इस बार दिवाली पांच अगस्त को है: सौरभ शाह

(गुड मॉर्निंग: newspremi.com, गुरुवार, २३ जुलाई २०२०)

आज कल लॉकडाउन के दिनों में एक महत्वपूर्ण पुस्तक का अनुवाद कार्य कर रहा हूं, इसीलिए उससे संबंधित अन्य कई पुस्तकें रेफर कर रहा हूं. कूमी कपूर की `इमरजेंसी: द पर्सनल हिस्ट्री’ का अनुवाद गुजराती में करते समय अनेक रेफरेंस बुक्स तथा किताबों के अलावा अन्य संदर्भों से गुजरते हुए १९७५ से पहले और बाद के दशाकों का एक पूरा युग आंखों के सामने खड़ा हो जाता है. आपको पता चलता है कि तब का और अभी का जमाना कितना अलग था. नहीं, टेक्नोलॉजी की बात नहीं है और न ही आधुनिक संसाधनों की बात है. राजनीतिक रूप से कितना अलग था. जनता की आवाज को संसद तक पहुंचाने की दृष्टि से कितना अलग था. समाज का दर्पण माने जानेवाले अखबारों-मीडिया की दृष्टि से कितना अलग था. इन तीव्र अंतरों के बारे में जितना सोचते हैं उतना ही अधिक लगने लगता है कि हम कितने भाग्यशाली हैं कि आज के दौर को प्रत्यक्ष देख पा रहे हैं, जी रहे हैं और इस दौर का साक्षात्कार करके मन में आज की स्मृतियों को संजोकर रख पा रहे हैं ताकि भविष्य में उस पोटली को खोलकर आनेवाली पीढी से कह सकेंगे कि दो जमानों के बीच क्या फर्क था- एक सत्तर का दशक और दूसरा २०२० का. एक नेहरू परिवार की तीन पीढियों का और दूसरा मोदी का.

हां, ये वही लोग थे जिन्हें इमरजेंसी के दौरान इस देश ने सिर पर बिठाया था, जिन्हें अपने कंधों पर बिठाकर हम सभी नाचे थे.

सबसे बडी गौर करनेलायक बात ये है कि इमरजेंसी का जिन जिन लोगों ने विरोध किया उनमें से नब्बे प्रतिशत पत्रकारों, राजनेताओं और न्याय तंत्र की हस्तियों ने समय बीतने के साथ ये साबित किया कि वे केवल इमरजेंसी के खिलाफ थे, इंदिरा गांधी की तानाशाही के खिलाफ थे, सेंसरशिप के खिलाफ थे. लेकिन वे भारतीय परंपरा का विनाश करने के लिए कार्यरत देश की शिक्षा व्यवस्था के खिलाफ नहीं थे. वे हिंदू जनता को कुचल कर सेकुलरिज्म के नाम पर मुस्लिम वोट बैंक को दुलारने की खतरनाक राजनीति के खिलाफ नहीं थे. इन नब्बे प्रतिशत लोगों के बाद जो दस प्रतिशत बच गए थे उनमें वाजपेयी, आडवाणी, स्वामी, मलकानी, नानाजी देशमुख तथा आरएसएस के कार्यकर्ताओं इत्यादि का समावेश होता है. ये दस प्रतिशत लोग जिस विचारधारा में दृढ विश्वास रखते थे, उसी विचारधारा ने इस देश को आगे बढ़ाया है, फिर से इस देश का भगवा ध्वज गर्व के साथ फडकाया जिसके कारण राष्ट्रध्वज को सारी दुनिया में सम्मान का स्थान जो प्राप्त होना चाहिए, वह मिला. शेष नब्बे प्रतिशत वालों ने, इमरजेंसी का विरोध करके हीरो की तरह पूजे गए उन नब्बे प्रतिशत लोगों ने तो बाबरी ध्वंस के समय हिंदू विचारधारा को मानने वालों की खूब आलोचना की थी और २००२ के गोधरा हिंदू हत्याकांड के बाद गुजरात में अनेक जगहों पर हुए दंगों के समय हिंदुओं को अधमरा कर दिया. हां, ये वही लोग थे जिन्हें इमरजेंसी के दौरान इस देश ने सिर पर बिठाया था, जिन्हें अपने कंधों पर बिठाकर हम सभी नाचे थे. इन लोगों की सूची बनाने जाएंगे तो बहुत लंबी बनेगी. पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर से लेकर पत्रकार लॉबिस्ट कुलदीप नैयर तक के शीर्षस्थ नामों को इस काली सूची में डाला जा सकता है. इन सभी में सेकुलरिज्म के नाम पर हिंदुत्व के प्रति कूट कूटकर धिक्कार की भावना भरी थी, जिसके प्रमाण आपको कई संदर्भ ग्रंथों से और अन्य संदर्भ संसाधनों में से मिल जाएंगे. इन लोगों की या ऐसे लोगों की छत्रछाया में पले बढे पत्रकार, राजनेता तथा जुडिशियरी की नई पीढियां भी कल तक उनके पूर्वजों द्वारा पढाए गए पाठ की पट्टी हमें पढाती रही हैं. तीन मुख्य मुद्दे थे उनके पास इस देश को `सच्चा मार्गदर्शन’ देने के लिए और हिंदू विचारकों को लताडने के लिए:

