एक फिल्म आपको क्या क्या सिखला कर जाती है

गुड मॉर्निंग- सौरभ शाह

(मुंबई समाचार, सोमवार – १९ नवंबर २०१८)

मराठी और हिंदी भगिनी भाषाएँ हैं. दोनों बहनों की जननी एक ही है. दोनों का उद्गम संस्कृत में से हुआ है इसीलिए कई सारे शब्दों में समानता है. लेकिन कई शब्दों का अर्थ मराठी में बिलकुल अलग होता है. `इथे ओशाळला मृत्यु’. वसंत कानेटकर के `अश्रुंची झाली फुले’ के बाद इस नाटक में डॉ. काशीनाथ घाणेकर का लीड रोल था. ओशाळ यानी लजाना, अंग्रेजी में जिसे अबेश्ड कहते हैं. काशीनाथ के मित्र-मसीहा प्रभाकर पणशीकर निर्मित-अभिनीत इस नाटक के भी दनादन मंचन हो रहे थे. फिल्म में दिखाया गया है कि `इथे ओशाळला मृत्यु’ के एक शो में चालू सीन में, डायलॉग बोते बोलते डॉ. काशीनाथ घाणेकर को हार्ट अटैक आता है. वह स्टेज पर लुढक जाता है. काशीनाथ की आवाज में वॉइस ओवर: रोज अलग अलग जगह पर तीन शो करने होते थे, बाहर के टूर्स होते थे (मराठी रंगूभूमि के कलाकारों को मुंबई से बाहर अधिक दौडभाग करनी पडती है. महाराष्ट्र में दो तीन दर्जन सेंटर्स के अलावा `बी’ टाउन्स में भी नाट्य प्रेमियों के लिए शो का आयोजन किया जाता है. इस कारण से मराठी के नाटक तेजी से ३००- ४००- ५०० शो कर लेते हैं. फिल्म में वसंत कानेटकर कहते हैं कि:`मुझे अपने नाटक के सिर्फ १०० ही शो नहीं करने हैं.’ जब कि अपने यहां सौ से अधिक बार नाटक का मंचन होना एक उपलब्धि मानी जाती है). बाहरी इलाकों में दौडधूप के अलावा खराब आदतें, व्यसन, तबीयत और ओवरऑल लाइफ के बारे में लापरवाही- इसका परिणाम ये हुआ कि ४०- ४२ साल की कम उम्र में ही हार्ट अटैक ने काशीनाथ को वॉर्निंग दे दी.

इस हार्ट अटैक के बाद `इथे ओशाळला मृत्यु’ के शोज़ छोड़कर काशीनाथ घाणेकर को रेस्ट लेना पडा. उनका रोल डॉ. श्रीराम लागू करने लगे. (फिल्म में यह जानकारी नहीं है लेकिन ऐसा हुआ था).

ठीक होने के बाद काशीनाथ ने `गारंबी चा बापू’ में लीड रोल किया. श्री.ना. पेंडसे (श्रीपाद नारायण पेंडसे) लिखित इस नाटक से फिर एक काशीनाथ का सितारा चमका. लेकिन तेजस्वी मनुष्य गलतियां भी तभी करते हैं जब उनका सितारा चमक रहा होता है. फॉर दैट मैटर गलतियां तेजस्वी इंसान ही करते हैं. मिडियोकर और बुझे हुए लोग नया साहस करने के बजाय संभल कर बैठे रहते हैं इसीलिए उन्हें गलतियां करने का मौका नहीं मिलता, और इसीलिए वे अपने खुद को उन तेजस्वी सितारों से भी अधिक ऊँचा मानने के भ्रम में रहकर जीवन जीते हैं और फिर काल के गर्त में समा जाते हैं.

काशीनाथ जैसे किसी भी सफल इंसान के दिमाग में सफलता के सरसों की छौंक लगती ही है. (कइयों के दिमाग पर तो विफलता की राई चढ जाती है). ऐसा घमंड क्रिएटिव कलाकार को नई ऊँचाइयों की बुलंदी पर बिठा सकता है और कभी ये घमंड (मुझे कौन बोलनेवाला है. मैं तो सबसे ऊपर हूँ) उसे फिर एक बार जमीन पर ला पटकता है. काशीनाथ के साथ ऐसा ही हुआ. `गारंबी चा बापू’ के अंतिम दृश्य में जिस अभिनेत्री को काशीनाथ के शरीर पर सिर टिकाना होता है उससे काशीनाथ ने बार बार कहता है कि तुझे मेरे गले पर नहीं, कंधे पर सिर रखना है. क्लाइमेक्स का सीन है. तुम मेरे गले पर आ गिरती हो तो मेरी सारी एनर्जी डाउन हो जाती है.

