसा मानकर खुद को कोसने की जरूरत नहीं है. मीडियोक्रिटी की भीड के बीच फूलती फलती है जब कि श्रेष्ठता तो एकांत में ही रहती है.

अधिकांश लोग अपनी प्रतिभा की धार निकालने के बजाय, रोज घंटों रियाज करने के बजाय जो काम हाथ आया है उसे लेकर रातों रात नामदाम कमाने की रेस में शामिल हो जाते हैं. अगर वे संगीत के क्षेत्र में हों तो रोज घंटों रियाज करके पंडित भीमसेन जोशी या फिर लता मंगेशकर बनने के बजाय शॉर्टकट लेकर विवाह समारोहों में, ऑर्केस्ट्रा, नवरात्रि या बर्थडे पार्टियों में गाने के असाइनमेंट्स ले लेते हैं. उन्हें श्रेष्ठ बनने के लिए खुद को अग्नि में तपाने की नहीं पडी है. अधिकांश लोग ऐसी अग्नि परीक्षाओं से दूर ही रहते हैं जिसके कारण वे छोटे या मीडियोकर ही रह जाते हैं. श्रेष्ठ बनना उनके भाग्य में नहीं होता.

इसी संदर्भ में एक और प्रश्न है: `सफलता के मार्ग पर आनेवाले खतरे?’ उत्तर है:`जगह जगह प्रलोभनों की पार्किंग है.’

शीर्ष सफलता पानेवाले इस दुनिया में कितने होंगे? अनुराग कश्यप एक होनहार डायरेक्टर हैं. मुंबई आकर फिल्म इंडस्ट्री में संघर्ष करते करते उन्होंने टीवी सीरियल में हर महीने अमुक लाख रूपए मिल जाएं, ऐसा काम मिला. ले लिया, टीवी के क्षेत्र में नहीं बल्कि फिल्म के क्षेत्र में आगे बढना था, इसके बावजूद इतनी बडी राशि का प्रलोभन टाल नहीं सके. लेकिन अगले ही महीने एक टैलेंटेड फिल्म निर्देशक ने अपनी आगामी फिल्म के लिए कहानी लिखने की बात कहकर प्लॉट डिस्कस किया. प्रति महीना केवल दस हजार रूपए का मेहनताना और वह भी सिर्फ दस महीने तक. फिल्म को कौन फायनांस करेगा, उसमें कौन कौन काम करेगा ये सब अभी अनिश्चित था. लेकिन अनुराग कश्यप का उद्देश्य फिल्मों से जुडना था. उन्होंने टीवी की लाखों रूपए की आमदनी को ठोकर मारकर प्रलोभन की पार्किंग से अपनी गाडी को बाहर निकाल लिया. उस समय उन्हें विश्वास नहीं था कि वे खुद जो लिखने जा रहे हैं वह फिल्म बनेगी या नहीं और बनेगी भी तो कैसी बनेगी. तीन साल में वह फिल्म बनी और रिलीज होने के बाद आज की तारीख में हिंदी सिनेमा की शीर्ष की फिल्मों में उसकी गणना होती है. वह थी राम गोपाल वर्मा की `सत्या’, जिसके लेखक हैं अनुराग कश्यप. अनुराग ने उसके बाद `ब्लैक फ्रायडे’ से लेकर `गैंग्स ऑफ वासेपुर’ जैसी फिल्में बनाकर साबित कर दिया कि टीवी की लाखों रूपए की कमाई को ठुकरा कर उन्होंने सही फैसला किया था.

कभी हमारा फैसला गलत भी साबित होता है. ये ठीक है. लेकिन बडी सफलता का ध्येय रखा है तो मार्ग में आनेवाले प्रलोभनों का देखकर रुक जाना ठीक नहीं है.

प्रश्न:`सफलता और विफलता की कोई एक ही चाबी है?

उत्तर है:`उत्साह सफलता की चाबी है, निराशा विफलता की चाबी है.’

सफलता की बात करने के बाद गुरुदेव प्रसन्नता की बात छेडते हैं. प्रश्न है:`हमें हमेशा किसे प्रसन्न रखना चाहिए?’ कोई कहेगा प्रभु को, कोई कहेगा मां-बाप को, कोई कहेगा गरू को, कोई कहेगा संतानों तो कोई परिवार को खुश रखने की बात करेगा. साहेबजी कहते हैं:`उसे जिसे हम दर्पण में रोज देखते हैं.’