एक: पाकिस्तान हमारा पडोसी देश है, छोटा भाई है, उसके अपराधों को माफ करके उसके साथ उदार मन से व्यवहार करना चाहिए. उसकी गलतियों को ध्यान में लिए बिना उसके साथ हमेशा मैत्री भाव से व्यवहार करना चाहिए- अमन की आशा रखनी चाहिए. उसे उकसाना नहीं चाहिए. गलती से यदि उसे भडकाएंगे तो हमें भारी पडेगा- और उसके पास परमाणु बम है.

दो: कश्मीर की समस्या को वहां के स्थानीय नेता (शेख अब्दुल्ला, फारुख अब्दुल्ला तथा अन्य) अधिक अच्छी तरह से जानते हैं और वही इसका हल निकाल सकते हैं. भारत ने राजा हरिसिंह के साथ किए गए समझौते का सम्मान करना चाहिए. भारत को धारा ३७० की शर्तों का पालन करना चाहिए. आतंकवादी बेचारे हालात की मार के कारण शस्त्र उठा रहे हैं. उनसे संवाद करना चाहिए. जहां तक हो सके, उनकी शर्तें मानकर कश्मीर में शांति स्थापित करके प्रयास करना चाहिए.

तीन: हिंदुत्व के नाम पर जहर फैला रहे सांप्रदायिक तत्व इस देश की समरसता को बिगाड कर मुसलमान जनता को अलग थलग करने का प्रयास कर रहे हैं. यदि ये सांप्रदायिक लोग अपने मंसूबे में कामयाम हो जाते हैं तो देश की सेकुलर पहचान नष्ट हो जाएगी और दुनिया के अन्य देश हम पर थू थू करेंगे, हमारा आर्थिक तथा अन्य रूप में बहिष्कार करेंगे. हिंदुत्व का नाम लेने से देश पाषाण युग में लौट जाएगा.

उस समय के नब्बे प्रतिशत राजनेता, पत्रकार तथा बुद्धिजीवी माने जानेवाले वर्ग का ये अजेंडा था. जो लोग इस अजेंडे पर विश्वास नहीं रखते थे, वे सभी अनपढ हैं, कट्टर हैं, पिछडे हुए हैं, परंपरावादी है, देश की उन्हें कुछ नहीं पडी, आधुनिकता की हवा उन्हें छू तक नहीं पाई है, अत: उनकी आवाज को दबा देना चाहिए, ऐसा वातावरण था.

आप देख सकते हैं कि कल तक हमने ऐसे ही वातावरण में सांस ली. ऐसे घुटनभरे वातावरण में ताजा हवा का झोंका खोजते रहे.

हमारे सौभाग्य से वाजपेयी-आडवाणी के पूर्वजों और वंशजों द्वारा बहाए गए रक्त-पसीने के प्रताप से एक लहर ही नहीं, बल्कि पूरा तूफान ही आ गया हिंदुत्व का और उन घटिया पत्रकारों और राजनेताओं के छप्पर ही नहीं, बल्कि पूरे का पूरा महल ही भारी वेग से बही हवा में दूर दूर तक उड गए.

किस तरह से उड गए? तीन मुख्य बिंदु हैं:

एक: पाकिस्तान को उकसायान नहीं जा सकता, वह जो भी शरारत करता है उसे सहकर चला लेना चाहिए और दोस्ती के दरवाजे हमेशा खुले रखने चाहिए, ऐसा सुन सुन कर जिन भारतीयों के कान पक गए थे उन्होंने २६ फरवरी २०१९ को भारतीय वायु सेना के विमानों द्वारा बालाकोट में पाकिस्तानी आतंकवादियों के अड्डे को तहसनहस करके सही सलामत लौट आने का समाचार सुना. पाकिस्तान को `उकसाया’ नहीं जा सकता, इस मान्यता को एक ही रात में ध्वस्त कर दिया गया.