लेकिन इस शो मे अभिनेत्री फिर से गलती करती है. काशीनाथ चालू नाटक में उस अभिनेत्री को कमर पर जोर से चिमटी लेता है. अभिनेत्री ने भले गलती की लेकिन काशीनाथ ने जो किया वह अक्षम्य अपराध था. बदतमीजी थी. साथी कालकार का नहीं, रंग देवता का अपमान करनेवाला बर्ताव था. उसी क्षण `गारंबी चा बापू’ से काशीनाथ को निकाल दिया जाता है. अगले दिन यह चिमटी लेने का मामला अखबार में छप जाता है. सारा नाट्य जगत, काशीनाथ के हजारों प्रशंसक चकित हो जाते हैं.

इसी दौरान एक दिन दादर स्थित मुंबई के विख्यात नाट्यगृह `शिवाजी मंदिर’ के सामने दो मित्र मिलते हैं. (इस नाट्यगृह में दशकों से सप्ताह के सातों दिन मराठी नाटकों/ कार्यक्रमों के तीन – तीन शो हर दिन होते हैं. गिरगांव के `साहित्य संघ’ में भी दिन में एक से अधिक शो हुआ करते थे. मराठी नाटक अब प्रभादेवी के रवींद्र नाट्यगृह, माटुंगा के यशवंत नाट्यगृह, पार्ले के दीनानाथ, ठाणे के गडकरी रंगायतन, बोरीवली के प्रबोधनकार तथा ठाणे-हीरानंदानी के काशीनाथ घाणेकर नाट्यगृह के अलावा कल्याण, डोंबिवली इत्यादि जगहों के सुंदर नाट्यगृहों में नियमित रूप से होते हैं, लेकिन उस जमाने में ये नाट्यगृह नहीं बने थे तब १९७० के दशक के आखिरी वर्षों में- कॉलेज के दिनों में शिवाजी मंदिर और साहित्य संघ-दादर तथा गिरगांव के बीच दौड भाग करके दो दिन में कुल पांच मराठी नाटक देखे हैं.)

काशीनाथ की कार में पणशीकर बैठे हैं और मित्रवत सलाह दे रहे हैं: नाट्य जगत अब बदल रहा है. तू अपना घमंड छोडकर अपडेट हो जा और काम में ध्यान दे. विजय तेंडुलकर की लेखनी तूफान बनकर मराठी रंगमंच पर फैल रही है. (तेंडुलकर के `गिधाडे’ नाटक में डॉ. श्रीराम लागू के काम की खूब सराहना हुई थी और बेशक शिरवाडकर के `नट सम्राट’ के कारण श्रीराम लागू अभिनेता के रूप में काफी ऊँचे स्तर पर स्थापित हो चुके थे). पणशीकर कहते हैं: श्रीराम लागू जिस तरह से काम कर रहे हैं उसे देखकर लगता है कि अगर तू नहीं सुधरा तो एक दिन वो तेरी और मेरी दुकान बंद करा के रहेगा.

ये कहते समय दोनों मित्र देखते हैं कि सामने `शिवाजी मंदिर’ का शो छूटा है और डॉ. श्रीराम लागू अपनी कार में बैठने जाएँ उससे पहले प्रशंसकों -दर्शकों की भारी भीड उन्हें घेरे हुए है. काशीनाथ तुरंत कार रिवर्स लेकर यूटर्न मारकर `शिवाजी मंदिर’ के एंट्रेंस के पास पार्क करके बाहर निकलता है. काशीनाथ को देखते ही सारी भीड हूsssss करते हुए डॉ. लागू को छोडकर अपने प्रिय सुपरस्टार को घेर लेती है. अकेले खडे डॉ. लागू के पास एक बच्ची हाथ में ऑटोग्राफ बुक और पेन लेकर आती है. डॉ. लागू उसमें हस्ताक्षर करने ही जा रहे हैं कि वह बच्ची काशीनाथ को घेरी हुई भीड के पास जाकर कहती है:`अंकल वहां भीड बहुत है. मुझे उनका ऑटोग्राफ लेकर दीजिए ना.’