हमने स्वयं को प्रसन्न रखा है तो ही दूसरोंको प्रसन्न रख सकते हैं. यदि हमारे अंदर ही क्लेश, कलह, ईर्ष्या और द्वेष होगा तो उसके सडन दुर्गंध दूसरों को भी आएगी. हम प्रसन्न होंगे तो उसकी महक से दूसरे भी प्रसन्नता का अनुभव करेंगे. स्वयं को प्रसन्न रखना हमारा कर्तव्य है, उसमें स्वार्थी या आत्मकेंद्रित बनने की बात ही नहीं है. बल्कि हमारा दिया जल रहा होगा तो ही दूसरों का अंधकार हम दूर कर सकेंगे, ये बात समझनी चाहिए.

आजकल फैमिली में छूट देने का चलन बढने लगा है. जिसे जो करना हो वह करने की छूट है ऐसा कहकर हम ब्रॉड माइंडेड होने का संतोष प्राप्त करते हैं, मॉडर्न जमाने का होने का संतोष पाते हैं. स्वतंत्रता का अधिकार हर किसी को है. संतान को, पत्नी को, पति को- सभी का यह जन्मद्धि अधिकार है इसीलिए किसी को मैं स्वतंत्रता दे रहा हूं ऐसा कहने की जरूरत भी नहीं है. किंतु `स्वतंत्रता यानी क्या?’ इस सवाल के जवाब में साहेबजी जो कुछ कहते हैं वह समझ लेंगे तो हम काफी बडी आपदा से उबर जाएंगे और दूसरों को भी आपत्ति से बचा सकेंगे. साहेबजी कहते हैं:`स्वतंत्रता यानी जिसमें गलत होने की छूट है, लेकिन गलत करने की छूट नहीं हो वह है स्वतंत्रता.’

गलत करने की स्वतंत्रता मांगने को स्वतंत्रता मांगना नहीं कहा जाता. जो गलत है सो गलत ही है. ऐसा करने की छूट न तो परिवार दे सकता है, न समाज, न कानून, न सरकार. हां, जो कुछ करना है उसे करने के बाद यदि गलत साबित होते हैं तो हर कोई चला लेगा और फिर से प्रयास करने का मौका भी देगा. व्यापार करके उसमें नुकसान करने की छूट है लेकिन गैरकानूनी व्यापार करने की छूट नहीं है. देशप्रेमी लोगों के साथ जुड कर किए गए कार्यों में विफलता मिलती है तो भी उसके कारण आतंकवादियों के साथ जुड जाने की स्वतंत्रता नहीं हो सकती.

हमें अफसोस होता है कि हमारे काम की कद्र नहीं होती. कोई हमारी प्रशंसा नहीं करता. प्रशंसा सुनने के लिए हमारे कान तरस जाते हैं तब हम येनकेनप्रकारेण अपने ही सम्मान समारोहों का आयोजन करने लगते हैं, इनाम और पुरस्कार प्राप्त करने के दावे करने लगते हैं. जीते जी मिलनेवाली प्रशंसा से कभी किसी का पेट नहीं भरता और मरने के बाद होनेवाली प्रशंसा से मरनेवाले का भला नहीं होता. इसीलिए प्रशंसा सुनने की अपेक्षा गलत है और जब प्रशंसा बरस रही हो तब उसमें नहा लेने की लालच रखना भी गलत बात है. प्रशंसा केवल दो चार छीटों के लिए ही है. उससे अधिक प्रशंसा हो रही हो तो उसे रोक देना चाहिए. कोई आपके मुंह पर आपकी खूब सराहना करे तो आपका कर्तव्य होता है कि बात घुमा कर अन्य दिशा में ले जाना. प्रशंसा सुनकर पेट भरनेवाले लोगों से भी दूर रहना चाहिए. प्रसिद्धि के भूखे लोगों से सावधान रहना चाहिए. जहां अच्छा काम हुआ हो उसकी कद्र जरूर करते हैं लेकिन विशेषणों के पहाड पर व्यक्ति को बिठाने की भूल नहीं करनी चाहिए.

`अपनी प्रशंसा ही प्रशंसा सुननी हो तो क्या करना चाहिए?’ इस सवाल के जवाब में महाराज साहेब ने कहा है: प्रार्थनासभा तक राह देखनी चाहिए.’

कल जारी

आज का विचार

प्र.:`आज के लोग सलाह क्यों नहीं सुनते?’

उ.: `चेतावनी नहीं सुनते, सलाह क्या सुनेंगे?’

– आचार्य विजय रत्नसुंदरसूरि
(`वन मिनट, प्लीज’ में)

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