हम चाहें तो पाकिस्तान को चुटकी में मसल सकते हैं, ऐसा एहसास भारतीय जनता को कराया गया, सारी दुनिया को कराया गया. खासकर पाकिस्तान को कराया गया. पाकिस्तान के साथ एक टेबल पर बैठकर चर्चा करके ही हम अच्छे दिखेंगे, जैसी गलतफहमियों से ये देश बाहर निकल आया.

१३० करोड जनता की सच्ची आवाज यही है- न कि तथाकथित सेकुलर पत्रकार- राजनेता- बुद्धिजीवी जो प्रोजेक्ट करते हैं वो है- इसका विश्वास देश, दुनिया को हो चुका है.

दो: कश्मीर की समस्या के मूल में वहां के राजनेता ही है और आतंकवादियों के प्रति उनकी सहानुभूति (तथा कभी कभी सांठगांठ) के कारण इस समस्या का हल कभी नहीं होगा, उलटे ये बिगडती ही जाएगी, इस बात का विश्वास भारत के लोगों को हुआ. कब हुआ? ५ अगस्त २०१९ को जब भारत सरकार ने घोषणा की कि कश्मीर को विशेष दर्जा देनेवाली संविधान की धारा ३७० की पुडिया को समेट दिया गया और अब जम्मू कश्मीर राज्य को केंद्र शासित प्रदेश बनाकर सीधे दिल्ली के नियंत्रण में लाया गया तब जाकर भारतीय जनता को विश्वास हुआ कि कश्मीर समस्या के बारे में अभी तक जो चतुराई की बातें पत्रकार-राजनेता, बुद्धिजीवी करते थे, उन डेढ सयानों की सलाह की इस देश को कोई जरूरत नहीं है.

तीन: ९ नवंबर २०१९. सदियों से अधर में लटक रही रामजन्मभूमि की समस्या को सुप्रीम कोर्ट ने इतनी सुंदरता से सुलझा दिया कि इस फैसले के बाद देश में किसी भी मुस्लिम नेता ने दंगे नहीं कराए. हिंदुत्व का `ह’ बालेने वाले को भी जिस देश में सांप्रदायिक कहा जाता था और आरएसएस जैसी पवित्र राष्ट्रवादी संस्थाओं को आतंकवादी संगठन बताया जाता था, उस देश की आबोहवा अब बदल चुकी है. १३० करोड जनता की सच्ची आवाज यही है- न कि तथाकथित सेकुलर पत्रकार- राजनेता- बुद्धिजीवी जो प्रोजेक्ट करते हैं वो है- इसका विश्वास देश, दुनिया को हो चुका है.

५ फरवरी, ५ अगस्त और ९ नवंबर-२०१९ के एक ही साल में तीन तीन युग प्रवर्तक घटनाएं इस देश में हुईं. इस दौरान पिछले पांच – छह वर्षों में इस्लामिक देश भी भारत को सलामी देने लगे. अपने देश में उत्साह से मंदिर बनाने की अनुमति देने लगे और सिर पर रामायण की पोथी रखकर मोरारीबापू की कथा में आने लगे.

चीन-अमेरिका-जापान-फ्रांस-यूके जैसे आर्थिक जगत के दिग्गज भी हमसे झुककर हाथ मिलाने लगे. भारत आधे दशक में ही गरीब-बेचारे थर्ड वर्ल्ड कंट्री से दुनिया का नेता बनने की दौड में अगली पंक्ति में आ गया.

ये सब कुछ किसके प्रताप से हुआ है? आप जानते हैं. और ये लोग कहते हैं कि प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को पांच अगस्त के दिन राम मंदिर की आधारशिला रखने के लिए अयोध्या नहीं जाना चाहिए?

अब इन लोगों की बात कोई सुनने नहीं वाला- नब्बे प्रतिशत वाले पत्रकार-राजनेता-बुद्धिजीवी अब हाशिए पर धकेल दिए गए हैं. इसीलिए गला फाडकर वे चिल्ला रहे हैं ताकि हमारा ध्यान उन पर जाए.

भारत बदल चुका है. भारत अभी और बदलेगा. २०२४ के चुनावों के बाद इस देश में २०१९ की तीन युग प्रवर्तक घटनाओं की तरह दर्जनों घटनाएं होनेवाली हैं. इस साल दिलवाली थोडी जल्दी आनेवाली है. पांच अगस्त को. अभी तक देश में कई बार ईद मनाई जाती थी, अब साल में बार बार दिवाली मनाई जाएगी.

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