डॉ. लागू क्षणभर संकोच करते हैं. फिर बच्ची को लेकर अपने हाथ की ऑटोग्राफ बुक और पेन लेकर प्रभाकर पणशीकर से मिलते हैं. हाल चाल पूछकर इशारे से कहते हैं: `पंत, इस बच्ची को काशीनाथ का ऑटोग्राफ चाहिए (मेरा नहीं). जरा तुम मदद…’ शब्द नहीं बोले जा रहे लेकिन हल्के फुल्के जेस्चर्स हैं. पणशीकर लागू से कहते हैं: `देखा, छोटी बच्चियां भी काशीनाथ की फैन हैं.’ तब लागू कहते हैं:`लेकिन ये पीढी जब पडी होकर समझदार (मैच्योर्ड) हो जाएगी तब उनका हीरो बदल चुका होगा.’

डॉ. श्रीराम लागू के ये शब्द दार्शनिक हैं. कामचलाऊ सनक खडी करनेवाले ऐक्टर्स- कलाकार- लेखक इत्यादि की तुलना में ठोस काम द्वारा ठोस आधार डालनेवालों की प्रगति भले धीमी होती है लेकिन एक बार मैच्योरिटी आ जाने के बाद, उनके काम की गुणवत्ता की ऊँचाई के बारे में विश्वास हो जाने के बाद, लोग उस चमकदमक वाली आंखों को चौंधिया देनेवाले ग्लैमर से बाहर निकल आते हैं.

डॉ. लागू को छोडकर खुद को घेरनेवाली भीड देखने के बाद काशीनाथ पणशीकर पूछता है: बोल अब, कौन किसकी दुकान बंद करेगा?

पणशीकर चुप हो जाते हैं. दोस्त को एक सीमा तक ही सलाह देनी चाहिए. उससे अधिक सलाह देने की कोशिश करने पर दोस्ती खतरे में पड जाती है. सहृदय मित्र की सलाह से जो न सुधरे उसे भारी कीमत चुका कर पत्थर से ठोकर खाते हुए सुधरना पडता है.

काशीनाथ ये मानने के लिए तैयार नहीं थे कि उनकी फैन फॉलोइंग घटती जा रही है. अपनी तरह तरह की हरकतों के कारण उनके अपने ही प्रशंसक दूर होते जा रहे हैं और डॉ. श्रीराम लागू की लोकप्रियता बढती जा रही है. एक दिन `अश्रूची झाली फुले’ के मंचन में प्रिंसिपल और लाल्या का सीन चल रहा है. प्रभाकर पणशीकर के संवाद के जवाब में काशीनाथ घाणेकर अपनी मोहक अदा से एक हाथ उठाकर, हथेली-उंगलियों को फैलाकर `उसमें क्या है?’ बोलते हैं. अभी तक हॉल में बैठे लोग इस संवाद की सराहना करते थे. स्टेज पर यह संवाद कहे जाने से पहले ही सारे दर्शक एक साथ बोल उठते थे: उसमें क्या हैं? हॉल में रोमांच फैल जाता था, गर्माहट आ जाती थी. लेकिन इस बार काशीनाथ के इन संवादों पर कोई प्रतिध्वनि सुनाई नहीं पडी. सन्नाटा. ऑडियन्स में से कोई भी इस संवाद से- अदा से प्रभावित नहीं हुआ. काशीनाथ ने फिर एक बार उसी अंदाज में डायलॉग फेंका: उसमें क्या है? कोई भी नहीं हिला. काशीनाथ अपनी जगह से उठकर स्टेज के फ्रंट में आकर स्पॉटलाइट के नीचे खडे होकर बोलता है: उसमें क्या है? दर्शक ठंडे हैं. पणशीकर खडे होकर काशीनाथ के पास आकर कान में कहते हैं: नेक्स्ट लाइन बोल, और नाटक आगे बढने दे. काशीनाथ अंत में नाकाम कोशिश करता है: उसमें… और क्या है? बोलते बोलते उसकी आवाज फट जाती है, वह टूट जाता है, हताश हो जाता है- अपनी टूटती छवि को देखकर जो किसी जमाने में शिखर पर थी.

नाटक किसी तरह से पूरा होता है. पणशीकर काशीनाथ को समझाते हैं: ७००- ८०० तक दर्शक थे, तू उनके सामने नाराज हो जाए, ऐसा नहीं चलेगा. काशीनाथ कहता है; `लेकिन उन लोगों ने तालियां क्यों नहीं बजाईं.’ पणशीकर कहते हैं `यहां तो वैसे भी ऑडियन्स ताली कम बजाया करती है’ (ऐसा होता भी है. कोई गुजराती नाटक यदि नरीमन पॉइंट के `चव्हाण’ में खेला जाता है तो वालकेश्वर से आई ऑडियंस इस अप्रोच के साथ अच्छे अच्छे सीन को ठंडा बना देती है कि टिकट के पैसे तो पूरे दिए हैं, फिर तालियां क्यों बजानी.’ जब कि दूसरी ओर बोरीवली के `प्रबोधनकार’ में आई ऑडियंस थोडा भी आनंद आने पर तालियों और सीटियों से कलाकरों का उत्साहवर्धन करती है).

काशीनाथ ये मानने के लिए तैयार ही नहीं है कि उसकी लोकप्रियता ढलान पर है. वह पणशीकर से कहता है: नाटक तो कल ही हाउसफुल हो गया था. ये सभी लोग लाल्या को देखने आए थे.

पणशीकर कहते हैं: तू भूल रहा है. अभी तक वे लाल्या को देख रहे थे. आज उन्होंने (अभिनेत्री को चिमटी काटने की अभद्रता करने वाले ) काशीनाथ को देखा है.

यह सुनकर काशीनाथ का एक चमचा कहता है: लेकिन लाल्या और काशीनाथ एक ही तो हैं.

हर कलाकार, रचनाकार, लेखक को अपने चमचों से दूर रहना चाहिए- खासकर अपनी गिरावट के दौर में. वे आपकी अनुभूति को खंडित कर देते हैं. ढलान के दौर में वे आपको सच्ची सलाह देने के बजाय वास्तविकता से दूर ले जाकर भ्रम में रखते हैं.

काशीनाथ मान लेता है कि इस शो का ऑडियंस ऐसी नहीं थी. किसी ने पैसे देकर अपने आदमी बिठा दिए थे- शो फ्लॉप करने के लिए. ये कोई डॉ. श्रीराम लागू ही है ऐसा काशीनाथ के दिमाग में भर गया है. १९७३. `काचेचा चंद्र’. सुरेश खरे लिखित-निदेर्शित इस सुपरहिट नाटक में लीड रोल डॉ. श्रीराम लागू का है. एक दिन नाटक का शो चल रहा था और काशीनाथ अपने चमचों के साथ आकर फ्रंट रो में बैठ जाते हैं. ऑडियंस हीं नहीं, स्टेज के कलाकार भी काशीनाथ को देखकर उनकी जयजयकार करने लगते हैं. नाटक थम जाता है. स्टेज पर अपनी भूमिका में खो चुके डॉ. श्रीराम लागू संकोच में पड जाते हैं. काशीनाथ यह तमाशा करने के बाद मंच पर मौजूद कलाकारों को उद्दंडतापूर्वक इशारों में कहते हैं: आप अपना नाटक चालू रखो.

काशीनाथ घाणेकर के कट्टर समर्थक को भी यह हरकत अच्छी नहीं लगती. डॉ. लागू के आप कट्टर दुश्मन होंगे तो भी ऐसे मामले में आप डॉ. लागू के पक्ष में जाकर खडे हो जाएंगे. और यहां कोई गैंगवॉर नहीं हो रहा था? दो कलाकार थे, ये सच है कि प्रतिस्पर्धी थे लेकिन संस्कारी क्षेत्र के महारथी थे.

इस सीन के बाद डॉ. श्रीराम लागू (यानी सुमित राघवन) की आवाज में वॉइस ओवर है:

`इथे आलो तेव्हाच माहित होतं की हे रंगभूमि नव्हे, रणभूमि आहे. इथे स्पर्धा-प्रतिस्पर्धा, दाव-प्रतिदाव यांची पण एक विशिष्ट गंमत आहे. पण जेव्हा एक कलाकार दुसर्यांना खेळेत व्यत्यय आणतो तेव्हा तो कलाकार म्हणून संपलेला असतो. आज एक रात्रीत तो संपला कायमचा….’

(यानी – यहां जब आया तभी पता था कि ये रंगभूमि नहीं, रणभूमि है. यहां स्पर्धा-प्रतिस्पर्धा, दांव-पेच का भी अपना एक खास मजा है. लेकिन जब एक कलाकार दूसरे के खेल में रुकावट डालता है तब वह कलाकार के रूप में खत्म हो चुका होता है. आज वह एक रात में ही खत्म हो गया हमेशा के लिए…’)

और फिर तुरंत काशीनाथ घाणेकर (सुबोध भावे) की आवाज में वॉइस ओवर: और एक ही रात में, मैने जो कुछ भी कमाया था वह सब गंवा दिया. अपनी जान से भी अधिक जिन्हें मैं प्यारा था ऐसे मेरे फैन्स, मुझमें रहे कलाकार और…..

संवाद का वाक्य अधूरा छोड दिया गया है. आपको अपने अनुभव से कल्पना कर लेनी है कि ऐसी परिस्थिति में इंसान अपना क्या क्या गंवाता है.

डॉ. लागू की बात सच थी. स्पर्धा-दांव पेंच तो हर क्षेत्र में होता है. लेकिन जब कोई धावक दूसरे के प्रति ईर्ष्या के कारण उसकी दौड में टांग डालकर उसे गिराने की कोशिश करता है तब वह खिलाडी के नाते खत्म हो जाता है.

यह बात काशीनाथ को भी ध्यान में आती है. वह खुद भी इस बात को मानते हैं. उन्होंने जिंदगी में क्या क्या खोया है इस सूची में `और….’ के बाद जो आता है वह उनकी पत्नी इरावती है. तुरंत जो सीन आता है उसमें इरावती काशीनाथ से कहती है कि वह उसे छोडकर जा रही है- किसी और से शादी करने जा रही है. (इरावती भी श्रीमती घाणेकर से श्रीमती भिडे बनीं).

काशीनाथ की जो जीवन यात्रा तेजी से ऊंचाई पर जा रही थी वह अब उसकी दुगुनी गति से ढलान पर लुढकने लगी. भाग्य काशीनाथ को एक और सुनहरा मौका देता है. आनंदी गोपाल जोशी के जीवन पर श्री कृष्ण जनार्दन जोशी के लिखे उपन्यास `आनंदी गोपाल’ पर राम जोगलेकर उसी नाम का नाटक लिखते हैं जिसमें लीड रोल काशीनाथ को मिलता है. फिर से एक बार लगता है काशीनाथ इस नाटक से कमबैक करेंगे. ऑडियन्स अपने प्रिय कलाकार के पुनरागमन का स्वागत करती है. लेकिन इस बार काशीनाथ नाटक छोड देते हैं. क्यों?

काशीनाथ घाणेकर की एक खासियत थी. अपना शो शुरू होने से पहले वे घर से निकलते समय थिएटर की बॉक्स ऑफिस पर फोन करके पूछ लेते थे कि शो हाउसफुल हुआ या नहीं. अगर जवाब मिलता कि नहीं, पांच सात टिकटें बाकी हैं- तो काशीनाथ उन्हें अपने नाम पर खरीदने के लिए कह देते और फिर कहते की हाउसफुल का बोर्ड लटका दो. तब वो दर्शकों के बीच से होकर थिएटर में ग्रैंड एंट्री करते थे.

नाटक पूरा होते ही तुरंत उनका मेकअप मैन तेल इत्यादि लेकर तैयार रहता था. काशीनाथ तेजी से मेकअप उतारकर, हॉल छोड रहे दर्शकों से मिलकर अपनी प्रशंसा सुनते रहते, अपनी ख्याति में खोए रहते. (ये सब विस्तार से फिल्म में नहीं है, लेकिन ऐसा था) `आनंदी गोपाल’ में काशीनाथ काशीनाथ को बनावटी टाल वाली विग, मूंछ, भौंह, मस्सा इत्यादि लगाना होता था जिसे निकालने में काफी समय लग जाता और तब तक ऑडियंस निकल चुका होता था, थिएटर खाली हो जाता था. काशीनाथ को मजा नहीं आती थी. उन्होंने धुंऑंधार चल रहा नाटक छोड दिया.

एक बार डॉ. श्रीराम लागू यह नाटक देखने आए थे. फ्रंट रो में बैठे थे. लोग तालियां बजाते लेकिन लागू चुपचाप हाथ पर हाथ रखे देखते रहते. काशीनाथ ने यह देखा. काशीनाथ नर्वस हो गए. लेकिन लोगों की तालियों पर फिदा थे. नाटक खत्म होने के बाद लागू बैकस्टेज में आकर सभी का अभिनंदन करते हैं. काशीनाथ एक कोने में बैठे हैं. एक लडकी लागू का ऑटोग्राफ लेने आती है. लागू देखते हैं कि उसकी ऑटोग्राफ बुक में सभी पन्नों पर काशीनाथ के हस्ताक्षर हैं. लागू तनिक भी विचलित हुए बिना एक कोरा पन्ना खोजकर ऑटोग्राफ देते हैं. इस सीन के दौरान वॉइस ओवर में काशीनाथ का संवाद है: उस रात उन्हें (लागू को) पता चला कि मैं कौन था. और मुझे भी समझ में आ गया कि मैं तो पात्र `था’, जब कि वो `है’ वो `रहेंगे’.

अभिजीत देशपांडे निर्देशित इस पहली ही फिल्म के पहले सीन में ही काशीनाथ घाणेकर का बहिष्कार करने के लिए मराठी नाट्यजगत के धुरंधर प्रोड्यूर्स जुटे हैं. इस सीन में काशीनाथ घाणेकर की जीभर कर निंदा की जाती है. सीन को अधूरा छोडकर फिल्म शुरू हो जाती है- काशीनाथ के प्रॉम्पटर के रूप में काम करने से.

फिल्म का अंत आने पर नाट्यनिर्माताओं की मीटिंग का यह सीन फिर से आता है और इस बार अधूरा नहीं रहता. निर्माताओं के समूह में काशीनाथ के मित्र -मसीहा और `नाट्यसंपदा’ संस्था के मालिक प्रभाकर पणशीकर भी हैं. काशीनाथ का बहिष्कार करने का प्रस्ताव तकरीबन बहुमत से पारित होने की तैयारी में है, तभी प्रभाकर पणशीकर खडे होकर अपने दोस्त के बचाव में जो पंक्तियां बोलते हैं वह यादगार है:

`एक मिनट, एक मिनट….अभी काशीनाथ के पापों का हिसाब करनेवाले हम लोगों में से कौन दूध के धुले हैं? गलतियां हुई हैं, वह कुछ मामलों में बिलकुल गलत भी था, माना. उसने लक्ष्मण रेखा लांघी, यह भी माना. लेकिन असामान्य प्रतिभा के साथ ऐसी छोटी बडी गलतियां तो होती रहती हैं. और मुझे बताइए कि आपमें से कितनों को पता है कि काशीनाथ घाणेकर होने का अर्थ क्या है? हिंदी फिल्मों के कारण जब मराठी रंगमंच पर कौवे उड रहे थे तब ये काशीनाथ ही आपके सहारे के लिए दौडा था. कभी संभाजी बनकर अवतरित हुआ तो कभी लाल्या बनकर चमका. दर्शकों को खींचकर टिकट खिडकी तक लाया. आज उसके कारण हुए नुकसान का हिसाब करनेवाले निर्माताओं को कल काशीनाथ ने खडा किया था, उनकी तिजोरियां भरी थीं. रंगभूमि को जब जरूरत थी तब वह था और आज जब उसे रंगभूमि की जरूरत है तब हम ऐसा बर्ताव कर रहे हैं? उसे एक मौका देंगे तो वह फिनिक्स की तरह खुद को राख से दोबारा खडा कर लेगा. मैं और मेरी कंपनी काशीनाथ के पीछे दृढता से खडे हैं. आप तय कीजिए कि कौन मेरे साथ है.’

ऐसे आत्म-कथन होने के बाद और कुछ लिखने का मन ही नहीं कर रहा.

समाप्त.

आज का विचार

सच्चा हूं तो भी मैं खुद को साबित नहीं करूंगा,

मैं सत्य को इस तरह से लज्जित नहीं करूंगा.

– डॉ. रईश मनीयार

एक मिनट!

कार्डियोलॉजिस्ट: यू हैव थ्री ब्लॉक्स!

बका: नहीं, डॉक्टर साहब. चार हैं. एक छह सौ स्क्वेयर फुट का पार्ले में हैं, दूसरा कांदीवली में, तीसरा अभी घाटकोपर में लिया है और चौथा भुज में ले रखा है.

कार्डियोलॉजिस्ट: उसमें एक कल ही बेच दीजिए. परसों आपकी बायपास करनी है.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here